कोयला संकट में समझें, कोयला अब केवल 30-40 साल का मेहमान

Submitted by Editorial Team on Tue, 05/10/2022 - 16:10
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हस्तक्षेप, 30 Oct 2021, राष्ट्रीय सहारा

बीते दिनों सामने आए कोयला संकट ने भारत की ऊर्जा जरूरतों को चर्चा में ला दिया है। सवाल यह भी उठा है कि भारत अपनी आर्थिक विकास को बनाए रखते हुए कैसे अपनी ऊर्जा जरूरतों और जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों के बीच तालमेल बनाएॽ

कोयला संकट क्यों 

भारत में कोयला आधारित बिजली उत्पादन की क्षमता (स्थापित और निर्माणाधीन) बिजली की वर्तमान मांग से ज्यादा है। प्रमाण है कि हमारे कोयला आधारित पावर प्लांट्स लगातार तीन साल से अपनी क्षमता से कम पर काम कर रहे हैं। इसलिए बीते दिनों में देश भर में हमारे कोयला आधारित पावर प्लांट्स के सामने कोयले का जो संकट आया है‚ उसका यह बिल्कुल भी मतलब नहीं लगाया जाना चाहिए कि देश में बिजली उत्पादन की स्थापित क्षमता कम है। वास्तव में इसके लिए मानसून के बाद पावर प्लांट्स के पास पर्याप्त मात्रा में कोयला न होना जिम्मेदार था। यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि इससे निपटने के लिए कोयले का खनन बढ़ाने की भी जरूरत नहीं है क्योंकि संकट के दौरान कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) के पास लगभग 400 लाख टन कोयला उपलब्ध था‚ लेकिन उसे पावर प्लांट्स तक पहुंचाया नहीं जा सका था। 

दरअसल‚ कोयले का संकट खास मौसम में सामने आने वाली समस्या है। इसने 2017 और 2018 में भी कोयले के स्टॉक को प्रभावित किया था। लेकिन इस साल जुलाई–अगस्त में बिजली की बेमौसम और ऊंची मांग के कारण मानसून के बाद कोयले का स्टॉक तेजी से घट गया‚ जिसने अक्टूबर की शुरुआत में बिजली आपूर्ति का संकट खड़ा कर दिया। 

आबादी के बरक्स स्थापित क्षमता कम

आबादी के लिहाज से कोयला आधारित बिजली उत्पादन की कुल स्थापित क्षमता की बात करें तो चीन के पास 1000 गीगा वॉट से ज्यादा की क्षमता है‚ जबकि भारत के पास सिर्फ 205 गीगा वॉट कोयला आधारित बिजली उत्पादन की क्षमता है। इसमें ३0 गीगा वॉट की अतिरिक्त क्षमता जुड़ने की संभावना है‚ जिसके लिए भारी निवेश किया गया है। स्पष्ट है कि चीन में औद्योगिक गतिविधियों के लिए बिजली की मांग बहुत ज्यादा है‚ इसलिए उससे तुलना न करने के बावजूद भारतीय आबादी के लिए ऊर्जा की मांग पूरी होने से बहुत दूर की बात है। ऐसी स्थिति में‚ यह भी स्पष्ट है कि भारत के लिए अक्षय ऊर्जा कोयला आधारित बिजली उत्पादन के साथ सिर्फ पूरक की भूमिका में है‚ न कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तरह उसकी जगह लेने वाली। 

प्रभावी तौर पर इसका मतलब यह भी है कि उभरती हुई मांग (लघु से मध्यम स्तर तक) को पूरा करने के लिए सिर्फ मौजूदा कोयला आधारित पॉवर प्लांट्स पर निर्भरता बढ़ेगी क्योंकि स्थापित और निर्माणाधीन पॉवर प्लांट्स से उत्पादित प्रत्येक यूनिट बिजली अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं से उत्पादित बिजली की तुलना में काफी किफायती होती है। हम जिस अतिरिक्त क्षमता का उल्लेख कर रहे हैं‚ वह उत्पादन क्षमता के रूप में है‚ और देश की संपूर्ण जरूरत को पूरा करने में उसकी कोई प्रभावी भूमिका नहीं है। इसी अतिरिक्त बिजली उत्पादन क्षमता को बिजली आपूर्ति पर असर डाले बगैर हटाया जा सकता है। 

