खाली कटोरा, समृद्ध विरासत :

Submitted by admin on Mon, 02/15/2010 - 09:14
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क्रांति चतुर्वेदी

यह सभी जानते हैं कि झाबुआ के हाथ में जंगल के नाम पर जो खाली कटोरा शेष है, उसका किसी जमाने में समृद्धशाली इतिहास रहा है। जंगल के इतिहास के पन्ने पलटने पर पता चलता है कि सन् 1732 में मुगल साम्राज्य का पतन होने के बाद इस क्षेत्र पर पेशवाओं की सत्ता का अध्याय प्रारंभ हुआ। पेशवा काल के बाद छोटी-छोटी रियासतों व जागीदारों का ‘सत्ता-सूर्य’ उदय होता है। आजादी के पहले जिले की सत्ता झाबुआ, जोबट, अलीराजपुर, कट्ठीवाड़ा और अन्य छोटी-छोटी जागीरों के पास थी। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में वनों के प्रबंधन की ओर थोड़ा ध्यान झाबुआ, जोबट, अलीराजपुर, कट्ठीवाड़ा रियासत द्वारा दिया गया। लेकिन अन्य जागीरदारों द्वारा कोई तवज्जो नहीं दी गई। 1886 में भारतीय वन अधिनियम पारित किया गया। मालवा के राजनैतिक प्रतिनिधि द्वारा इन रियासतों को वन प्रबंधन के बारे में सतर्कता बरतने के निर्देश दिए गए। राजनैतिक प्रतिनिधि के वन सलाहकार के रूप में जे.डी. जोसेफ की नियुक्ति हुई। जोसेफ ने झाबुआ के घने जंगलों को रंभापुर, रानापुर, झाबुआ व थांदला क्षेत्रों में बांटा। पहली बार 1904 से 1913 की अवधि के बीच वनों के सर्वेक्षण व सीमांकन का काम शुरू हुआ। लेकिन 1913 से 1924 की आबादी के दौरान जंगलों के प्रबंधन का जिम्मा प्रशासकीय समिति के राजस्व सदस्य के प्रभार में आ गया। वहां जगलों पर एक तरह से गाज गिरी। इन्हें केवल ‘राजस्व’ की दृष्टि से देखा जाने लगा। जंगलों का संवर्धन तो दूर, सरकारी साए में दोहन शुरू हो गया। बैलगाड़ी भार पद्धतियों से जंगल काटे गए और राजस्व प्राप्त किया।

लेकिन 1924 के बाद फिर चेतना आई। रियासत के जंगलो का सीमांकन व सर्वेक्षण का काम फिर से प्रारंभ हुआ। रंभापुर के घने जंगलों का सीमांकन तो पूरा कर लिया गया, लेकिन राणापुर, थांदला व झाबुआ का सीमांकन का काम आंशिक रूप से ही संभव हो सका। परमिट के निर्देशों का उल्लंघन करते हुए ठेकेदारों द्वारा अपनी मर्जी से वनों का दोहन किया जाता रहा। तब मालवा के राजनैतिक प्रतिनिधि श्री फिट्ज ने लिखा था, झाबुआ की स्थिति और रेलवे संचार को देखते हुए इस रियासत से प्राप्त होने वाले वन राजस्व की संभावनाएं अधिक हैं, लेकिन पूर्व में वनों का भारी कुप्रबंधन रहा है। वनों के प्रबंधन के-नए प्रयास शुरू करने होंगे। विशेषज्ञों की भी सलाह लेनी होगी, ताकि जंगलों का भविष्य और समृद्ध हो सके। 1934 से 1941 के बीच शुरुआती काल में राजनैतिक प्रतिनिधि द्वारा दिए सुझावों के अनुरूप पुनः वनों का सीमांकन 1935 से शुरू हुआ तथा 1937 में पूर्ण किया गया। लेकिन इसमें अनेक कमियां उजागर हो गईं। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भी निर्मम कटाई की गई।

वनों का प्रबंधन गड़बड़ाने से 1941 से 1948 की अवधि के दौरान परेशान हो मालवा के राजनीतिक प्रतिनिधि द्वारा भारत के वन महानिरीक्षक श्री एए. ग्रिफिथ को इन वनों के सुधार हेतु सुझाव देने के लिए बुलाया गया। फिथ ने व्यापक तौर पर झाबुआ जिले के जंगलों का जायजा लेने के बाद सुझाव दिये – क्षेत्र की स्टाक मेपिंग कर नई कार्य आयोजना बनाई जाये। ताकि नियमित ढंग से कटाई हो। कटाई के लिए चिन्हांकन नियम भी बनाए जाएं। वनों की सुरक्षा की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया है। अवैध कटाई-चराई, अग्नि सुरक्षा व अतिक्रमण रोकने हेतु पर्याप्त ध्यान दिया गया। अवैध कटाई, चराई, अग्नि सुरक्षा व अतिक्रमण रोकने हेतु पर्याप्त ध्यान दिया जाए। भारतीय वन अधिनियम का पालन किया जाए। सड़कों के किनारे वृक्षारोपण करें।

आजादी के बाद 1948 में झाबुआ रियासत का संविलयन मध्य भारत राज्य में हुआ। इन वनों को तब धार वनमंडल के अधीन रखा गया। रियासत के राजा के अधीन आने वाले वनों को आरक्षित व जागीरों के अधीन आने वाले वनों को संरक्षित वन घोषित किया गया। 1948 और 1952 के बीच अधिक अन्न उपजाओ अभियान के तहत काफी क्षेत्र में अतिक्रमण किया गया। 1958 तक भी इन वनों के उचित प्रबंधन पर ध्यान नहीं दिया गया। 1959 में अवश्य कार्य योजना सहायक वन संरक्षक आरएस. मिश्रा ने तैयार की।

कमोबेश जोबट, अलीराजपुर में भी यही स्थिति रही। कट्ठीवाड़ा रियासत के जंगलों के बारे में कहा गया है कि कट्ठीवाड़ा एक छोटी रियासत थी। वन प्रबंधन के मामले में यहां शुरू से ही प्रबंध किया गया। रियासत में जनसंख्या का दबाव कम था। कुल 52 गाँव थे। इसमें से 40 गाँव के वन सीधे रियासतों को अधीन थे। 12 गाँव जागीरदारों के तहत आते थे। रियासत के राजा कुछ जंगलों की चिंता करते रहे। यहाँ वनों से प्राप्त होने वाला राजस्व ही रियासत की आय का प्रमुख स्रोत हुआ करता था।