चंडीगढ़ से उत्तर-पूर्व दिशा में सड़क के रास्ते से लगभग 30 किमी की दूरी पर, हरियाणा के पंचकूला जिले में, शिवालिक की निचली पहाड़ियों में स्थित लगभग 100 परिवारों की छोटी सी बस्ती है - सुखोमाजरी, जिसमें प्रत्येक परिवार के पास औसतन 0.57 हेक्टेयर जमीन है। इस जगह का सहभागिता प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन तथा कृषि जलप्रबंधन ने ग्रामवासियों के जीवन में सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूपातंरण लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
1975 से पहले, सुखोमाजरी में सिंचाई का कोई नियमित साधन नही था। संपूर्ण कृषि भूमि (52 हेक्टे) बरानी खेती पर आधारित एक-फसली कृषि भूमि थी। कम जमीन के स्वामित्व (प्रति परिवार 1 हेक्टे से कम) तथा वर्षाजल की अनियमितता के कारण अधिकतर फसल बरबाद होने लगी। जल समस्याओं के प्रभाव से कृषि जीवनयापन के लिए न्यूनतम रूप से निर्भर साधनों में से एक हो गई थी। इन्हीं कारणों से, सुखोमाजरी के किसान अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए बड़ी संख्या में भेड़, बकरी व गाय पालने के लिए मजबूर हो गऐ थे। परन्तु जब पालतू जानवरों, विशेषकर बकरी और गायों को नजदीकी पहाड़ियों मे खुले रूप् से चरने के लिए छोड़ा गया तो, अति चरान व साथ ही साथ इंधन व घरेलू आवश्यकताओं के लिए पेड़ों की अंधाधुध कटाई से, पहाड़ी ढलान, जो पहले पूरी तरह हरी वनस्पति से ढके हुए थे, बहुत जल्दी खाली व नंगे हो गए। यहाँ तक कि अब आस-पास घास का एक तिनका तक दिखाई नहीं देता था।
सब ओर से निराश किसान, भोजन व ईंधन की खोज में, अपने घरों से कई किलोमीटर दूर तक एक ढलान के बाद दूसरी ढलान को नंगा करने लगे। तीव्रता से पड़ने वाली मौसमी बरसात उनके दुखों को बढ़ाने में सहयोग देने लगी। लगभग 4.2 हेक्टेयर के नंगे पहाड़ी अपवाह क्षेत्र से आने वाले अनियंत्रित बरसाती पानी ने आस-पास के कृषि भू-खंडों को लगभग 20 मीटर गहरी और इतनी ही चौड़ी खाइयों में परिवर्तित कर दिया था। इस प्रकार, निर्वाह के लिए उत्पन्न आवश्यकताओं ने गरीब किसानों को उनके एक मात्र जीवन आधर को न्यूनतम के लिए मजबूर कर दिया था।
समस्यासुखना झील से सुखोमाजरी की ओर
1975 के वर्ष में, चंडीगढ़ स्थित मानव निर्मित प्रसिध्द सुखना झील में लगातार गाद इकट्ठा होने की समस्या ने केन्द्रीय मृदा एवं जल संरक्षण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, अनुसंधान केन्द्र, चंडीगढ़ का ध्यान इस ओर आकर्षित किया। तत्कालीन प्रभारी अधिकारी पीआर मिश्रा के नेतृत्व में अनुसंधान केन्द्र द्वारा प्रारंभिक सर्वेक्षण किया गया, जिससे पता चला कि लगभग छब्बीस प्रतिशत अवसाद का मुख्य स्त्रोत नजदीक बसे हुए सुखोमाजरी तथा कुछ और गाँवों का अपवाह क्षेत्र था। अवसादीकरण, खाली व नंगे पहाड़ी ढलानों के, क्षय के कारण हुआ था। ऐसी स्थिति विशेषकर बकरियों द्वारा किए अति चरान के कारण उत्पन्न हुई, जिनका पालन गाँवों में बसे हुए गुर्जरों द्वारा पारंपरिक व्यवसाय के रूप में किया जाता था।
