हिमाचल सरकार ने पिछले दिनों क्लाईमेट चेंज पर नीति का मसौदा तैयार किया। विश्व भर में पिछले 5 वर्षों में शायद ही कोई और मुद्दा इतनी चर्चा और चिंतन का विषय रहा होगा जितना कि क्लाईमेट चेंज या जलवायु परिवर्तन। और क्यों न हो जब यह विस्तृत रूप से साबित हो चुका है कि पृथ्वी के बढ़ते तापमान से आने वाले समय में बदलते और अपूर्वानुमेय मौसम, बाढ़, साईक्लोन अन्य आपदाएं और स्वास्थ्य समस्याएं और गंभीर हो जाएंगी।
पृथ्वी के बढ़ते तापमान का मुख्य कारण है जीवाश्म इंधनों का बड़े पैमाने पर उपयोग जिससे कार्बन डाइऑक्साइड की वायु में मात्रा हद से ज्यादा बढ़ जाती है। यह बात भी स्पष्ट हो चुकी है कि विश्व के अधिकांश देश एक ऐसी विकास प्रणाली अपना चुके हैं जो प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन पर आधारित है।
अमेरिका, जापान और यूरोप जैसे विकसित देश आर्थिक विकास की इस अंधी दौड़ में आगे हैं तो भारत और चीन जैसे विकासशील देश भी इसी विकास की परिभाषा को अपनाए हुए हैं। बड़े पैमाने पर खनन, ऊर्जा उत्पादन, औद्योगिकरण ही उपभोगवादी समाज और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था इस विकास का मुख्य आधार रहा है जिसके फलस्वरूप आज हमें इस संकट का सामना करना पड़ रहा है।
सामान्य समझ (common sense) के हिसाब से तो साफ जाहिर है कि यदि जलवायु परिवर्तन की गति कम करनी है तो उपभोगवादी विकास की धारा को बदलना ही होगा। परंतु क्लाईमेट चेंज की समस्या से जूझने के उपाय और प्रस्ताव जो मुख्यधारा में उभर कर आए हैं उन्हें देखकर लगता है कि अभी भी हम इस संकट की जड़ को पहचानने से कतरा रहे हैं।
इस संवाद में एक तरफ अमेरिका जैसे देश इस जिम्मेदारी से साफ मुकर, भारत और चीन की तरफ उंगली कर रहे हैं - जिनकी आज विश्व के सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था है। वहीं दूसरी ओर भारत और चीन कहते हैं कि आर्थिक विकास “हमारा अधिकार है” और जो कि विकसित देशों का कार्बन उत्सर्ग अधिक है तो भरपाई की जिम्मेवारी पहले उनकी बनती है।
क्लीन डेवेलपमेंट मेकेनिज्म एक ऐसा तंत्र है जिसके अनुसार जो विकसित देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तय की गई निर्धारित कार्बन उत्सर्ग सीमा को लांघ रहे हैं और अपने देश में कार्बन उत्सर्ग कम नहीं कर रहे वह विकासशील देशों में ऐसी परियोजनाओं में पूंजी निवेश कर सकते हैं जो कार्बन उत्सर्ग को कम करके ऊर्जा का संरक्षण करती हो। इसका अर्थ यह है कि ऐसे देशों को अपने यहां कार्बन उत्सर्ग कम करने की आवश्यकता नहीं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक चर्चाओं के बाद 1997 में जलवायु परिवर्तन पर ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ नामक समझौता अपनाया गया। समझौते के अनुसार विकसित एवं औद्योगिक देशों को 2012 तक अपने-अपने देशों के कार्बन उत्सर्ग में 95 प्रतिशत तक की कटौती करने पर प्रतिबद्ध किया गया। परंतु अमेरिका जैसे देश इससे पूरी तरह से मान्य नहीं थे और इससे बचने का भी उपाय निकाल लिया।
यह उपाय था क्लीन डेवेलपमेंट मेकेनिज्म (सीडीएम) – जिसे कार्बन व्यापार के नाम से भी जाना जाता है। क्लीन डेवेलपमेंट मेकेनिज्म (सीडीएम) एक ऐसा तंत्र है जिसके अनुसार जो विकसित देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तय की गई निर्धारित कार्बन उत्सर्ग सीमा को लांघ रहे हैं और अपने देश में कार्बन उत्सर्ग कम नहीं कर रहे वह विकासशील देशों में ऐसी परियोजनाओं में पूंजी निवेश कर सकते हैं जो कार्बन उत्सर्ग को कम करके ऊर्जा का संरक्षण करती हो। इसका अर्थ यह है कि ऐसे देशों को अपने यहां कार्बन उत्सर्ग कम करने की आवश्यकता नहीं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सीडीएम का संचालन संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत स्थापित संस्था द्वारा किया जाता है।
भारत की सरकार और यहां की कंपनियों ने भी इस योजना का खुशी से स्वागत किया और देखते-ही-देखते सीडीएम परियोजना का दर्जा पाने के लिए प्रस्तावों की लाइन लग गई। इसमें मुख्यतः वह परियोजनाएं शामिल हैं जो किसी भी प्रकार का पुनर्चक्रण (recycling) या फिर अक्षय ऊर्जा के स्रोतों का प्रयोग कर रही हो। ऐसे उद्योगों के लिए सीडीएम बड़े फायदे का सौदा है क्योंकि इससे परियोजना की लागत में कमी होती है और नफा बढ़ जाता है। लगे हाथ ऐसी कंपनियों को पर्यावरण-अनुकूल (ईको-फ्रेंडली) होने का खिताब भी मिल जाता है। प्रत्यक्ष रूप से देखने पर यह व्यवस्था उचित जरूर लगती है। पर क्या वाकई में सीडीएम परियोजनाएं पर्यावरण के संरक्षण में भागीदारी दे रही हैं?
