कुंभ का सिद्धांत
आकाश हो या धरती, हर जगह... हर काल में दो तरह की शक्तियां रही हैं, नकारात्मक और सकारात्मक। नकरात्मक शक्तियां आज भी आसुरी कृत्यों का ही प्रतीक मानी जाती हैं। सकारात्मक शक्तियां हमेशा ही देवरूप में पूजनीय रही है। जो लेता कम है और देता ज्यादा है... वह देवता। जो देता कम है और अपने निजी के लिए दूसरों का सर्वस्व छीन लेने की इच्छा रखता है, वह दानव। यही परिभाषा हर काल में सर्वमान्य रही। राम-कृष्ण देव कहाये और ज्ञानी ब्राह्मण होने के बावजूद रावण को राक्षस कहा गया। आज हम भ्रष्टाचारियों को उनके नकारात्मक कृत्यों के कारण ही तो कोसते हैं। अपना खजाना भरने के लिए दूसरों की ज़मीन, पानी, खेती पर काबिज करने वाले देव-दानव में से किस परिभाषा में आते है? सोचिएगा।
खैर! अगर वेद और पुराणों की मानें तो भी, और विज्ञान की मानें तो भी.. एक निष्कर्ष तो निर्विवाद है। कुंभ की आस्था और विज्ञान..दोनों ही इस बात की पुष्टि करते हैं कि जब-जब जीवनवर्धक अर्थात सकरात्मक व रचनात्मक शक्तियों द्वारा जीवनसंहारक तत्वों यानी नकरात्मक.. विनाशक शक्तियों के दुष्प्रभाव को रोकने की कोशिश की गई, तब-तब का समय व कोशिश कुंभ के नाम से विख्यात हो गये। सिद्धांत यही है। अच्छी ताक़तों द्वारा बुरी ताक़तों को रोकने की कोशिश में एकजुट होने की परिपाटी ही कुंभ है। भारत का वर्तमान आज ऐसे ही कुंभ मांग कर रहा है।
कुंभ का व्यवहार
पृथ्वी पर आने से इंकार करते हुए गंगा ने राजा भगीरथ से एक प्रश्न किया था, “मैं इसलिए भी पृथ्वी पर नहीं जाऊंगी कि लोग मुझमें अपने पाप धोयेंगे और मैं मैली हो जाऊंगी। तब मैं अपना मैल धोने कहां जाउंगी?” तब राजा भगीरथ ने वचन दिया था- “माता! जिन्होंने लोक-परलोक, धन-सम्पति और स्त्री-पुत्र की कामना से मुक्ति ले ली है; जो संसार से ऊपर होकर अपने आप में शांत हैं; जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकों को पवित्र करने वाले परोपकारी सज्जन हैं... वे आपके द्वारा ग्रहण किए गये पाप को अपने अंग स्पर्श व श्रमनिष्ठा से नष्ट कर देंगे।” इस संदर्भ के आलोक में कहा जा सकता है कि राजा भगीरथ के इसी वचन को निभाने के लिए कुंभ की परिपाटी बनी। राजा भगीरथ स्वयं कुंभ के प्रथम वाहक बने। प्रजा.. राजा के पुत्र समान ही होती है। राजा सगर के पुत्रों के रूप में 60 हजार की आबादी के कल्याण के लिए वे गंगा से सीधे अवध प्रांत में अवतरित होने का भी अनुरोध कर सकते थे; लेकिन नहीं, उन्होंने गंगा को गंगोत्री से गंगासागर तक ले जाकर लगभग आधे भारत को समृद्धि का स्रोत दिया।
वर्तमान मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक के वर्तमान नामकरण वाले इलाकों में जब कभी पानी का संकट हुआ, तो गौतम नामक एक ब्राह्मण प्रतीक बन सामने आया और गोदावरी जैसी महाधारा बन निकली। ब्रह्मपुराण में इस प्रसंग का जिक्र करते हुए गोदावरी को गंगा का ही दूसरा स्वरूप कहा गया है। विन्ध्यगीरि पर्वतमाला के उत्तर बहने वाली गंगा.. भागीरथी कहलाई और दक्षिण की ओर बहने वाली गंगा... गोदावरी के नाम से विख्यात हुई। इसे गौतमी गंगा भी कहा जाता है। स्कंदपुराण में वर्तमान आंध्र प्रदेश कभी नदी विहीन रहे क्षेत्र के रूप में उल्लिखित है। दक्षिण के इस संकट ग्रस्त में एक ऋषि का पौरुष प्रतीक बना। ऋषि अगस्त्य के प्रयास से ही आकाशगंगा दक्षिण की धरा पर अवतरित होकर सुवर्णमुखी नदी के नाम से जीवनदायिनी सिद्ध हुई। भगीरथ-एक राजा, गौतम-एक ब्राह्मण और अगस्त्य-एक ऋषि... तीनों गंगा के एक-एक रूप के अविरल प्रवाह के उत्तरदायी बने; तीनों ही रचना के प्रतीक! कुंभ के वाहक!
कुंभ के ऐसे वाहक आप भी हो सकते हैं। राजा भगीरथ का गंगा को दिया वचन निभाना आपका और हमारा भी दायित्व है। अपने गांव-शहर-कस्बे की किसी छोटे से प्रवाह, छोटे सी जलसंरचना को पुनर्जीवित कर... छोटी वनस्पति को जीवन देकर आप इस दायित्व निर्वाह का ही काम करेंगे। सकारात्मक शक्तियों को एकजुट करने और उन्हें प्रकृति, समाज अथवा राष्ट्रहित में प्रेरित करने का काम भी कुंभ का ही काम है। आज भारत को इस दायित्व निर्वाह की बड़ी आवश्यकता है। यूं भी इस दायित्व का निर्वाह किए बगैर कुंभ में स्नान का हक किसी को नहीं। क्या आपको है? सोचिए! तब निर्णय लीजिए।... तब शायद मेरा इस लेख को लिखना सफल हो जाये।