छत्तीसगढ़ के आदिवासी कई सालों से आंदोलित है। आदिवासियों की मांग है कि हसदेव अरण्य क्षेत्र में सरकार तुरंत कोयला खनन परियोजनओं पर पाबन्दी लगाए और भविष्य में ऐसा न हो उसके लिए भी नीति बनाये। लेकिन सरकार अपने निर्णय से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं है ऐसे में आदिवासियो ने फैसला लिया है कि वह अपना आंदोलन तब तक जारी रखेंगें जब तक सरकार उनकी मांगो को मानने के लिए तैयार नहीं होती है।
कुछ साल पहले यह खुलास हुआ था कि हसदेव वन क्षेत्र में काफी मात्रा में कोयला का भण्डारण है।और इसी खुलासे के बाद हसदेव अरण्य को वर्ष 2009 में “केंद्रीय वन पर्यावरण एवं क्लाइमेट चेंज मंत्रालय” ने खनन की अनुमति दी थी। लेकिन दो साल बाद ही 2011 में तत्कालीन केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री रहे जयराम रमेश ने इस क्षेत्र में 3 कोल ब्लॉक तारा, परसा ईस्ट,केते बासन को भी सहमति दी थी लेकिन हसदेव अरण्य क्षेत्र को इससे बहार रखा गया था। वही 3 साल बाद 2014 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यून ने एक बड़ा फैसला सुनाते हुए परसा ईस्ट केते बासन की वन स्वीकृति को निरस्त कर दिया था लेकिन उसके बावजूद केन्द्र सरकार ने एनजीटी के फैसलों को दरकिनार कर खनन परियोजनाओ को स्वीकृति देना शुरू कर दिया.
इस पूरे इलाके में कुल 20 कोल ब्लॉक चिह्नित हैं,जिसमें से अधिकतर को अनुमति मिल गई है।इन परियोजनाओं में लगभग सात हजार हेक्टेयर वनभूमि का भी अधिग्रहण होगा। यानि ओपन-कास्ट माइनिंग के लिए 2000 एकड़ में फैले जंगल का सफाया करना पड़ेगा अगर खुदाई होती है तो आदिवासी बेघर हो जाएंगे,पर्यावरण को बहुत बड़ा नुकसान होगा। बस इसलिए हसदेव क्षेत्र के 40 गांवों के लोग आंदोलन कर रहे है।
आंदोलन में शामिल लोगों का कहना है कि पूरा इलाका सघन वनों से ढका हुआ है। इस क्षेत्र में हसदेव मिनीमाता बांगो बांध का कैचमेंट एरिया भी है. खदानों के खुलने से हसदेव व चोरनई नदियों का अस्तित्व संकट में आ जाएगा, जिससे बांध पर भी सूखे का संकट आ जाएगा, जबकि इसी बांध के पानी से ही करीब 4 लाख 53 हजार हेक्टेयर खेती की जमीन सिंचित होती है. इसके अलाव इस इलाके के जंगल हाथी, भालू, हिरण और अन्य दुर्लभ वन्य जीवों के प्राकृतिक निवास हैं. खदानों से इनके अस्तित्व पर भी संकट आ जाएगा।
ग्रामीणों की इस चिन्ता से छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला भी सहमत है।आलोक शुक्ला पिछले 6 सालों से इस क्षेत्र में कोयला खदानों का विरोध कर रहे है। और इन्हें बंद करने की मांग कर रहे है।आलोक शुक्ला कहते है कि पूरे भारत के कोल ब्लॉक का मात्र दो प्रतिशत कोयला हसदेव अरण्य क्षेत्र में है जिसे निकालने की जिद में केंद्र और राज्य सरकारें हजारों हेक्टेयर का जंगल नष्ट करने पर तुली हुई हैं जिससे हसदेव नदी का जलग्रहण क्षेत्र खत्म हो जाएगा और छत्तीसगढ़ के बड़े भूभाग की कृषि समाप्त हो जाएगी।वही पर्यावरण चिंतक नंद कश्यप का कहाना कि हसदेव अरण्य के जंगलों की वजह से ही छत्तीसगढ़ के बड़े भूभाग में भूगर्भ जल के स्त्रोत बने हुए हैं यदि ये नष्ट हो गए तो हमारे बड़े शहरों में जल संकट गहरा जायेगा।
अब आदिवासियों ने तय कर लिया है कि वह कोयला के खदानों को बंद करने के लिए अपने आंदोलन को और तेज करेंगे इसी के तहत आखिरकार यह तय किया गया कि वह 10 दिन की एक पदयात्रा निकालेंगे। पदयात्रा की शुरुआत 04 अक्टूबर से प्रभावित क्षेत्र फतेहपुर से शुरू होगी और उसका समापन 13 अक्टूबर को राजधानी रायपुर में किया जाएगा जिसमें कोल खनन प्रभावित क्षेत्र के आदिवासी बड़ी संख्या में शामिल होंगे। सरकार भी इस यात्रा पर पैनी नज़र बानाई हुई है तो वही आदिवासियों का लक्ष्य होगा इस यात्रा से अधिक से अधिक शहरवासियो को भी जोड़े ताकि सरकार पर इन कोयला खदानों को बंद करने का और दबाव बना सके।