भारत के हिमालयी इलाकों में करीब पांच लाख से ज्यादा नौले-धारे हैं। नौले-धारे को जम्मू-कश्मीर में ‘नाग या चश्मा’ कहते हैं, हिमाचल में ‘बौली या बावड़ी’ कहते हैं और सिक्किम में धारा कहते हैं। अंग्रेजी में ‘नेचुरल स्प्रिंग्स’, ‘माउन्टेन स्प्रिंग्स’ या ‘स्प्रिंग्स’ भी कहते हैं। ये नौले-धारे या चश्मे ही पहाड़ी क्षेत्रों में जीवनधारा रहे हैं, इस बात का अंदाजा इससे भी होता है कि इनकी संख्या भारत के हिमालयी क्षेत्रों में ही 5 लाख से ज्यादा है। लेकिन आज नौले-धारे संकट में हैं, सूख रहे हैं, उनमें प्रवाह कम हो रहा है और वे सीजनल यानी बरसाती होते जा रहे हैं। नौले-धारों के सूखने में प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन, तापमान में वृद्धि, भूकंप, पर्यावरण का क्षरण और मानवीय हस्तक्षेप तो हैं ही साथ ही जल स्रोतों के एक्विफर यानी नौले-धारों के गर्भगृह पर अतिक्रमण और टूट-फूट नौले-धारों के बदतर हालात के लिए ज्यादा जिम्मेदार हैं।
सिक्किम के लोग पेयजल की समस्या को नियति मान चुके थे, लेकिन स्थितियां धीरे-धीरे तब बदलने लगीं जब नौले-धारों को पुनर्जीवन देने की कवायद शुरू हुई। यहां यह भी बता दें कि सिक्किम में गर्म नौले-धारे भी हैं। इन गर्म नौले-धारों में सल्फर की अधिकता है जो कई रोगों को दूर करने में कारगर हैं। सिक्किम में अब तक 704 नौले-धारों की मैपिंग की गई है, लेकिन रख-रखाव नहीं होने से अधिकतर नौले-धारों की जल संचयन क्षमता कम होने लगी थी और कई सूखने के कगार पर पहुुंच गए थे। इसके पीछे एक बड़ी वजह यह भी थी कि सिक्किम में बारिश अनियमित हो गई थी।
आइए भारत के हिमालयी इलाके का एक अंदाजा भी करें। 2,500 किलोमीटर लंबे और 250 से 300 किमी. चैड़े क्षेत्र में फैला है और इसमें 60,000 गांव हैं और इन गावों में 5 करोड़ से ज्यादा की आबादी रहती है। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा इसके दायरे में आते हैं। इन प्रदेशों के साठ फीसदी लोग पानी की जरूरतों के लिए नौले-धारों पर ही निर्भर है। ऐसे में नौले-धारों का सूखना पहाड़ों में जीवन पर संकट के तौर पर देखा जा रहा है। हाल-फिलहाल नीति आयोग की एक रिपोर्ट भी आई है। ये रिपोर्ट नौले-धारों के सूखने के बारे में बताती तो है ही साथ ही नौले-धारों से निकले पानी की लगातार गुणवत्ता खराब होने के बारे में भी बताती है। रिपोर्ट के अनुसार, सूक्ष्मजीव, सल्फेट, नाइट्रेट, फ्लोराइड, आर्सेनिक और आयरन प्रदूषण नौले-धारों के पानी में बढ़ रहा है। कोलिफॉर्म बैक्टीरिया, नाइट्रेट आदि नौले-धारों के स्रोत एक्विफर (पहाड़ों में भूमिगत जल भंडार) में पहुंच रहा है।