हमारे सामने आज सबसे बड़ा उदाहरण है जल विद्युत परियोजनाओं का जिन्हें जल जैसे अक्षय ऊर्जा स्रोत से बिजली पैदा करने के कारण सीडीएम सब्सिडी के लिए स्वीकृतियां मिल रही हैं। ऐसी कई परियोजनाएं हिमाचल प्रदेश में स्थित हैं। अब यदि जल विद्युत परियोजनाओं की बात की जाए तो हिमाचल के किसी भी क्षेत्र से, जहां ये परियोजनाएं बनाई गई हैं या बनने की प्रक्रिया में हैं, एक भयानक चित्र उभर कर निकलता है।
इस चित्र में टूटे-फूटे पहाड़, धंसती जमीन, बिना पानी की नदियां, उजड़ते खेतों और कटे हुए पेड़ों का नजारा मिलेगा। वहां रहने वाले लोगों से बात की जाए तो इन परियोजनाओं से उनके जीवन और आजीविकाओं के अस्त-व्यस्त होने की बेशुमार कहानियां भी मिलेंगी। कई वर्षों से स्थानीय समुदाय, पर्यावरण कार्यकर्ता और संगठन इन मुद्दों को लेकर जल विद्युत परियोजनाओं का पुरजोर विरोध कर रहे हैं।
अचंभे की बात है कि निजी कंपनियां ऐसी परियोजनाओं के लिए क्लाईमेट चेंज (को रोकने) के नाम पर सीडीएम सब्सिडी पाकर नफा कमा रही हैं। भारत से ऐसी 102 जल विद्युत परियोजनाओं को सीडीएम के अंतर्गत मान्यता मिली है। इनके अलावा अंबूजा सीमेंट, टाटा स्टील, रिलायंस जैसी बड़ी-बड़ी कंपनियां भी अन्य परियोजनाएं सीडीएम से फायदा उठा रही हैं।
इस पूरे विषय में दो बड़े चिंताजनक पहलू हैं। पहला यह कि जलवायु परिवर्तन जैसी गंभीर समस्या को केवल कार्बन उत्सर्ग तक सीमित कर इससे निपटने के लिए विकसित देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कार्बन व्यापार का बाजारू तरीका अपनाया है। दुनिया भर से पर्यावरणविदों और संस्थाओं ने इसका विरोध करते हुए अमेरिका और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्लाईमेट चेंज के मुद्दे को हाईजैक करने का आरोप लगाया है।
दूसरा यह कि भारत जैसे देश और स्थानीय उद्योग इस बाजार श्रृंखला का हिस्सा बन पर्यावरण संकट से भी लाभ के अवसर ढूंढ रहे हैं। एक पहाड़ी क्षेत्र और ग्लेशियर, नदियों, जंगलों जैसे संसाधनों से भरपूर होने के नाते शायद हिमाचल सरकार को अपनी क्लाईमेट चेंज नीति में यहां की प्रकृति धरोहर के संरक्षण के लिए रणनीति रखनी चाहिए थी। परंतु नीति के मसौदे में सीडीएम के अलावा और कोई बात नहीं। हिमाचल सरकार ने जल-विद्युत, परिवहन, सीमेंट उद्योग जैसे हर क्षेत्र में सीडीएम से फायदा उठाने की योजना बनाई है।
जल विद्युत परियोजनाओं और सीमेंट उद्योग के पर्यावरणीय दुष्प्रभावों को जानते हुए आज हिमाचल सरकार न सिर्फ इन्हें बढ़ावा दे रही है बल्कि इनके लिए सीडीएम सब्सिडी दिलाने के भी पक्ष में है। मुख्यमंत्री जी, क्या आपको वाकई में लगता है कि सीडीएम और कार्बन के व्यापार से हिमाचल, ये देश और ये विश्व जलवायु परिवर्तन के प्रकोप से बच सकते हैं? या फिर जल विद्युत परियोजनाओं और सीमेंट उद्योगों को सीडीएम सब्सिडी दिलवा के हम अपने पर्यावरण और भविष्य को और असुरक्षित बना रहे हैं?
