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जनसत्ता रविवारी, 1 मई 2011
हिंद महासागर और अरब सागर की तरफ से भारत के दक्षिण-पश्चिम तट पर आने वाली हवाओं को मानसून कहते हैं। ये हवाएं दक्षिण एशिया में जून से सितंबर तक लगभग चार महीनों तक सक्रिय रहती हैं। इस तरह के मानसून को दक्षिणी-पश्चिमी ग्रीष्मकालीन मानसून कहते हैं। इसके अलावा दक्षिण एशिया में दिसंबर से मार्च तक पूर्वोत्तर मानसून भी आता है।
दक्षिणी-पश्चिमी मानसून से भारत में अस्सी फीसद बारिश होती है। मानसून के आने में देरी से देश की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है। क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है। कृषि पर ही पच्चीस फीसद सकल घरेलू उत्पाद और पचहत्तर फीसद आबादी निर्भर करती है। खासकर किसानों को अगर मानसून का सात से दस दिन पहले पता चल जाए तो उन्हें फायदा हो सकता है। मानसून की सही भविष्यवाणी बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। मानसून के समय पर न आने के कारण जहां कुछ राज्यों में सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, तो भारी वर्षा के कारण कई राज्य पानी में डूब जाते हैं।
मौसम विभाग ने भविष्यवाणी की है कि इस साल देश में 98 फीसद बारिश होगी। क्या यह भविष्यवाणी सच होगी? यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन इससे पहले मौसम विभाग की कई भविष्यवाणियां सही नहीं हुई हैं। 2009 में मौसम विभाग ने छयानवे फीसद बारिश होने की भविष्यवाणी की थी लेकिन सतहत्तर फीसद बारिश ही हुई थी। इसी तरह 2004 में सौ फीसद बारिश की भविष्यवाणी मौसम विभाग ने की थी लेकिन केवल सत्तासी फीसद बारिश हुई। 2002 में एक सौ एक फीसद बारिश की भविष्यवाणी की गई थी लेकिन केवल इक्यासी फीसद ही बारिश हुई थी।
कई बार मौसम विभाग ने कम बारिश होने की घोषणा की थी तो बाढ़ आ गई। 1994 में बयानवे फीसद बारिश की भविष्यवाणी की गई थी लेकिन उस साल एक सौ दस फीसद बारिश हुई। इसी तरह 1995, 1996, और 1997 में अधिक वर्षा हुई। यही हाल 2006 और 2007 में भी थी। 2006 में बयानवे फीसद बारिश की भविष्यवाणी की गई थी लेकिन असल में सौ फीसद बारिश हुई। 2007 में मौसम विभाग ने पंचानवे फीसद बारिश होने की भविष्यवाणी की थी जबकि वास्तव में एक सौ छह फीसद बारिश हुई।
आखिर ये भविष्यवाणियां गलत क्यों हो जाती हैं? मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक अचानक वेदर पैरामीटर बदल जाते हैं और कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं जिनका असर वायुमंडल पर पड़ता है तो भविष्यवाणियां प्रभावित हो जाती हैं।
ग्लोबल वार्मिंग का असर भी मानसून की भविष्यवाणियों पर पड़ रहा है। मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक तेजी से बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग के कारण भविष्य में मानसून की कोई भी भविष्यवाणी करने में परेशानी होगी। इस हालत में मानसून की भविष्यवाणी के लिए मौसम विभाग को और अच्छे मानकों की आवश्यकता होगी। तापमान के बार-बार बदलने और हवा में कम मात्रा में पानी होने के कारण मानसून का पूर्वानुमान लगा पाना कठिन होता है जबकि उत्तरी क्षेत्रों में पूर्वानुमान लगाना अपेक्षाकृत आसान है।
दक्षिणी-पश्चिमी मानसून से भारत में अस्सी फीसद बारिश होती है। मानसून के आने में देरी से देश की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है। क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है। कृषि पर ही पच्चीस फीसद सकल घरेलू उत्पाद और पचहत्तर फीसद आबादी निर्भर करती है। खासकर किसानों को अगर मानसून का सात से दस दिन पहले पता चल जाए तो उन्हें फायदा हो सकता है। मानसून की सही भविष्यवाणी बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। मानसून के समय पर न आने के कारण जहां कुछ राज्यों में सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, तो भारी वर्षा के कारण कई राज्य पानी में डूब जाते हैं।
मौसम विभाग ने भविष्यवाणी की है कि इस साल देश में 98 फीसद बारिश होगी। क्या यह भविष्यवाणी सच होगी? यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन इससे पहले मौसम विभाग की कई भविष्यवाणियां सही नहीं हुई हैं। 2009 में मौसम विभाग ने छयानवे फीसद बारिश होने की भविष्यवाणी की थी लेकिन सतहत्तर फीसद बारिश ही हुई थी। इसी तरह 2004 में सौ फीसद बारिश की भविष्यवाणी मौसम विभाग ने की थी लेकिन केवल सत्तासी फीसद बारिश हुई। 2002 में एक सौ एक फीसद बारिश की भविष्यवाणी की गई थी लेकिन केवल इक्यासी फीसद ही बारिश हुई थी।
कई बार मौसम विभाग ने कम बारिश होने की घोषणा की थी तो बाढ़ आ गई। 1994 में बयानवे फीसद बारिश की भविष्यवाणी की गई थी लेकिन उस साल एक सौ दस फीसद बारिश हुई। इसी तरह 1995, 1996, और 1997 में अधिक वर्षा हुई। यही हाल 2006 और 2007 में भी थी। 2006 में बयानवे फीसद बारिश की भविष्यवाणी की गई थी लेकिन असल में सौ फीसद बारिश हुई। 2007 में मौसम विभाग ने पंचानवे फीसद बारिश होने की भविष्यवाणी की थी जबकि वास्तव में एक सौ छह फीसद बारिश हुई।
आखिर ये भविष्यवाणियां गलत क्यों हो जाती हैं? मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक अचानक वेदर पैरामीटर बदल जाते हैं और कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं जिनका असर वायुमंडल पर पड़ता है तो भविष्यवाणियां प्रभावित हो जाती हैं।
ग्लोबल वार्मिंग का असर भी मानसून की भविष्यवाणियों पर पड़ रहा है। मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक तेजी से बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग के कारण भविष्य में मानसून की कोई भी भविष्यवाणी करने में परेशानी होगी। इस हालत में मानसून की भविष्यवाणी के लिए मौसम विभाग को और अच्छे मानकों की आवश्यकता होगी। तापमान के बार-बार बदलने और हवा में कम मात्रा में पानी होने के कारण मानसून का पूर्वानुमान लगा पाना कठिन होता है जबकि उत्तरी क्षेत्रों में पूर्वानुमान लगाना अपेक्षाकृत आसान है।