जो हिमालय के पहाड़ दुनिया की बड़ी नदियों में से कई का मायका हैं, वे ही अब पानी को तरस रहे हैं। पहाड़ों से पलायन में पानी की कमी भी एक बड़ा कारण है। ऐसे में इन्हीं हिमालयी राज्यों में से एक राज्य सिक्किम हमें सबक सिखा रहा है। पूर्वोत्तर हिमालय में लगभग 7,096 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला सिक्किम वैसे तो है बहुत छोटा राज्य, लेकिन इस छोटे राज्य ने नौले-धारों को सहेजने के लिये जो बड़ा काम किया है, उससे काफी कुछ सीखा जा सकता है। सिक्किम ने नौले-धारों को सहेजकर अपने लोगों के लिये पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित कर दी है। सिक्किम की आबादी 5 लाख 40 हजार है। यहां के गांवों में रहने वाली आबादी का 80 फीसद हिस्सा पीने व अन्य जरूरतों के लिये नौले-धारों के पानी पर निर्भर है। इससे समझा जा सकता है कि नौले-धारे यहां के लोगों के लिये कितना जरूरी है, लेकिन रख-रखाव के अभाव व नौले-धारों को बचाने की कोई मजबूत और दूरदर्शी योजना नहीं होने के कारण यहां के नौले-धारे बेहद दयनीय हालत में पहुंच गए थे। राज्य में धीरे-धीरे हजारों की तादाद में झीलें और धारे सूखने लगे थे। पहाड़ पर जिन्दगी यों भी दुश्वार होती है, उस पर अगर पीने के पानी के लिये भी जद्दोजहद करनी पड़े तो मुश्किलें और बढ़ जाती हैं।
सिक्किम के लोग पेयजल की समस्या को नियति मान चुके थे, लेकिन स्थितियां धीरे-धीरे तब बदलने लगीं जब नौले-धारों को पुनर्जीवन देने की कवायद शुरू हुई। यहां यह भी बता दें कि सिक्किम में गर्म नौले-धारे भी हैं। इन गर्म नौले-धारों में सल्फर की अधिकता है जो कई रोगों को दूर करने में कारगर हैं। सिक्किम में अब तक 704 नौले-धारों की मैपिंग की गई है, लेकिन रख-रखाव नहीं होने से अधिकतर नौले-धारों की जल संचयन क्षमता कम होने लगी थी और कई सूखने के कगार पर पहुुंच गए थे। इसके पीछे एक बड़ी वजह यह भी थी कि सिक्किम में बारिश अनियमित हो गई थी। जितनी भी बारिश होती थी, उसके पानी का बेहतर प्रबन्धन नहीं होता था। इस सिलसिले में वर्ष 2008 का जिक्र करना जरूरी है। 2008 का साल सिक्किम के लिये बेहद मुश्किल भरा था क्योंकि उस वर्ष सिक्किम में नाम मात्र की बारिश हुई थी। लोग बताते हैं कि सिक्किम में ऐसा सूखा कभी नहीं पड़ा था। चूंकि नौले-धारे बारिश के पानी पर ही निर्भर होते हैं, इसलिये बारिश नहीं हुई तो नौले-धारे सूखने लगे। नौले-धारों की क्षमता जब कम हो गई, तो जलसंकट गहराने लगा व पानी के लिये कई बार लोगों में तू-तू-मैं-मैं की स्थिति बन जाया करती थी।
इन्हीं परिस्थितियों में सिक्किम के सूखते नौले-धारों को बचाने की एक मुहिम वर्ष 2008 से शुरू की गई। इसके लिये स्प्रिंग-शेड डेवलपमेंट प्रोग्राम शुरू किया गया व डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया, पीपल्स साइंस इंस्टीट्यूट, अर्घ्यम व एक्वाडैम की मदद ली गई। सिक्किम सरकार से जुड़े अधिकारियों ने बताया कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत मिलने वाले फंड की मदद से ही यह प्रयास शुरू किया गया। इस योजना के तहत कलुक, रेनोक, रवांगला, शुंबुक, मनथांग व अन्य ब्लॉक के कम से कम 50 नौले-धारों को नया जीवन दिया गया। बताया जाता है कि इन नौले-धारों की वाटर रिचार्ज क्षमता में अब 15 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो गई है।
