नदियों से हमारे सम्बन्ध

Submitted by Hindi on Fri, 08/07/2015 - 09:42
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आजकल, जुलाई 2015

गंगा की सफाई के लिए वर्तमान सरकार ने अलग से मन्त्रालय बनाया है और नमामी गंगा योजना शुरु की गई है। यमुना के लिए भी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की पहल पर मैली से निर्मल यमुना कार्यक्रम शुरु किया जा रहा है। हाँलाकि अब तक गंगा और यमुना सफाई योजनाओं पर अरबों रुपए खर्च हो चुके हैं मगर अभी भी इन नदियों के प्रदूषण-स्तर में कोई खास सुधार नहीं हुआ है।

करीब 50 साल से ऊपर हुए होंगे। गाँव में जब सारा परिवार आँगन में सोता था तो माँ कहती थी कि अरे उधर पाँव मत करो, उधर गंगाजी हैं। पाप लगेगा। गंगा की तरफ पाँव करके सोना मना था। बचपन में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँवों में इस लेखिका ने देखा था कि लोग अपनी चारपाई का सिरहाना उस दिशा में रखते थे जीधर से गंगा बहती थी। गंगा की तरफ पैर करके सोना बुरा माना जाता था। हर बात पर यह सुनाई देता था- हे गंगा मइया रक्षा करना। हे गंगा मइया हमारी भूलों को माफ करना। यात्रा करते वक्त जब यमुना के पूल से गाड़ी गुजरती थी तो पूजा के रुप में उसमें पैसे फेंकने की परम्परा थी। यही नहीं हर शुभकार्य से पहले तुलसी के पत्तों से गंगाजल का छिड़काव एक अनिवार्य घटना होती थी। नदी माने ईश्वर देवी का अंश। इसीलिए शायद हमारे यहाँ नदियों के मंदिर भी बनाए गए। नदियों के नाम के आगे जी लगाने की परम्परा आज तक भी कायम है। जैसे कि गंगा जी, यमुना जी, नर्मदा जी।

पूरे भारत में इसी प्रकार की भावनाएँ जनमानस में अन्य बहुत सी नदियों को लेकर हैं। पूरी दुनिया में नदियों के प्रति इतना प्रेम शायद ही कहीं देखने को मिले क्योंकि नदी को ‘सदानीरा’ भी कहते हैं यानी कि उसमें हमेशा जल होता है। जीवन का स्रोत जल जहाँ हमेशा मिलता हो उस नदी को कैसे भुला जा सकता है। नदियाँ हमारी माँ सरीखी होती हैं। हमसे बिना कोई उम्मीद किए हमारे जीवन की रक्षक। इसीलिए उन्हें ‘माँ’ कह कर पुकारते हैं। गंगा मइया यमुना मइया। मातृशक्ति का प्रतीक। पालने-पोसने वाली। एक, दो, दस पीढ़ी, हजारों-हजार पीढ़ियों की पालनकर्ता जीवन की आवाज चलती चली आई डोर का पहला सिरा। जल देने वाली जिसके बिना एक पल भी आदमी तो क्या पेड़, पशु पक्षी जिंदा नहीं रह सकते। नदियाँ माँ की तरह ही बदले में हम से कुछ नहीं माँगती इसलिए हम हमेशा उन्हें भूले रहते हैं। बुढ़ापे में माँ जिस तरह बोझ लगने लगती है, उसी तरह नदी का पूरा दोहन करने के बाद भी उसे हम बोझ समझते हैं। इसीलिए तो कभी कुछ पल रुककर उनकी हालत के बारे में कुछ नहीं सोचते।

नदी कभी ना रुकने वाले पानी का स्रोत है। पानी का महत्व भारतीय समाज में इस बात से ही समझा जा सकता है कि लोगों ने जीवन देने वाले जल को भगवान का दर्जा दिया। नदी तो सम्पूर्ण रुप में देवियाँ थीं ही उनमें भरा जल भी ईश्वर का एक रुप था जिस तरह आसमान और पातालों के देवों की कल्पना की गई, उसी तरह जल में रहने वाले देवता को भी आहूत किया गया। जल का देवता वरुण माना गया। वह पानी में ही रहता है। इस देवता का महत्व भी उतना ही है जितना कि आकाश से बरसने वाले पानी के देवता इन्द्र का।

