बोले री पपीहरा

Submitted by admin on Fri, 01/31/2014 - 15:53
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जनसत्ता (रविवारी), 12 जनवरी 2014
पपीहा पक्षीबरसात के मौसम में कोयल की कूक के साथ एक और पक्षी की आवाज सुनाई देती है। इसकी धीरे-धीरे तेज होती जाती ‘पी कहां, पी कहां’ की टेर सिर चढ़ कर बोलती है। आप समझ ही गए होंगे कि यह पक्षी और कोई नहीं, पपीहा है। हिंदी फिल्मों में इस पक्षी को लेकर अनेक गीत रचे गए हैं। हिंदी में भी इस पक्षी को लेकर कई कविताएं लिखी गई हैं।

हिंदी कवियों का मानना है कि यह पक्षी ‘पी कहां, पी कहां’ यानी ‘प्रियतम कहां, प्रियतम कहां’ बोलता है। बंगाली लोगों का मानना है कि यह पक्षी ‘चोख गेलो’ (मेरी आंख चली गई) कहता है, जबकि मराठी लोगों के अनुसार यह पक्षी अपनी बोली में ‘पयोस आता’ (बारिस आने वाली है) कह कर चिल्लाता है। वैसे खूब ध्यान से सुनने पर पपीहा की रागमय बोली में ‘पी कहां’ के उच्चारण के समान ही ध्वनि निकलती जान पड़ती है।

पपीहे की आवाज बहुत सुरीली और बारीक होती है, बल्कि कोयल से भी सुरीला और मीठा गीत गाता है यह पक्षी। पपीहा दक्षिण एशिया में बहुतायत से पाया जाता है। इसके अलावा पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में भी यह पाया जाता है।

देखने में यह कबूतर जैसा होता है, इसकी आंखें पीली और शरीर का ऊपरी हिस्सा हल्के-भूरे रंग का होता है। इसकी चोंच और पैर पीले रंग के होते हैं, जिसमें थोड़ा हरापन लिए हल्के-हल्के धब्बे होते हैं। दूर से देखने पर यह चील या शिकारा नामक शिकारी पक्षी जैसा लगता है। इसके उड़ने और बैठने का तरीका भी बिल्कुल चील या शिकारा जैसा होता है। तभी अंग्रेजी में इसे कॉन हॉक कुक्कू कहते हैं।

पपीहे की लंबाई करीब पच्चीस-तीस सेंटीमीटर तक होती है। देखने पर नर और मादा में बहुत कम अंतर होता है। खाने में इसे कीड़े-मकोड़े ही ज्यादा पसंद हैं।

पपीहा हरे-भरे क्षेत्र या घने जंगलों में पाया जाता है। यह वृक्षों पर रहने वाला पक्षी है। बहुत कम ही जमीन पर उतरता है। जब मस्ती में आता है तब वृक्ष की चोटी पर बैठ कर जोर से टेर लगाता रहता है। रात में, खास कर चांदनी में इसकी मस्ती भरी बोली गूंजती रहती है। तमाम रात चिल्लाने के कारण ही पपीहे को मस्तिष्क ज्वर पक्षी (ब्रेन फीवर बर्ड) भी कहते हैं।

कहा जाता है कि यह पक्षी केवल बारिश का पानी पीता है। यहां तक कि प्यास से मरने को होने पर नदी, तालाब आदि के जल में यह अपनी चोंच नहीं डुबोता। अनेक लोगों का मानना है कि पपीहा केवल स्वाति नक्षत्र में होने वाली वर्षा का ही जल पीता है और अगर यह नक्षत्र बिन बरसे चला जाए तो यह पक्षी साल भर बिना पानी पिए रहता है।

कोयल की तरह पपीहा भी अपना घोंसला खुद नहीं बनाता। मादा अप्रैल से जून के बीच अंडे देती है, जिन्हें वह चुपके से कोयल या छोटी फुदकी के घोंसले में छोड़ आती है। उसके अंडों का रंग भी कोयल के अंडों जैसा नीला होता है।

बरसात के बाद यह पक्षी दिखाई नहीं देता। वैसे ही इसे सर्दी बिल्कुल पसंद नहीं। इन दिनों यह दक्षिण की ओर चला जाता है, जहां सर्दी का प्रकोप कम होता है। पपीहे की एक जाति आम पपीहों से कुछ भिन्न होती है। इसे चातक कहते हैं। कद में ये पपीहे की तरह की होते हैं, बस इनके सिर पर बुलबुल की तरह एक कलगी-सी होती है।