पृथ्वी के बढ़ते तापमान का मुख्य कारण है जीवाश्म इंधनों का बड़े पैमाने पर उपयोग जिससे कार्बन डाइऑक्साइड की वायु में मात्रा हद से ज्यादा बढ़ जाती है। यह बात भी स्पष्ट हो चुकी है कि विश्व के अधिकांश देश एक ऐसी विकास प्रणाली अपना चुके हैं जो प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन पर आधारित है।
अमेरिका, जापान और यूरोप जैसे विकसित देश आर्थिक विकास की इस अंधी दौड़ में आगे हैं तो भारत और चीन जैसे विकासशील देश भी इसी विकास की परिभाषा को अपनाए हुए हैं। बड़े पैमाने पर खनन, ऊर्जा उत्पादन, औद्योगिकरण ही उपभोगवादी समाज और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था इस विकास का मुख्य आधार रहा है जिसके फलस्वरूप आज हमें इस संकट का सामना करना पड़ रहा है।
सामान्य समझ (common sense) के हिसाब से तो साफ जाहिर है कि यदि जलवायु परिवर्तन की गति कम करनी है तो उपभोगवादी विकास की धारा को बदलना ही होगा। परंतु क्लाईमेट चेंज की समस्या से जूझने के उपाय और प्रस्ताव जो मुख्यधारा में उभर कर आए हैं उन्हें देखकर लगता है कि अभी भी हम इस संकट की जड़ को पहचानने से कतरा रहे हैं।
इस संवाद में एक तरफ अमेरिका जैसे देश इस जिम्मेदारी से साफ मुकर, भारत और चीन की तरफ उंगली कर रहे हैं - जिनकी आज विश्व के सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था है। वहीं दूसरी ओर भारत और चीन कहते हैं कि आर्थिक विकास “हमारा अधिकार है” और जो कि विकसित देशों का कार्बन उत्सर्ग अधिक है तो भरपाई की जिम्मेवारी पहले उनकी बनती है।
क्लीन डेवेलपमेंट मेकेनिज्म एक ऐसा तंत्र है जिसके अनुसार जो विकसित देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तय की गई निर्धारित कार्बन उत्सर्ग सीमा को लांघ रहे हैं और अपने देश में कार्बन उत्सर्ग कम नहीं कर रहे वह विकासशील देशों में ऐसी परियोजनाओं में पूंजी निवेश कर सकते हैं जो कार्बन उत्सर्ग को कम करके ऊर्जा का संरक्षण करती हो। इसका अर्थ यह है कि ऐसे देशों को अपने यहां कार्बन उत्सर्ग कम करने की आवश्यकता नहीं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक चर्चाओं के बाद 1997 में जलवायु परिवर्तन पर ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ नामक समझौता अपनाया गया। समझौते के अनुसार विकसित एवं औद्योगिक देशों को 2012 तक अपने-अपने देशों के कार्बन उत्सर्ग में 95 प्रतिशत तक की कटौती करने पर प्रतिबद्ध किया गया। परंतु अमेरिका जैसे देश इससे पूरी तरह से मान्य नहीं थे और इससे बचने का भी उपाय निकाल लिया।
यह उपाय था क्लीन डेवेलपमेंट मेकेनिज्म (सीडीएम) – जिसे कार्बन व्यापार के नाम से भी जाना जाता है। क्लीन डेवेलपमेंट मेकेनिज्म (सीडीएम) एक ऐसा तंत्र है जिसके अनुसार जो विकसित देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तय की गई निर्धारित कार्बन उत्सर्ग सीमा को लांघ रहे हैं और अपने देश में कार्बन उत्सर्ग कम नहीं कर रहे वह विकासशील देशों में ऐसी परियोजनाओं में पूंजी निवेश कर सकते हैं जो कार्बन उत्सर्ग को कम करके ऊर्जा का संरक्षण करती हो। इसका अर्थ यह है कि ऐसे देशों को अपने यहां कार्बन उत्सर्ग कम करने की आवश्यकता नहीं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सीडीएम का संचालन संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत स्थापित संस्था द्वारा किया जाता है।
भारत की सरकार और यहां की कंपनियों ने भी इस योजना का खुशी से स्वागत किया और देखते-ही-देखते सीडीएम परियोजना का दर्जा पाने के लिए प्रस्तावों की लाइन लग गई। इसमें मुख्यतः वह परियोजनाएं शामिल हैं जो किसी भी प्रकार का पुनर्चक्रण (recycling) या फिर अक्षय ऊर्जा के स्रोतों का प्रयोग कर रही हो। ऐसे उद्योगों के लिए सीडीएम बड़े फायदे का सौदा है क्योंकि इससे परियोजना की लागत में कमी होती है और नफा बढ़ जाता है। लगे हाथ ऐसी कंपनियों को पर्यावरण-अनुकूल (ईको-फ्रेंडली) होने का खिताब भी मिल जाता है। प्रत्यक्ष रूप से देखने पर यह व्यवस्था उचित जरूर लगती है। पर क्या वाकई में सीडीएम परियोजनाएं पर्यावरण के संरक्षण में भागीदारी दे रही हैं?
