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दैनिक भास्कर, 23 फरवरी 2011
नदियों या समुद्र के किनारे बसे नगरों में तटीय क्षेत्रों में निर्माण कार्य पर पाबंदी की सीमा का कड़ाई से पालन करना समय की मांग है। अंधाधुंध निर्माण जल बहाव के मार्ग में बाधा होते हैं, जिससे बाढ़ की स्थिति बन जाती है।पिछले दिनों अचानक दिल्ली में बारिश हो गई। यह भले ही रिकार्ड में बेहद कम थी, लेकिन आधी दिल्ली ठिठक गई। जहां जाने के लिए फ्लाई-ओवर बने थे उनके दोनों किनारे पानी से भर गए। यह हालत केवल दिल्ली की ही नहीं है, कमोबेश देश के हर शहर का हाल थोड़ी सी बरसात में ऐसा ही होता है- सड़कों पर पानी के साथ वाहनों का सैलाब। पिछली बारिश में हरियाणा, पंजाब के कई तेजी से उभरते शहर- अंबाला, हिसार, कुरूक्षेत्र, लुधियाना आदि एक रात की बारिश में दरिया बन गए थे। रेल, बसें सभी कुछ बंद! अहमदाबाद, सूरत के हालात भी ठीक नहीं थे। पटना में गंगा तो नहीं उफनी पर शहर के वीआईपी इलाके घुटने-घुटने पानी में तर रहे। किसी भी शहर का नाम लें, कुछ न कुछ ऐसे ही हालात देखने-सुनने को मिल ही जाते हैं।
हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फलता-फूलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली, वह बस गई। यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर बेहतर रोजगार, आधुनिक जन सुविधाएं और उज्जवल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की चकाचौंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गई है। जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे। यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों का है। इसकी संख्या गत दो दशकों में दुगुनी होकर 16 हो गई है। पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर आधा सैकड़ा हो गए हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का 8.50 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है।
दिल्ली, कोलकाता, पटना जैसे महानगरों में जल निकासी की माकूल व्यवस्था न होना शहर में जल भराव का स्थाई कारण कहा जाता है। मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और सीवर की 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही हैं। बेंगलुरू में पारंपरिक तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़-छाड़ को बाढ़ का कारक माना जाता है।
महानगरों में भूमिगत सीवर जल भराव का सबसे बड़ा कारण हैं। महानगरों में सीवरों और नालों की सफाई भ्रष्टाचार का बड़ा माध्यम है। यह कार्य किसी जिम्मेदारी एजेंसी को सौंपना आवश्यक है, वरना आने वाले दिनों में महानगरों में कई-कई दिनों तक पानी भरने की समस्या उपजेगी, जो यातायात के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा होगा। नदियों या समुद्र के किनारे बसे नगरों में तटीय क्षेत्रों में निर्माण कार्य पर पाबंदी की सीमा का कड़ाई से पालन करना समय की मांग है। तटीय क्षेत्रों में अंधाधुंध निर्माण जल बहाव के मार्ग में बाधा होते हैं, जिससे बाढ़ की स्थिति बन जाती है। सीआरजेड कानून में तटों पर निर्माण, गंदगी आदि पर कड़े प्रावधान हैं, लेकिन सरकार अमले कभी भी इन पर क्रियान्वयन की सोचते तक नहीं हैं।
विभिन्न नदियों पर बांधे जा रहे बड़े बांधों के बारे में नए सिरे से विचार करना जरूरी है। गत वर्ष सूरत में आई बाढ़ हो या फिर उससे पिछले साल सूखाग्रस्त बुंदेलखंड के कई जिलों का जलप्लावन, यह स्पष्ट होता है कि कुछ अधिक बारिश होने पर बांधों में क्षमता से अधिक पानी भर जाता है। ऐसे में बांधों का पानी दरवाजे खोल कर छोड़ना पड़ता है। अचानक छोड़े गए इस पानी से नदी का संतुलन गड़बड़ाता है। और वह बस्ती की ओर दौड़ पड़ती है। सनद रहे ठीक यही हाल दिल्ली में भी यमुना के साथ होता है। हरियाणा के बांधों में पानी अधिक होने पर जैसे ही पानी छोड़ा जाता है राजधानी के पुश्तों के पास बनी बस्तियां जलमग्न हो जाती हैं। बांध बनाते समय उसकी अधिकतम क्षमता अतिरिक्त पानी आने पर उसके अनयत्र भंडारण के प्रावधान रखना शहरों को बाढ़ के खतरे से बचा सकता है।