नौले-धारों के पुनरुद्धार में इंडियन फॉरेस्ट अफसर संदीप तांबे की बड़ी भूमिका रही। उन्होंने सिक्किम में पानी व पर्यावरण पर गहन शोध किया है। बताया जाता है कि तांबे की पहल पर ही धारा विकास (स्प्रिंग डेवलपमेंट) कार्यक्रम शुरू किया गया। इसका फोकस दक्षिणी व पश्चिमी सिक्किम के नौले-धारों का पुनरुद्धार करना था क्योंकि इन क्षेत्रों के ज्यादातर नौले-धारे सूखने लगे थे। तांबे के अनुसार नौले-धारों को जीवित रखने के लिये बहुत जरूरी था कि उन्हें नियमित रिचार्ज किया जाए, इसी मॉडल पर काम शुरू किया गया था। अनुमान के मुताबिक सिक्किम में जितनी बारिश होती थी उसका महज 15 प्रतिशत हिस्सा ही नौले-धारों तक पहुंचता था व बाकी हिस्सा बेकार चला जाता था। बारिश के चलते कई बार बाढ़ की भी नौबत आ जाती थी। यह देखते हुए बारिश के पानी को सहेजकर उससे नौले-धारों को रिचार्ज करने की योजना पर काम शुरू किया गया।
तांबे ने कहा, ‘हमने वैज्ञानिक तरीके से काम शुरू किया व परकोलेशन पिट बनाया जिसमें बारिश का पानी जमा होता है व उस पानी से नौले-धारों व झीलें रिचार्ज होती हैं।’ एक जानकारी के मुताबिक 637 हेक्टेयर भूखण्ड में परकोलेशन पिट बनाया गया है। पूरी मुहिम आसान नहीं थी, लेकिन जब काम शुरू हुआ तो रास्ते खुद-ब-खुद निकलते गए। सिक्किम सरकार के पदाधिकारियों की मानें तो सिक्किम में 82 प्रतिशत नौले-धारे निजी भूखण्ड पर हैं, ऐसे में इनके सुधार के लिये इन भूखण्डों के मालिकों को विश्वास में लेना भी कठिन कार्य था। लेकिन, पानी की किल्लत के कारण परेशानी से जूझ रहे लोग तुरंत तैयार हो गए। तांबे मानते हैं कि पानी की कमीं के चलते सबसे ज्यादा मार महिलाओं को झेलनी पड़ती है। साफ पानी लाने के लिए उन्हें लंबी दूरी तय करनी पड़ती है जिसके चलते उन पर न केवल काम का बोझ बढ़ जाता है बल्कि वे अपने परिवार को पालने के लिये रोजगार के अवसर भी गंवा देती हैं।
पानी न मिलने से जाहिर है स्वास्थ्य, सफाई आदि पर गहरा असर पड़ता है। लोगों की समस्या के बारे में पता लगते ही उस पर शोध शुरु किया गया तो पता चला कि धारों के सूखने की दो वजहें थी। एक तो जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश का असामयिक होना, घटना और दूसरा था लैंड यूज का बदलना। मानसून में जहां पहले हल्की बूंदाबांदी या बौछारें होती थी। अब घनघोर बारिश होने लगी थी जबकि सर्दियां सूखी जाने लगी यानी सर्दी के मौसम की बरसात न के बराबर हो गई थी। नतीजा बारिश का पानी तेजी से निकल जाता था और धारों के पास वक्त ही नहीं था कि पानी को सहेज सकें और रीचार्ज हो सकें। बस फिर क्या था समस्या का पता लगते ही तांबे का दिमाग तेजी से काम करने लगा और वे दिन-रात काम में जुट गए। सूखे धारों का पहले तो पता लगाया गया फिर उनके रीचार्ज जोन के बारे में शोध किया गया क्योंकि इसके जाने बिना धारों को पुनर्जीवन नहीं दिया दा सकता था। टीम छोटी थी काम बड़ा था अकेले दम पर विभाग इस काम को नहीं कर सकता था तो सिक्किम की जनता को साथ लेने की बारी आई।