बारिश, नदी और समुद्र जैसे एक-दूसरे के पूरक हैं। समुद्र का पानी नदियों तक लम्बी यात्रा करके आता है। नदियों मे बहता मीठा पानी रास्ते भर के लवणों को समेटते हुए समुद्र तक पहुँचते-पहुँचते खारा हो जाता है। इसे पिया नहीं जा सकता। फिर वह वाष्प के रुप में बादल बन जाता है। ये बादल मीठे पानी की सौगात लाते हैं। बादल बरसते हैं और नदियाँ उस पानी को अपनी संतान की तरह अपने में समेट लेती हैं धरती, खेतों और सभ्यताओं की प्यास बुझाने के लिए। न जाने प्रकृति को कैसे मालूम है कि मनुष्य और अन्य जीव धारियों को पीने के लिए मीठा पानी ही चाहिए। इसलिए समुद्री चाहे अनंत जल राशि से भरा है, अथाह है मगर नदियों के सामने बौना ही है।

नदी की तरह पानी का महत्व हमारे समाज में सदा से रहा है। प्यासे को पानी पिलाना बहुत गुणकारी माना जाता था। जगह-जगह प्याऊ लगवाना, घड़ों में पानी भर कर रखना यहाँ तक कि पशु-पक्षियों के लिए भी पानी का इंतजाम किया जाता था। आज की तरह पानी का व्यापार नहीं होता था पानी से सम्बन्धित अमृतलाल वेगड़ की एक बहुत ही सुन्दर कविता ‘इंडिया वाटर पोर्टल’ पर इस लेखिका ने पढ़ी थी। उसके कुछ अंश यों उद्धृत किए जा सकते हैं-

पानी जब समुद्र से आता है, तब बादल
और जाता है तो नदी कहलाता है
बादल उड़ती नदी है/ नदी बहता बादल
बादल से वर्षा होती है/ वर्षा इस धरती की शालभंजिका है
उसको पदाघात से धरती लहलहा उठती है
और जब वर्षा नहीं होती/ तब यही काम नदी करती है।


नदी को बहता बादल कहना अद्भुत प्रयोग है। नदियों का हमारे जीवन में कैसे-कैसे चले आना कभी दिखाकर तो कभी छिपकर इस बात को भारत के लोगों से अच्छा शायद कोई नहीं जानता। दुनिया की सारी सभ्यताएँ नदियों के तटों पर ही विकसित हुईं क्योंकि मीठा पानी इतनी आसानी से और हमेशा और कहीं से नहीं मिल सकता था। इसीलिए न केवल मनुष्य बल्कि पशु-पक्षी सब उसकी तरफ खिंचे चले आते हैं। कोई रात में आता है तो कोई दिन में। और नदी किनारे उगने वाले पेड़ो के तो कहने ही क्या! उनकी जड़ पानी की खोज में कहीं दूर दराज की यात्रा से परेशान नहीं होतीं।

हमारी सभ्यता और हमारी संस्कृति नदियों की ऋणी है जिनके कारण मानवता और धरती का विकास हो सका। नदियों, बादलों, मनुष्यों का सम्बन्ध युग-युगों से चला आ रहा है। बादलों को देखकर जैसे नदियाँ दूर से मुसकराती हैं कि अब सूखे और कम पानी के दिन गए। पक्षी नाचते हैं। गौरैया पंख फड़फड़ाकर अंगड़ाइयाँ लेती हैं। मोरों और कोयल के गान से वन गूँज उठते हैं।

मनुष्य भी कहाँ पीछे रहते हैं। अच्छी वर्षा माने बारहों महीने पानी की कोई कमी नहीं, खेत-खलिहान अन्न से भरे। खुशी ही खुशी हर ओर लोक गीतों और लोक नृत्यों के रंगारंग कार्यक्रमों में सराबोर धरती।