जब कहीं शहरों में बाढ़ आती है तो सरकार का पहला और अंतिम कदम राहत कार्य करना होता है, जो कि तात्कालिक उपाय तो होता है, लेकिन बाढ़ के कारणों पर स्थाई रूप से रोक लगाने में अक्षम होता है। जल-भराव और बाढ़ प्राकृतिक के साथ ही मानव-जन्य समस्याएं भी हैं और इसका समाधान दूरगामी योजनाओं से संभव है। यह बात शहरी नियोजनकर्ताओं को भलीभांति पता है, लेकिन इस संदर्भ में उनकी कोई योजना नजर नहीं आती।
लेखक नेशनल बुक ट्रस्ट में सहायक संपादक हैं।
Pankaj_chaturvedi@hotmail.com
हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फलता-फूलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली, वह बस गई। यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर बेहतर रोजगार, आधुनिक जन सुविधाएं और उज्जवल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की चकाचौंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गई है। जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे। यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों का है। इसकी संख्या गत दो दशकों में दुगुनी होकर 16 हो गई है। पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर आधा सैकड़ा हो गए हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का 8.50 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है।
दिल्ली, कोलकाता, पटना जैसे महानगरों में जल निकासी की माकूल व्यवस्था न होना शहर में जल भराव का स्थाई कारण कहा जाता है। मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और सीवर की 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही हैं। बेंगलुरू में पारंपरिक तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़-छाड़ को बाढ़ का कारक माना जाता है।
महानगरों में भूमिगत सीवर जल भराव का सबसे बड़ा कारण हैं। महानगरों में सीवरों और नालों की सफाई भ्रष्टाचार का बड़ा माध्यम है। यह कार्य किसी जिम्मेदारी एजेंसी को सौंपना आवश्यक है, वरना आने वाले दिनों में महानगरों में कई-कई दिनों तक पानी भरने की समस्या उपजेगी, जो यातायात के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा होगा। नदियों या समुद्र के किनारे बसे नगरों में तटीय क्षेत्रों में निर्माण कार्य पर पाबंदी की सीमा का कड़ाई से पालन करना समय की मांग है। तटीय क्षेत्रों में अंधाधुंध निर्माण जल बहाव के मार्ग में बाधा होते हैं, जिससे बाढ़ की स्थिति बन जाती है। सीआरजेड कानून में तटों पर निर्माण, गंदगी आदि पर कड़े प्रावधान हैं, लेकिन सरकार अमले कभी भी इन पर क्रियान्वयन की सोचते तक नहीं हैं।
विभिन्न नदियों पर बांधे जा रहे बड़े बांधों के बारे में नए सिरे से विचार करना जरूरी है। गत वर्ष सूरत में आई बाढ़ हो या फिर उससे पिछले साल सूखाग्रस्त बुंदेलखंड के कई जिलों का जलप्लावन, यह स्पष्ट होता है कि कुछ अधिक बारिश होने पर बांधों में क्षमता से अधिक पानी भर जाता है। ऐसे में बांधों का पानी दरवाजे खोल कर छोड़ना पड़ता है। अचानक छोड़े गए इस पानी से नदी का संतुलन गड़बड़ाता है। और वह बस्ती की ओर दौड़ पड़ती है। सनद रहे ठीक यही हाल दिल्ली में भी यमुना के साथ होता है। हरियाणा के बांधों में पानी अधिक होने पर जैसे ही पानी छोड़ा जाता है राजधानी के पुश्तों के पास बनी बस्तियां जलमग्न हो जाती हैं। बांध बनाते समय उसकी अधिकतम क्षमता अतिरिक्त पानी आने पर उसके अनयत्र भंडारण के प्रावधान रखना शहरों को बाढ़ के खतरे से बचा सकता है।
जब कहीं शहरों में बाढ़ आती है तो सरकार का पहला और अंतिम कदम राहत कार्य करना होता है, जो कि तात्कालिक उपाय तो होता है, लेकिन बाढ़ के कारणों पर स्थाई रूप से रोक लगाने में अक्षम होता है। जल-भराव और बाढ़ प्राकृतिक के साथ ही मानव-जन्य समस्याएं भी हैं और इसका समाधान दूरगामी योजनाओं से संभव है। यह बात शहरी नियोजनकर्ताओं को भलीभांति पता है, लेकिन इस संदर्भ में उनकी कोई योजना नजर नहीं आती।
लेखक नेशनल बुक ट्रस्ट में सहायक संपादक हैं।
Pankaj_chaturvedi@hotmail.com