अकुशल पावर प्लांट्स बंद करें ऐसे अकुशल या पुराने पावर प्लांट्स को हटाने से क्या फायदा होगाॽ काउंसिल ऑन एनर्जी‚ एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया है कि बिजली उत्पादन के लिए सबसे कुशल पावर प्लांट्स का इस्तेमाल हो तो विद्युत वितरण कंपनियां (डिस्कॉम) सालाना 9‚000 करोड़ रुपये तक बचा सकती हैं। मुख्य रूप से यह बचत कोयले की खपत घटाने के कारण होती है‚ और यह 420 लाख टन के बराबर पड़ती है। भविष्य में बढ़ेगी कोयले की मांगः इस दशक के दौरान बिजली की मांग में बढ़ोतरी को देखते हुए संभावना है कि हमें आने वाले समय में नये कोयला आधारित पावर प्लांट्स की जरूरत पड़ेगी‚ जो अभी निर्माण के विभिन्न चरणों में हैं। हालांकि इन पावर प्लांट्स में पहले ही एक लाख करोड़ रु पये से अधिक का निवेश किया जा चुका है। इसलिए इनका निर्माण कार्य पूरा होने और इन्हें चालू करने के लिहाज से मूल्यांकन होना चाहिए। अंतिम परिणाम यह है कि अधिकतर अध्ययनों में इस दशक के दौरान कोयला आधारित बिजली का उत्पादन और भारतीय ऊर्जा तंत्र में कोयले की खपत की दर बढ़ने का अनुमान किया गया है।

पर्यावरणीय चुनौती से कैसे निपटें

कोयले पर निर्भरता बढ़ने के साथ प्रदूषण का सवाल बड़ा हो जाता है। ऐसे में हम कैसे सुनिश्चित करें कि कोयले पर लगातार बनी रहने वाली निर्भरता हम पर कोई प्रतिकूल प्रभाव न डालेॽ इससे बचने के लिए पर्यावरणीय परिणामों को प्राथमिकता देनी चाहिए। गौरतलब है कि देश में खुली हवा में मौजूद लगभग 10 प्रतिशत पार्टिकुलेट मैटर 2.5 (पीएम 2.5) के लिए पावर प्लांट्स जिम्मेदार हैं। इनसे निकलने वाली लाखों टन फ्लाई–ऐश निर्धारित कार्यों में इस्तेमाल भी नहीं हो पाती है‚ इसलिए यह हवा‚ मिट्टी और पानी को प्रदूषित करती है। थर्मल पॉवर प्लांट्स के लिए पानी का दोहन भी प्रमुख मुद्दा है। यह भविष्य में पानी की उपलब्धता के लिए खतरा है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण पड़ने वाला सूखा पानी की आपूर्ति को अनिश्चित बना देगा। ऐसे में पुराने पॉवर प्लांट्स बंद करने से सल्फर ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसे पर्यावरणीय मानकों को पूरा करने का खर्च बचाने में मदद मिलती है। इस बचत को पर्यावरण संरक्षण या क्षेत्र की क्षमता विकसित करने के लिए निवेश किया जा सकता है। पावर प्लांट्स की कुशलता और पर्यावरणीय परिणामों में सुधार से जुड़ी बाधाओं में से एक यह भी है कि सभी राज्य इसे अपने क्षेत्र की प्राथमिकता के रूप में नहीं देखते। दूसरी तरह के कारण भी हैं‚ जैसे बिजली उत्पादन कंपनियां राज्यों के नियंत्रण में हैं‚ और इसी से बिजली वितरण कंपनियों की कमजोर वित्तीय स्थिति को अस्थायी तौर पर संभालने में भी मदद मिलती है‚ और राज्यों को बिजली आपूर्ति होती रहती है। सभी हितधारकों के बीच तालमेल करके मानसून के बाद कोयले की समय पर आपूर्ति और इसका कुशल इस्तेमाल सुनिश्चित करके हालिया कोयला संकट को बेहतर तरीके से संभाला जा सकता था। इसलिए बिजली क्षेत्र में तालमेल की कमियों को दूर करने के लिए जीएसटी काउंसिल की तर्ज पर राष्ट्रीय विद्युत परिषद जैसी व्यवस्था की जानी चाहिए। यह न केवल राष्ट्रीय और राज्यों के स्तर की चुनौतियों को प्रभावी ढंग से निपटाए‚ बल्कि देश भर के लिए उपयुक्त परिणामों और सभी के लिए दीर्घकालिक लाभों को सुनिश्चित करने का काम करे। हमारे लिए इसका मतलब सस्ती बिजली‚ पर्यावरण पर कम से कम दुष्प्रभाव और कम से कम अनिश्चितता है। देर नहीं हुई है‚ चलिए‚ आज से ही बात शुरू करते हैं। 

कोयले का संकट खास मौसम में

सामने आने वाली समस्या है। इसने 2017 और 2018 में भी कोयले के स्टॉक को प्रभावित किया था। लेकिन इस साल जुलाई–अगस्त में बिजली की बेमौसम और ऊंची मांग के कारण मानसून के बाद कोयले का स्टॉक तेजी से घट गया‚ जिसने अक्टूबर की शुरुआत में बिजली आपूर्ति का संकट खड़ा कर दिया। आबादी के लिहाज से कोयला आधारित बिजली उत्पादन की कुल स्थापित क्षमता की बात करें तो चीन के पास 1000 गीगा वॉट से ज्यादा की क्षमता है‚ जबकि भारत के पास सिर्फ 205 गीगा वॉट कोयला आधारित बिजली उत्पादन की क्षमता है।

लेखक फेलो‚ सीईईडब्ल्यू एवं निदेशक‚ रिसर्च कोआर्डिनेशन हैं।