सुखना झील की अवसादीकरण की समस्या ने अनुसंधान केंद्र को अपने विकसित तकनीकों को लागू करने के लिए प्रेरित किया। इस तकनीक में निहित याँत्रिक व जैविक तकनीक को लागू करने के लिए प्रेरित किया। अनुसंधान केंद्र के याँत्रिक व जैविक उपायों ने, अधिकतम रूप् में अपरदित शिवालिक पहाड़ियों से अपवाहित अवसाद की दर को, एक दशक से भी कम समय में विलक्षण रूप में 80 टन से 1 टन प्रति हेक्टेयर से भी कम लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
इसी प्रकार, इससे सुखोमाजरी गाँव से संबंधित झील के आस-पास के, बुरी तरह क्षतिग्रस्त 85 हेक्टेयर के बड़े अपवाह क्षेत्र का पता चला, जो कि सुखना झील के अवसादीकरण के लिए विशेषत: जिम्मेदार था।
सुखोमाजरी गाँव के क्षेत्र में द्विचरणीय उपाय अपनाया गया। पहले चरण में उपाय याँत्रिक / संरचनात्मक सम्मिलित थे। दूसरे चरण के उपायों में, गड्डों में खैर (अकेषिया कटेचु) व शीशम (डलबर्जिया सिष्सू) आदि वृक्षों का रोपण तथा खाइयों के उभारों (टीलों) पर भाभर घास (यूलेलियोप्सिस बिनाटा) तथा क्रांतिक क्षेत्र में क्षय के विरुद्ध मिट्टी की रक्षा करने के लिए अगेव (अमेरिकाना व इपोमिया कार्निया) का लगाया जाना प्रमुख था। तथापि, मृदा अवसाद को प्रभावी रूप से रोकने के लिए किए गए ये उपाय, सुखोमाजरी के लोगों के स्वैच्छिक सहयोग के बगैर संभव नहीं हो सके, जो कि अपने जीवन निर्वाह के लिए अपवाह क्षेत्र में उपलब्ध संसाधनों पर ही आश्रित थे। जबकि, अनुसंधान केंद्र के लिए सुखना झील की मृदा अवसादीकरण समस्या प्रमुख थी, परन्तु सुखोमाजरी के लोगों के लिए इसका कोई विशेष महत्व नहीं था।
इस प्रकार जल्दी ही यह महसूस कर लिया गया कि किसी भी प्रकार के वैज्ञानिक व तकनीकी क्षय अवरोधक उपाय, तब तक सफल नहीं हो सकते जब तक सुखोमाजरी के लोगों के लिए जीवनयापन के वैकल्पिक संसाधनों की व्यवस्था नहीं की जाती। और यह कार्य तभी पूरा हो सकता है यदि ग्रामिणों के आर्थिक हितों की रक्षा जैसे मुद्दों को भी इस कार्य के लिए बनाई गई नीतियों में सम्मिलित कर लिया जाए। इस अनुभव के परिणाम स्वरूप् ही भूमि बांध (एनिकट) का निर्माण कर, सिचांई के लिए जल संसाधन विकसित करने के विचार को कार्यरूप दिया जाने लगा। दूसरे शब्दों में, सुखना झील के अवसादीकरण को दूरदर्शिता व कार्यान्वयन की दृष्टि से, सुखोमाजरी के लोगों की समस्या के निदान की दिशा में एक गौण उत्पादन की तरह देखा गया। यह अपवाह क्षेत्र की रखा के लिए , हमारे द्वारा, लोगों की भागीदारी के माध्यम से किए गए प्रयासों की सफलता की कुंजी सिध्द हुआ, जो कि आज भी प्रासंगिक है।
वर्षाजल संचयसुखोमाजरी में 1976 से 1985 के दौरान चार भूमि बांध निर्मित किए गए (सारणी 1)। ये मुख्य रूप से तीन प्रयोजनों की रक्षा करते है प्रथम, तात्कालिक प्रभाव से कृषि भूखंडों में मृदाअवसाद नालियों की संरचना न बनने देना व उसके द्वारा मृद्वा क्षय से उत्पन्न अवसादीकरण को प्रभावी रूप् से रोकना, दूसरे अपवाह क्षेत्र से प्रवाहित अतिरिक्त वर्षाजल को संचित करना, जिसका कि मानसून समाप्त होने के बाद सिंचाई के लिए प्रयोग किया जा सके एवं तीसरे अपवाह क्षेत्र को पुनर्स्थापित करना।
<b>भूमि बांध निर्माण द्वारा वर्षा जल संचन</b>
सारणी 1 : सुखोमाजरी में वर्षाजल संचय हेतु निर्मित बाँधों का विवरण
बाँध निर्माण अपवाह जलसंचय प्रभावी लागत
संख्या वर्ष क्षेत्र (हेक्टे.) (धन मी.) क्षेत्र (हेक्टे.) (रू.)