यदि पुरानों को पढ़, पुरानी कथाओं को देख तो पाएँगे कि बड़े-बड़े ऋषियों के आश्रम नदियों के किनारे होते थे। हमारे अधिकांश तीर्थ नदियों के किनारे आज भी हैं। किसी महत्त्वपूर्ण त्योहार या पर्व पर नदी स्नान की परम्परा पुरानी है। आज भी कुम्भ और अर्ध कुम्भ के अवसर पर लाखों लोग गंगा और अन्य नदियों में स्नान करते हैं। कुम्भ के अवसर पर नदियों के किनारे बिना किसी प्रचार-प्रसार के जो लक्खी भीड़ इकट्ठी होती है, उसे देखकर अक्सर विदेशी मीडिया और विदेशी सैलानी चकित रह जाते हैं। आखिर कौन-सा आकर्षण है, कौन-सा रिश्ता है जो लोग बिना किसी आमन्त्रण के नदियों की तरफ दौड़े चले आते हैं। उनके पानी से स्नान करके खुद को धन्य समझते हैं।

ग्रहण का चाहे कोई वैज्ञानिक आधार न हो मगर आज भी ग्रहण के दिन लोग नदियों में स्नान कर अपने पापों से मुक्ति की प्रार्थना करते हैं। तो और मृत्यु के बाद गंगा या किसी और नदी के किनारे अंतिम संस्कार करना आज भी बहुत अच्छा माना जाता है। यही नहीं अन्त में अस्थि विसर्जन भी नदियों के जल में ही किया जाता है। आमतौर पर लोग माँ की कसम खाते हैं, पिता, बच्चे भगवान और गंगा की कसम भी खाते हैं। गंगाजल उठाते हैं। एक नदी को इतना महत्त्व प्राप्त है कि कहा जाता है कि गंगा की कसम माता-पिता तथा अन्य कसमों से बड़ी होती है। एक बात और सोचने लायक है कि हमारे यहाँ हर बार-त्योहार नदियों को पूजने की परम्परा है। उन्हें ईश्वर का दर्जा प्राप्त है। शायद संसार के किसी अन्य देश में नदियों को इतना पवित्र और सम्मानीय दर्जा प्राप्त नहीं है।

अरुणाचल के पूर्व मुख्यमन्त्री मुकुट मिथी ने फरवरी 2001 में नदियों के बारे में एक अद्भुत बात कही थी- ब्रह्मपुत्र दर्शन की प्रेरणा उन्हें सिन्धु दर्शन अभियान से मिली। सन 2000 में सिन्धु दर्शन अभियान के तहत् लद्दाख गए थे तब सिन्धु का पूजन किया था। ब्रह्मपुत्र का जल भी उसमें डाला था। सिन्धु और ब्रह्मपुत्र दोनों हिमालय के नद हैं। ब्रह्मपुत्र की विशालता ही उसकी विशेषता है। वैसे यह भी सोचने की बात है कि मात्र ये दो नदियाँ ही नद हैं यानी कि पुल्लिंग, बाकी सारी नदियाँ स्त्रीलिंग हैं। देवी और मातृशक्ति की पहचान हैं। यही नहीं गंगा की आरती देखने के लिए आज भी शाम के समय हरिद्वार, वाराणसी आदि स्थानों पर बड़ी संख्या में लोग इकट्ठे होते हैं। यह दृश्य अनोखा होता है। दीपों की पानी में पड़ती परछाइयाँ जैसे पूरे नगर को आलोकित कर देती है।