हमारे सामने आज सबसे बड़ा उदाहरण है जल विद्युत परियोजनाओं का जिन्हें जल जैसे अक्षय ऊर्जा स्रोत से बिजली पैदा करने के कारण सीडीएम सब्सिडी के लिए स्वीकृतियां मिल रही हैं। ऐसी कई परियोजनाएं हिमाचल प्रदेश में स्थित हैं। अब यदि जल विद्युत परियोजनाओं की बात की जाए तो हिमाचल के किसी भी क्षेत्र से, जहां ये परियोजनाएं बनाई गई हैं या बनने की प्रक्रिया में हैं, एक भयानक चित्र उभर कर निकलता है।
इस चित्र में टूटे-फूटे पहाड़, धंसती जमीन, बिना पानी की नदियां, उजड़ते खेतों और कटे हुए पेड़ों का नजारा मिलेगा। वहां रहने वाले लोगों से बात की जाए तो इन परियोजनाओं से उनके जीवन और आजीविकाओं के अस्त-व्यस्त होने की बेशुमार कहानियां भी मिलेंगी। कई वर्षों से स्थानीय समुदाय, पर्यावरण कार्यकर्ता और संगठन इन मुद्दों को लेकर जल विद्युत परियोजनाओं का पुरजोर विरोध कर रहे हैं।
अचंभे की बात है कि निजी कंपनियां ऐसी परियोजनाओं के लिए क्लाईमेट चेंज (को रोकने) के नाम पर सीडीएम सब्सिडी पाकर नफा कमा रही हैं। भारत से ऐसी 102 जल विद्युत परियोजनाओं को सीडीएम के अंतर्गत मान्यता मिली है। इनके अलावा अंबूजा सीमेंट, टाटा स्टील, रिलायंस जैसी बड़ी-बड़ी कंपनियां भी अन्य परियोजनाएं सीडीएम से फायदा उठा रही हैं।
इस पूरे विषय में दो बड़े चिंताजनक पहलू हैं। पहला यह कि जलवायु परिवर्तन जैसी गंभीर समस्या को केवल कार्बन उत्सर्ग तक सीमित कर इससे निपटने के लिए विकसित देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कार्बन व्यापार का बाजारू तरीका अपनाया है। दुनिया भर से पर्यावरणविदों और संस्थाओं ने इसका विरोध करते हुए अमेरिका और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्लाईमेट चेंज के मुद्दे को हाईजैक करने का आरोप लगाया है।
दूसरा यह कि भारत जैसे देश और स्थानीय उद्योग इस बाजार श्रृंखला का हिस्सा बन पर्यावरण संकट से भी लाभ के अवसर ढूंढ रहे हैं। एक पहाड़ी क्षेत्र और ग्लेशियर, नदियों, जंगलों जैसे संसाधनों से भरपूर होने के नाते शायद हिमाचल सरकार को अपनी क्लाईमेट चेंज नीति में यहां की प्रकृति धरोहर के संरक्षण के लिए रणनीति रखनी चाहिए थी। परंतु नीति के मसौदे में सीडीएम के अलावा और कोई बात नहीं। हिमाचल सरकार ने जल-विद्युत, परिवहन, सीमेंट उद्योग जैसे हर क्षेत्र में सीडीएम से फायदा उठाने की योजना बनाई है।
जल विद्युत परियोजनाओं और सीमेंट उद्योग के पर्यावरणीय दुष्प्रभावों को जानते हुए आज हिमाचल सरकार न सिर्फ इन्हें बढ़ावा दे रही है बल्कि इनके लिए सीडीएम सब्सिडी दिलाने के भी पक्ष में है। मुख्यमंत्री जी, क्या आपको वाकई में लगता है कि सीडीएम और कार्बन के व्यापार से हिमाचल, ये देश और ये विश्व जलवायु परिवर्तन के प्रकोप से बच सकते हैं? या फिर जल विद्युत परियोजनाओं और सीमेंट उद्योगों को सीडीएम सब्सिडी दिलवा के हम अपने पर्यावरण और भविष्य को और असुरक्षित बना रहे हैं?