क 1976 4.3 8000 6.0 72,000
ख 1978 9.2 55600 22.0 1,09,000
ग 1980 1.5 9500 2.0 23,000
घ 1985 2.6 19300 5.0 1,50,000
फसल की पैदावार में बढ़ोत्तरी
मुख्य रूप् से रबी फसलों की सिंचाई हेतु जल की उपलब्धता एवं उन्नत कृषि तकनीक के प्रयोग के कारण, रबी एवं खरीफ दोनों फसलों के उत्पादन में अपार वृद्धि हुई। भूमि बांध के कारण भूमिगत जल स्रोत में वृद्धि हुई। फलस्वरूप् वर्ष 1990 में टयूबवैल लगाया गया । इसकी पाईप लाइन को बांध के पानी की पाईप लाइन से जोड़ा गया। जिससे सिंचित भूमि में और वृद्धि हुई।
सामाजिक निषिद्धता की संकल्पना की आवश्यकता
सिंचाई के लिए उपलब्ध जल की मौजूदगी के कारण, खाद्यान्न उत्पादन में अनेकानेक रूपों में वृद्धि द्वारा लाभ के प्रत्यक्ष प्रभाव से, सुखोमाजरी के लोगों ने पहाड़ी अपवाह क्षेत्र की वनस्पति की सुरक्षा के मूल्य को समझा। उसके बाद, उनमें से अधिकतर लोगों के लिए यह समझना मुश्किल नहीं रहा कि वनों की सुरक्षा में ही उनके हितों की सुरक्षा है। इसी का नाम सामाजिक निषिद्धता संकल्पना है, जिसे अब सुखोमाजरी में व्यापक समर्थन प्राप्त है। क्रियान्वयन स्तर पर इसका मतलब है कि, समुदाय स्वंय अपने पर्वतीय जलागम क्षेत्र की, चरान व वनस्पति की अंधाधुध कटाई से रक्षा करेगा। उन्हें अपने जानवरों को खिलाने के लिए घास काटने तथा अपने घरेलू प्रयोग के लिए सूखी व बेजान लकड़ियों व काट-छांट की गई शाखाओं को उठानों की अनुमति दी गई। वनक्षेत्र जो परियोजना के प्रारंभ में निर्जन व उजाड़ नजर आते थे, 10 से 15 वर्ष की अवधि में ही वृक्षों से आच्दादित हो गए। इसी दौरान घास का उत्पादन भी दुगुने से अधिक हो गया (3.82 टन/हेक्टे. से 7.72 टन/हेक्टे)
मक्का की फसल के लिए हरेक सूखे के वर्ष् में संग्रहित जल से जीवनदायिनी बन गई।
पशुओं के समूह की भिन्नता में अतंर
सामाजिक बाध्यताओं, आर्थिक पुनर्विचार स्व-प्रतिबध्दता तथा जंगलों व कृषि भू-खंडों दोनों से , प्रर्याप्त मात्रा में घास व चारे की उपलब्धता ने गाँव में पशुओं के समूह की बनावट में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन किया। इसके साथ ही 140 टन वार्षिक जैविक उत्पादन के साथ बरसीम (ट्राईफोलियम अलेक्जेन्ड्रियम) अब 4 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में उगाई जा रहीं है। जिससे डेयरी क्षेत्र को अत्यधिक प्रोत्साहन मिला है और कुछ ही वर्षो में दुग्ध उत्पाद में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है (सारणी 2)
सारणी 2 : वर्षों में दुधारू पशुओं की संख्या में दुग्ध उत्पादन
दुधारू पशु 1975 1992 2000
भैस 79 221 257
गाय 14 69 13
