मलगांव से मालदार गांव बनने की कहानी

Submitted by Hindi on Sat, 01/09/2010 - 07:52
Author
उमाशंकर मिश्र
वेब/संगठन

देवस्थान के चबूतरे पर एकत्र मलगांववासीदुनिया के बड़े बड़े दादा लोग दुनिया के पर्यावरण को बचाने की कोशिश में लगे हुए हैं. इन कोशिशों से बहुत दूर मध्य प्रदेश के खण्डवा में एक गांव ने पर्यावरण के नाम पर तो नहीं लेकिन लगातार पड़ रहे सूखे और मंहगी होती जिंदगी से पीछा छुड़ाने के लिए प्राकृतिक खेती और नैसर्गिक जीवन को अपना आधार बना लिया. अब मलगांव पर कोई संकट नहीं है. सूखे के बीच उन्होंने प्राकृतिक तरीकों से अपनी जिंदगी तर कर ली है.

मध्य प्रदेश के खंडवा जिला मुख्यालय से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर छैगांवमाखन विकासखंड में स्थित है जैविक ग्राम मलगांव। 75 वर्षीय वयोवृद्ध दशरथ पटेल ने मलगांव में बदलाव के दौर को अपनी आंखों से देखा है। वे बताते हैं कि-`मलगांव बहुत गिरा हुआ था, यहां कोई आता-जाता नहीं था और फसल भी बेहद कमजोर होती थी, जिससे स्थानीय ग्रामीणों को अपनी उपभोग की जरूरतों को पूरा के लिए भी कई बार दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। शिक्षा के नाम पर महज एक प्राईमरी स्कूल था, गांव में कोई सड़क नहीं थी। लेकिन जैविक ग्राम का दर्जा हासिल करने के बाद मलगांव में सड़क ही नहीं बनी, बल्कि स्कूल भी मिडिल तक हो गया है। यही नहीं मीडिया के जो लोग कभी मलगांव की दुर्गती से बेपरवाह बने हुए थे, उनका भी आना-जाना यकायक बढ़ गया। जैविक ग्राम मलगांव को कुछ समय पूर्व निर्मल ग्राम अवार्ड से भी नवाजा गया है।

मलगांव की स्थिति हमेशा से ऐसी नहीं थी। अपेक्षाकृत ऊंचाई पर होने के कारण एक ओर जहां मलगांव में बरसाती पानी के ठहरने की समस्या चिरकाल से थी, वहीं अच्छी वर्षा के बावजूद भी भूगर्भीय जमीन पथरीली होने के कारण जलस्तर बहुत तेजी से गिर जाता है। इन बातों का सीधा प्रभाव मलगांव की कृषि और उस पर आश्रित ग्रामीणों के जनजीवन पर पड़ता है। वर्ष 1998 से 2000 के दौरान पड़े सूखे ने मलगांव के ग्रामीणों की कमर तोड़कर रख दी और नौबत फाके करने तक पहुंच गई। कम कृषि उत्पादन से मुश्किल जीवन यापन, उस पर रसायनिक खेती की विषबेल को सींचने का बढ़ता खर्च, सूखे का अभिशाप और खेती में रसायनिक खाद के उपयोग के चलते अधिक सिंचाई की आवश्यकता जैसी विपरीत परिस्थितियों से मलगांव के किसान जूझ रहे थे।

गांव में करीब 505 हेक्टेयर खेती का रकबा है और परती भूमि बिल्कुल नहीं है। एक तरह से देखा जाये तो मलगांव के निवासियों के जीवन यापन का साधन खेती एवं पशुपालन ही है। पानी की समस्या की बात करें तो आसपास ऐसा कोई नाला भी नहीं था, जिसका पानी रोककर जल उपलब्धता में कोई विशेष वृद्धि की जा सके। दूसरी ओर खरीफ में कपास जैसी लंबी अवधि की फसलों एवं रबी के मौसम में गेहूं, चना एवं सब्जियों की पैदावार के लिए अतिरिक्त जल की उपलब्धता एक एक चुनौती बन चुकी थी। क्षेत्र में सिंचाई योग्य कुओं की संख्या उस दौरान 275 थी, लेकिन पर्याप्त जल पुर्नभरण न होने से मात्र 20 कुंओं से सिंचाई होती थी। पूरे परिदृश्य पर गौर करें तो उस दौरान मलगांव में पानी की मांग 347.18 हेक्टेयर मीटर थी, जबकि उसकी तुलना में उपलब्धता सिर्फ 216.03 हेक्टेयर मीटर थी। हालात ऐसे थे कि पीने के पानी के लिए भी त्राहि-त्राहि थी।

आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक सूखे के कारण मलगांव के किसानों को कपास, सोयाबीन, ज्वार, मक्का, मूंगफली इत्यादि में 40-50 फीसदी गिरावट का सामना करना पड़ा, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर हो गई। इन सब बातों के कारण बढ़ते असंतोष से गांव में परस्पर वैमनस्य बढ़ रहा था। पूरा गांव दो गुटों मे बंट गया था और करीब 6 वर्षों तक मलगांव में कोई ग्रामसभा नहीं हुई, जिसके कारण गांव की प्रशासनिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न पड़ी थी।

मलगांव के लोगों ने गांव में पड़े सूखे के कारण ही सही; लेकिन जैविक खेती के महत्व को काफी पहले समझ लिया था। सूखे से निपटने की तैयारियां शुरु हुई तो ग्रामीणों को यह बात भली भांति समझ आ गई कि खेत का पानी खेत व मिट्टी के कणों के आसपास संग्रहित रखने के लिए जीवांश-कम्पोस्ट के ह्युमस की विशेष भूमिका होती है। इस अनिवार्यता को जैविक खेती अपनाकर ही संभव बनाया जा सकता था। इन समस्याओं को ध्यान में रखकर कृषक पाठशाला के माध्यम से जैविक एवं टिकाऊ और जल प्रबंधन कार्यक्रम निर्धारण किया गया। यही नहीं जैविक खेती की पूरी कार्ययोजना का खाका तैयार कर लिया गया। सर्वप्रथम उपलब्ध कचरे-गोबर से कम्पोस्ट बनाने का प्रस्ताव रखा गया। गोबर गैस के उपयोग से उर्जा की आपूर्ति के अलावा उससे प्राप्त अपिशश्ट (स्लरी) का जैविक खाद बनाने में उपयोग, कच्चे एवं पक्के नाडेप और वर्मी कम्पोस्ट को अपनाये जाने की बात पर सबकी सहमती बन गई।

प्रथम चरण में कृषकों ने गांव में बिखरे हुए कचरे को इक्कट्ठा कर उससे कम्पोस्ट बनाने व गोबर के कंडे-उपले का ईंधन के रूप में उपयोग नहीं करने का संकल्प लिया। इसके साथ ही गांव में बायोगैस संयंत्र लगाने का अभियान छेड़ा गया। फरवरी 2001 में सिर्फ 80 बायोगैस संयंत्र गांव में थे, जो अब बढ़कर 218 हो गए हैं। बाद में बायोगैस संयंत्र के ढांचे में एक नया प्रयोग किया गया। खेती की जमीन एवं पशुओं की अनुपलब्धता के चलते गरीब एवं पिछड़ों के लिए गोबर गैस संयंत्र हेतु गोबर सुलभ नहीं होने की बात को ध्यान में रखकर घर में बने शौचालय से एक इन्पुट लाईन गोबर गैस संयंत्र से जोड़ दी गई। जिसमें गोबर के साथ मानव मल-मूत्र भी बायोगैस निर्माण में उपयोग होने लगा। हालांकि शुरुआती दौर में इस प्रयोग को समुदाय का समर्थन नहीं मिला, लेकिन जब लोगों ने देखा कि इस प्रयोग से किसी तरह की गंदगी नहीं होती और न ही कोई बदबू आती है तो धीरे-धीरे इसे भी गांव में अपनाया जाने लगा। डिग्री लाल भी भूमिहीनों की उसी जमात का हिस्सा हैं जिन्होंने अपने घर में शौचालय से इन्पुट लाईन गोबर गैस संयंत्र मे जोड़ी है। वे रसोई में चूल्हा जलाकर दिखाते हुए कहते हैं कि-`देखिये इससे कोई बदबू नहीं आती और आज पूरे गांव में इस तरह के करीब 110 संयंत्र लगे हुए हैं।´ इस तरह मानव मल-मूत्र प्रदूषण का कारक न बनकर पौध-संरक्षण का सशक्त माध्यम बन गया।

वर्ष 2002 में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने मलगांव का दौरा किया तो उन्होंने आश्चर्यपूर्वक पूछा कि-`क्या गांव में केबल टी.वी. भी आ गया है, तो उन्हें बताया गया कि गांव में फैला तारों का संजाल केबल टी.वी. का नहीं, बल्कि गोबर गैस संयंत्र की `नलियों´ का है, जिससे घर-घर में ईंधन हेतु गोबर गैस प्रवाहित होती है। बायोगैस के उपयोग से खाना पकाने हेतु लकड़ी, उपले का उपयोग प्राय: बंद हो गया है। इस तरह से जहां एक ओर मलगांव के लोग उर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हुए, वहीं दूसरी ओर ईंधन पर होने वाले खर्च की बचत भी होने लगी। यह पिछड़े एवं गरीब ग्रामीणों के लिए जहां एक राहत की बात है, वहीं महिलाओं को भी धुंए-धक्कड़ से हमेशा के लिए निजात मिल गया।

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