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दैनिक जागरण, 06 जनवरी, 2018
वैसा ही हुआ जैसी आशंका थी। खेती पिछड़ने लगी और कृषि की विकास दर मद्धिम पड़ने लगी है, जिसके आगे भी जारी रहने की आशंका है। मानसून के बिगड़े मिजाज ने तो इसके संकेत पहले ही दे दिये थे। तभी तो सरकारी तंत्र कृषि क्षेत्र को विशेष तरजीह देकर उसकी रफ्तार बढ़ाने की कोशिश करता रहा। लेकिन बात नहीं बनी। कृषि विकास दर घटकर दो फीसद के आस-पास सिमट गई है।
सरकार खेती को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाकर किसानों की आय को दोगुना करना चाहती है, लेकिन हालात साथ देते नहीं दिख रहे हैं। बीते मानसून सीजन के आखिरी दो महीनों अगस्त व सितम्बर में प्रमुख खाद्यान्न उत्पादक राज्यों में बारिश बहुत कम हुई। इसका सबसे ज्यादा असर उन राज्यों पर पड़ा जहाँ खेती असिंचित होती है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश भले ही पूर्ण सिंचित हो, लेकिन बाकी राज्यों में खेती की स्थिति संतोषजनक नहीं रही। इसका असर खेती की चाल पर स्पष्ट दिखाई देने लगा है।
खेती से जुड़े अन्य उद्यमों को सरकारी प्रोत्साहन दिया जा रहा है। डेयरी, पशुपालन, पॉल्ट्री, बागवानी और मत्स्य पालन जैसे क्षेत्रों को मदद पहुँचाने की कोशिश की गई है। लेकिन इसका नतीजा आने में अभी बहुत देर है। कृषि क्षेत्र में किये जा रहे सुधारों की गति काफी धीमी है। रबी सीजन की बुवाई अपने अन्तिम चरण में है जबकि रकबा पिछले साल के मुकाम के नजदीक नहीं पहुँचता दिख रहा है।
कृषि मंत्रालय की ओर से शुक्रवार को जारी बुवाई आँकड़े के मुताबिक गेहूँ जैसी फसल का रकबा 14 लाख हेक्टेयर घट गया है। इसमें अभी थोड़ी बहुत ही सुधार की गुंजाईश है। अकेले मध्य प्रदेश में गेहूँ का बुवाई रकबा तकरीबन साढ़े नौ लाख हेक्टेयर घट गया है। राज्य के ज्यादातर हिस्सों में असिंचित खेती होती है। इसी तरह पूर्वी राजस्थान की प्रमुख फसल सरसों की है, जो देश की 49 फीसद है। यह पूरी तरह मानसून के अन्तिम समय में होने वाली बारिश के रहमो करम पर निर्भर होती है। सरसों बुवाई का सीजन खत्म हो चुका है, लेकिन राजस्थान में सरसों की फसल का रकबा सात लाख हेक्टेयर घट गया है।
मानसून की विदाई पर पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव एम. राजीवन ने कहा था “इस बार दक्षिण-पश्चिम मानसून सामान्य से कम था। देश के कुछ हिस्सों में कृषि क्षेत्र पर इसका प्रभाव पड़ सकता है।” मानसून की बारिश औसत से कम रही। जबकि जून में मानसूनी बारिश सामान्य या औसत से अधिक होने की आशा जताई गई थी।