बकरी 246 37 45
दुग्ध उत्पादन 248 995 1018(लीटर/दिन)
(लीटर/दिन)
जलप्रयोग-कर्ता परिषद का गठन
सामाजिक निषिद्धता की संकल्पना में वर्णित, लोगों के सवैये में परिवर्तन का विचार 1979 में ग्राम समितिके गठन से मजबूत हुआ, जिसे जलप्रयोग-कर्ता परिषद का नाम दिया गया , जो बाद में विधिवत् पंजीकृत पर्वतीय संसाधन प्रबंधन समिति (प.सं.प्र.स) के रूप् में उभरी। प्रत्येक परिवार का मुखिया चाहे भूमिधर हो या न हो, इसकी सदस्यता का हकदार है, इस प्रकार न्यायपूर्ण आधार पर उतरदायित्वों व लाभों के बंटवारे के विचार को बल मिला। पर्वतीय संसाधन प्रबंधन समिति मुख्य रूप से तीन कार्य करती है (1) पर्वतीय क्षेत्र को चरान व वृक्षों के अंधाधुध कटान से बचाना (2) बांध से सिंचाई के पानी का भुगतान के आधार पर वितरण और (3) बांधों, जल आपूर्ति प्रणाली तथा दूसरी संपत्तियों का रख-रखाव। समिति के आय के स्त्रोत इस प्रकार हैं। सिंचाई जलशुल्क, बन क्षेत्र में भाभर व चारे की घासों का विक्रय, मछली पालन के लिए बांध को पट्टेदारी पर देने से होने वाली आय तथा सदस्यता शुल्क।
वन ठेकेदारों को हटाना
हरियाणा वन विभाग (ह.व.वि.) सुखोमाजरी के आस-पास के वन क्षेत्र को घार व भाभर के निष्कर्षण के लिए निजी ठेकेदारें को पट्टेदारी पर दिया करता था। तथापि, पसंप्रस के गठन के बाद वही क्षेत्र उतने ही धन के बदले में, जितना पहले निजी ठेकेदारों से लिया जाता था, अब समिति को पट्टेदारी पर दिया जाने लगा है। इस प्रकार के परिवर्तनों से ग्रामीणों की पर्वतीय क्षेत्र की सुरक्षा संबध्दता और मजबूत हुई है। पसंप्रस घास काटने के लिए अब ठेकेदारों द्वारा पहले लिए जाने वाले 300 रूपये से 500 रूपये प्रति दरांती की तुलना में 50 रूपये 150 रूपये प्रति दरांती वसूल करती है। 1983 से 1988 की बीच में पसंप्रस ने हरियाणा वन विभाग को पट्टेदारी धन के तौर पर 5,37,965 रूपये का भुगतान किया तथा भाभर ओर चारा घास बेचकर कुल 7,94,231 रूपये कमाए। इस प्रकार पसंप्रस ने 2,56,266 रूपये का ष्षुध्द लाभ कमाया। इसके साथ-साथ, समिति को जल शुल्क, जलाशय की मछली पालन हेतु पट्टेदारी व दंड के रूप् में प्राप्त घन से भी आय होती है।
पसंप्रस द्वारा कमाए गए लाभ का उपयोग जन कल्याण गतिविधयों, बाँधों तथा गाँव में सिंचाई जल आपूर्ति प्रणालियों के रख-रखाव के लिए किया जाता है। वर्ष 1999- 2000 के दौरान पसंप्रस ने 350 वर्ग गज क्षेत्रफल का एक भू-भाम गाँव के लिए सामुदायिक भवन के निर्माण हेतु खरीदा।
विकास के संकेतक
