दिल्ली में हर सर्दियों में प्रदूषित घने कोहरे से जनजीवन पूरी तरह ठप हो जाता है। देश की राजधानी में प्रदूषण के चलते हालात भयावह हो चुके हैं। लेकिन, हुक्मरान आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में व्यस्त हैं। प्रदूषण रोकथाम की बातें तो खूब होती हैं पर यह जुबानी जमाखर्च से अधिक नहीं होता। आज दिल्ली की बारी है तो कल अन्य शहरों की होगी।
देश की राजधानी दिल्ली जहरीली हवाओं में लिपटी है यानी आमजन के लिये विष का प्याला बन चुकी है। वातावरण में दो तरफ से आने वाली हवाएँ टकरा रही हैं। एक तो पंजाब के खेतों में फसल जलाए जाने से फैलने वाली प्रदूषित हवा और दूसरे पूर्व के राज्यों से आने वाली नम हवा। ये दोनों ही पहले से मौजूद उच्च प्रदूषण में मिलकर दिल्ली को गैस चैम्बर में तब्दील कर चुकी हैं। यह स्थिति आमजन के स्वास्थ्य के लिये खतरनाक बन गई है।वर्तमान में दिल्ली के प्रदूषण का स्तर खतरे के निशान से काफी ऊपर उठ चुका है। इसी के चलते स्वास्थ्य विभाग को जनहित में चेतावनी जारी करनी पड़ी कि कोई भी व्यक्ति फिर चाहे वह पूर्ण स्वस्थ्य ही क्यों न हो खुले में बाहर न निकले। कोई भी मौसम समस्या को किसी हद तक ही परिभाषित कर सकता है।। इस सच्चाई को नहीं झुठलाया जा सकता कि दिल्ली में प्रदूषण का स्तर इतना बढ़ चुका है कि जब कभी मौसम प्रतिकूल होता है तो आम नागरिकों को इस तरह की समस्याओं का सामना करना ही पड़ता है।
कल्पना करें कि किसी शहर में जब हर वक्त एक करोड़ वाहनों की नलियाँ धुआँ उगलती हों, साथ ही पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) के कारखानों के साथ दिन-रात चलते ट्रकों के धुएँ से उस शहर के वातावरण की हालत क्या होगी। देश का कोई सा भी कोना हो आजकल कचरा निस्तारण का सबसे आसान उपाय यही समझा जाता है कि उसे इकट्ठा कर जला दिया जाये। जब शहर में ही प्रदूषण के इतने कारण मौजूद हों मौसम को कितना दोषी ठहराया जा सकता है। इसके बचाव में यह भी कहा जा रहा है कि पड़ोसी राज्यों में खेतों में पराली जलाने से भी धुआँ दिल्ली आ रहा है। सच यह है कि खेतों का धुआँ तो कुछ समय के लिये ही आता है।
यह सब तो तात्कालिक है। हमें साल भर बहने वाली जहरीली हवाओं की ओर भी ध्यान देना होगा। विडम्बना है कि दिल्ली-एनसीआर में और इस क्षेत्र में आने वाले अन्य शहरों को शासन के पास न तो प्रदूषण से निपटने की कोई कार्ययोजना है और न ही वे इस दिशा में कुछ खास कर रहे हैं। एक-दूसरे पर दोषारोपण को खेल चल रहा है। प्रदूषण फैलाने के बड़े कारण तो दिल्ली में ही मौजूद हैं। सबसे ज्यादा प्रदूषण हो रहा है वाहनों, उद्योगों, विद्युत संयंत्रों और कचरा जलाने से। प्रदूषित धूल से दिल्ली, उत्तर भारत का ‘डस्ट बाउल’ बन चुका है।
सड़क पर निर्माण सामग्री बिखरी होने से धूल की समस्या बढ़ती जा रही है। इसके लिये न तो कई नियम कायदे हैं और न ही इस पर रोकथाम के कभी उपाय होते हैं। वाहनों की बात करें तो हम सब जानते हैं कि ट्रक दूषित वायु का प्रमुख जरिया बने हुए हैं। अन्य वाहनों का भी वायु प्रदूषण में बड़ा योगदान है। यह मायने नहीं रखता कि आप अपने वाहन को साफ-सुथरा रखते हैं, समय पर सर्विस कराते हैं, प्रदूषण के अनुकूल बीएस-4 वाहन काम में ले रहे हैं।
हर साल आठ गुना वाहन शहर की सड़कों पर जुड़ जाते हैं तो आपके सारे प्रयास विफल हो जाते हैं। इससे बचने के लिये सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था को सुदृढ़ करना होगा। हर सर्दियों में हालात बिगड़ने पर सार्वजनिक मंचों पर इस पर बातें तो खूब होती हैं लेकिन हालात जस-के-तस ही रहते हैं। अब भी सार्वजनिक परिवहन के नाम पर सड़कों पर कुछ ही बसें देखने को मिलती हैं। इस तथ्य को किसी भी सूरत में नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता कि बिना सहज, सुलभ और सस्ते सार्वजनिक परिवहन के आप वायु प्रदूषण को नियंत्रित नहीं कर सकते हैं। इसकी कमी के चलते हर सर्दियों में मौसम के खिलाफ जंग में हार का मुँह देखना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर उद्योगों में सस्ता होने के चलते पेट काॅक का इस्तेमाल किया जा रहा है।
पेट काॅक (petcock) को ‘बाॅटम आॅफ द बैरल फ्यूल’ (Bottom of the barrel fuel) कहा जाता है। पेट काॅक को पेट्रोलियम रिफाइनरियाँ बेकार होने के कारण फेंक देती हैं। अमरीका में यह प्रतिबन्धित होने के कारण वह इसे विकासशील देशों को निर्यात कर देता है। पूर्व में चीन इसे आयात करता था। चीन ने बाद में यह कहते हुए कि हम प्रदूषित हो चुके हैं, हमें तुम्हारा कचरा नहीं चाहिए, पेट काॅक का आयात करने से मना कर दिया। यह शर्मनाक है कि भारत में आज भी इसे बड़ी मात्रा में आयात किया जा रहा है।
पिछले साल भारत ने 1.4 करोड़ टन पेट काॅक का आयात किया। यह हमारे घरेलू उपभोग से भी कई गुना ज्यादा है। यही पेट काॅक उद्योगों में ईंधन के रूप में काम आकर प्रदूषण का बड़ा कारण बनता है। और, जब हमने इस पर रोक लगाने के लिये अदालत में अपील की तो देश के बड़े से बड़े वकील इसके खिलाफ पैरवी करने आ गए कि कैसे भी इस पर पाबन्दी को रोका जा सके। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हम वाकई प्रदूषण के लिये गम्भीर हैं? स्थिति बेकाबू होने पर हर बार ऐसे बहाने बनाए जाते हैं कि प्रदूषण के लिये यह नहीं है, फलां चीज जिम्मेदार है। हकीकत यह है कि इसका खामियाजा हम सब भुगत रहे हैं।
देश में कही भी सरकार से पास कचरा निस्तारण की कोई कार्ययोजना ही नहीं है। इन सबको प्राथमिकता में रखते हुए ठोस योजना बनाकर उस दिशा में सही कदम उठाने होंगे। प्रदूषण के खिलाफ जंग जीतना मुश्किल है, नामुमकिन नहीं लेकिन इसके लिये बड़े पैमाने पर सही मंशा से परिवर्तन करने होंगे।
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