तांबे धारों के पुनर्जीवन से पहले सिक्किम के जंगलों को बचाने का काम भी कर चुके थे। मात्र सरकारी लोगों की टीम के साथ राह आसान नहीं थी इसलिये समाज के साथ मिलकर इस काम को करने की योजना बनाई गई। समाज को बताया कि ये जंगल उनके ही भविष्य की धरोहर है। धीरे-धीरे लोगों का भरोसा जीता और जंगलों को बचाया ही नहीं बल्कि हरा-भरा, घना और जैविक में बदल डाला। सिक्किम ऐसा पहला राज्य है जिसे पूर्ण जैविक राज्य होने का दर्जा मिला है। लोगों के चहेते बने तांबे के लिये धारों के पुनर्जीवन के काम में भी समाज को साथ लाना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं था, अब राज और समाज साथ थे। उनकी टीम लोगों के साथ मिलकर काम कर रही थी। इस पूरी मुहिम में ग्रामीणों के सहयोग ने बड़ा काम किया। बताया जाता है कि योजना को अमलीजामा पहनाने के लिये ग्रामीण स्तर पर ‘विलेज वाटर-सेनिटेशन कमेटी’ का गठन किया गया और लोगों से अपील की गई कि वे वनों की कटाई न करें, बल्कि अधिक से अधिक पेड़ लगाएं। धारा विकास से जुड़े एक सरकारी अधिकारी सुभाष ढकाल कहते हैं कि सिक्किम में कुल कितने नौले-धारे हैं। इसकी गिनती फिलहाल तो नहीं है, लेकिन अब तक 704 नौले धारों की मैपिंग की जा चुकी है। हमारी योजना 5,000 नौले धारों की मैपिंग करने की है।
फिलहाल तो हम उन्हीं नौले धारों की मैपिंग कर रहे हैं जिनका इस्तेमाल लोग पीने के लिये करते हैं। ढकाल ने कहा, ‘हमारी आगे की योजना उन सभी गाँवों का वाटर सिक्योरिटी प्लान तैयार करना है जहाँ सूखा पड़ता है। इसके अलावा जिन नौले-धारों पर अब तक काम नहीं हुआ है, उनकी मैपिंग कर उन्हें संरक्षित करना है।’ उन्होंने कहा कि क्रिटिकल नौले-धारों को संरक्षित रखने के लिये मॉनीटरिंग मकैनिज्म को मजबूत किया जाएगा। इसके अलावा हम एक्विफर का चरित्र भी समझना चाहते हैं ताकि नौले-धारों को सहेजने में मदद मिल सके। सिक्किम सरकार के इस काम से प्रभावित होकर ही योजना आयोग ने वर्ष 2012 में मनरेगा के तहत होने वाले कामों की सूची में स्प्रिंग्स शेड डेवलपमेंट में शामिल कर लिया गया। सिक्किम में किये गए अपने बेहतर कामों के लिये संदीप तांबे का नाम 2010 में फोर्ब्स इंडिया में छपी मैन ऑफ द ईयर की 25 लोगों की सूची में शामिल किया गया था। 2012 में उन्हें टीएन खोशो अवार्ड और प्राइम मिनिस्टर अवार्ड फॉर एक्सीलेंस इन पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन 2013 से सम्मानित किया गया। सम्मानों की फहरिस्त लम्बी है। कुल जमा निचोड़ इतना है कि बचपन से ही प्रकृति से प्यार करने वाले संदीप तांबे ने सिक्किम जैसे पहाड़ी क्षेत्र में सूखते नौले-धारों को एक नया जीवन देकर पूरे विश्व को सकारात्मक सोच के साथ एक बढ़ने के संदेश ही नहीं दिया बल्कि सिक्किम जैसे सभी पहाड़ी स्थानों के लिये एक नई इबारत भी लिख डाली है।