खेती व डेयरी, दोनों क्षेत्रों में प्राप्त आय में बढोतरी के साथ ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति में जबरदस्त उछाल आया है। ग्रामीण अपनी आय के कुछ भाग को मकान बनाने के लिए व एक भाग को आधुनिक सुख-सुविधा की चीजें जुटाने में खर्च कर रहें है (सारणी 3)
आर्थिक विश्लेषण
प्रतिशत के आधार पर आय के अंशदान नमूने से पता चलता है कि गाँव में कृषि से 12 प्रतिषत की आय प्राप्ति होती है, जबकि डेयरी से 50 प्रतिशत की। वर्ष 2000 के दौरा कृषि व डेयरी क्षेत्रों का अलग-अलग आंकलन किया गया। 1999-2000 के मूल्य के अनुसार 1977 में लगभग 40 हेक्टे, कृषि क्षेत्र से खरीफ में व लगभग 35 हेक्टे, कृषि क्षेत्र में रबी में कुल 1,02,15 रूपये वर्तमान मूल्य प्राप्त किया गया। वही, मई 2000 तक 5,69,668 रूपये तक चढ़ गया। दोनों मामालों में, उसी कृषिलागत पर आय, खर्च अनुपात का आंकलन क्रमश: 1.6 तथा 2.5 किया गया।
सारणी 3 : सुखोमाजरी में घरेलू सुख-सुविधा की वस्तुंए
वस्तुए परियोजन पूर्व परियोजना के बाद
क) घरेलू
ट्रांजिस्टर 1 63
स्कूटर / मोटर साईकल 42
टेलिविजन - 67
फ्रिज - 27
टेलीफोन - 8
एल.पी.गैस - 7
कूलर्स - 6
ख) कृषि सम्बन्धी
ट्रेक्टर - 3
टयूववैल 4
थ्रेशर - 5
सुखोमाजरी विचारधारा की पुनरावृत्ति
उत्तर पश्चिमी शिवालिक राज्यों में वनविभाग, कृषि एवं मृदा संरक्षण, विश्वबैंक द्वारा अनुदार प्राप्त समाकलित जलागम विकास परियोजन (स.ज.वि.प.) द्वारा ऐसी सैकड़ों परियोजनाएं क्षेत्र में लागू कर दी गई हैं। एक उदाहरण पर दृष्टिपात् करें, 1996 तक हरियाणा वनविभाग ने 53 गाँवों की आपूर्ति के लिए लगभग 93 तथा भूमि संरक्षण विभाग पंजाब द्वारा 70 ऐसे बर्षाजल संचय बांध निर्मित कराए गए। समन्वित जल विकास परियोजना (कांडी परियोजना) ने उत्तर-पश्चिमी शिवालिक राज्यों में इस नमूने को व्यापक पैमाने पर ग्रहण किया है।
सुखोमाजरी के लिए एक सबक
- लोगों की भागीदारी प्रारंभ से ही सुनिश्चित होने अति आवश्यक हैं
- उपक्रम के आंरभ में ही लोगों की आवश्यकताओं व समस्याओं की पहचान करना जरूरी है।
- जब तक कोई परियोजना लोगों की आवश्यकताओं को पूरी करने, उनकी समस्याओं के निराकरण और उनके जीवन की कठिनाईयों को कम करने के उद्देश्य से नहीं बनाई जाती उसकी सफलता संदिग्ध है।
- जलागम प्रबंधन परियोजनाओं की गर्भवधि छोटी होने चाहिए। लोगों को उनके लाभ उत्पतम संभव समय में मिलने प्रारंभ हो जाने चाहिए।
- दीर्घ कालिकता एवं निष्पक्षता पर ध्यान दिया जाना चाहिए, अर्थात सभी सामान्य संपत्ति संसाधन समाज के प्रत्येक वर्ग के लोगों के लिए उपलब्ध होने चाहिए।
डॉ स्वर्णलता आर्य
Dr (Mrs.) Swarn Lata Arya Senior Scientist,
Ag. Economics CSWCRTI, Research Centre, Chandigarh
E.mail Address: swarn_arya@yahoo.com