शुरुआती दौर में नैनीताल पहुँचने के लिए सबसे बड़ी समस्या रास्तों की थी। यहाँ आने-जाने के लिए रास्ते/ सड़क जैसी कोई चीज नहीं थी। जंगलों को कूद-फांद कर ही नैनीताल आया-जाया जा सकता था। नैनीताल तक पहुँच को सुगम बनाने के लिए पहले बरेली से बाजपुर और फिर कालाढूँगी और वहाँ से निहाल नदी के किनारे-किनारे खुर्पाताल होते हुए नैनीताल को सड़क बनाने का प्रस्ताव आया। बैरन इसी रास्ते तीन बार नैनीताल से वापस मैदान की ओर जा चुके थे। उन्होंने इसे नैनीताल पहुँचने का सीधा रास्ता बताया था। दूसरा सुझाव था कि मुरादाबाद से काशीपुर चिलकिया, पवलगढ़ के पास की शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी से होते हुए देवपाटा तक सड़क बनाई जाए। हालांकि उस दौर में भी हल्द्वानी पहाड़ की सबसे बड़ी मंडी थी। पहाड़ के सभी उत्पाद इसी मंडी में आते थे। यहाँ पूरे साल कारोबार चलता था। पर कालाढूँगी से हल्द्वानी पहुँचना सरल कार्य नहीं था। निहाल नदी से हल्द्वानी के बीच घने और डरावने मिश्रित जंगल थे। घनी और ऊँची घास थी। इस घास को पार करना असम्भव था। तब यहाँ जंगली हाथियों का जबरदस्त आतंक था। बीच में कई आबाद गाँव तो थे, लेकिन उस दौर में भाबर के जंगलों में साल की लकड़ी के तस्करों का साम्राज्य था।
मैदानी क्षेत्रों से नैनीताल समेत पहाड़ के दूसरे हिस्सों में आने वाले यात्रियों को तराई की पट्टी को अनिवार्य रूप से पार करना पड़ता था। तब इसे अल्मोड़े की तराई कहा जाता था। पहाड़ की यात्रा पर आने वाले ज्यादातर यात्रियों के लिए तराई की गर्मी जानलेवा सिद्ध होती थी। तराई बुखार का जबरदस्त आतंक था। मौसम के लिहाज से सितम्बर के महीने में तराई मे रहना या तराई को पार करना सबसे खतरनाक समझा जाता था। ठंड और गर्मी के मौसम बदलने की वजह से मृत्युदर बढ़ जाती थी। इस दौरान तराई को पार करना खुद के मौत के वारंट में हस्ताक्षर करना जैसा था। कुमाऊँ की तराई में कई यूरोपियन की बुखार से मौत हो चुकी थी। नार्थ वेस्टर्न प्रोविंसेस के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर जेम्स टॉमसन 1843 से 1852 तक अपनी गर्मियाँ शिमला के पहाड़ों में बिताते आ रहे थे। 1853 में वे नैनीताल आना चाहते थे, पर आगरा से बरेली जाते समय रास्ते में बीमार पड़ गए। नैनीताल पहुँचने से पहले ही उनकी मौत हो गई थी।
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