. जिन नदियों को हम हर पल पूजते हैं, हमारे हर संस्कार में वे काम आती हैं, आखिर हमारी यह कौन-सी मानसिकता है कि एक ओर तो हम नदियों के बिना अपने जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकते। मगर दूसरी तरफ हमने अपनी इन नदियों को कूड़े-करकट के ढेर में बदल दिया है। जिन्हें माता कहते हैं, जिन्हें पवित्र मानकर अर्घ्य चढ़ाते हैं, उन्हीं के अंदर अपने घरों, उद्योगों की सारी गन्दगी प्रवाहित कर देते हैं। इस गन्दगी से जैसे नदियों की सांस रुकी जाती है। उनके पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम होती जा रही है। हमारी इसी लापरवाही का नतीजा है कि जिन नदियों का जल अमृत माना जाता था जिसके आचमन से हम खुद को पवित्र हुआ समझते थे वह आज पीने तो क्या जानवरों को नहलाने और सिंचाई के काबिल भी नहीं रहा। सरकारों को नदियों को प्रदूषण मुक्त करने की योजनाएँ बनानी पड़ रही हैं। गंगा की सफाई के लिए वर्तमान सरकार ने अलग से मन्त्रालय बनाया है और नमामि गंगा योजना शुरु की गई है। यमुना के लिए भी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की पहल पर मैली से निर्मल यमुना कार्यक्रम शुरु किया जा रहा है। हाँलाकि अब तक गंगा और यमुना सफाई योजनाओं पर अरबों रुपए खर्च हो चुके हैं। मगर अब भी इन नदियों के प्रदूषण स्तर में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। यह ठीक है कि सरकार नदियाँ साफ करने की सोचे मगर एक नागरिक की हैसियत से हम अपनी जिम्मेदारियों से भी नहीं बच सकते। कायदे से तो हर व्यक्ति को अपने आस-पास की नदियों के बारे में यह प्रण करना चाहिए कि ना तो वे खुद नदियों को गन्दा करेंगे, न उसमें गन्दगी फेकेंगे बल्कि दूसरों को भी इस बारे में जागरुक करेंगे। और सिर्फ नदियाँ हीं क्यों पानी के जो भी स्रोत हैं जैसे कि झील, पोखर, तालाब, झरने, कुएँ सब की सफाई के बारे में सोचेंगे। अगर हर व्यक्ति यह तय कर ले तो सच मानिए न तो नदियाँ गन्दी होंगी, न कभी पानी की कमी होगी।

यह कितने दुख की बात है कि एक ओर हमारे देश में इतनी नदियाँ हैं, दूसरी तरफ जनसंख्या के बड़े हिस्से को साफ पीने का पानी तक उपलब्ध नहीं है। दूषित पानी पीने के कारण बड़ी संख्या में लोग हर साल काल के गाल में समा जाते हैं। पानी जनित बीमारियों से लाखों बच्चे हर साल मर जाते हैं। इसके अलावा हर साल कहीं भारी बारिश के कारण बाढ़ आती है। सर्वनाश होता है। अकूत जन-धन की हानि होती है तो कहीं पानी की एक बूँद नहीं पड़ती और लोग सूखे से त्राहि-त्राहि करते है। पानी के अभाव में सूखे पड़े खेत, तालाब, पोखर, कुएँ और नदियाँ भी अपनी विपदा की कहानी खुद कहते हैं। शायद इसी बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने देश की नदियों को जोड़ने की योजना बनाई है जिससे कि बाढ़ के समय अधिक पानी के कारण बाढ़ न आए। पानी दूसरी नदियों में चला जाए और सूखे से भी निपटा जा सके। सिंचाई के अच्छे साधन विकसित हो सके। और प्रचुर मात्रा में बिजली भी मिल सके। हाँलाकि पर्यावरणविद् नदियों को आपस में जोड़ने की योजना का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि हर नदी का इकोसिस्टम अलग है। इनमें अलग-अलग प्रजाति के जीव जन्तु भी पाये जाते हैं। जैसे नदियों के पानी की अलग-अलग विशेषताओं के कारण, अलग-अलग नदियों में विकसित होते हैं। जैसे कि गंगा में महाशीर या डॉल्फिन पाई जाती है तो चम्बल में घड़ियाल मिलते हैं।

एक नदी का पानी दूसरी में मिलेगा तो यह पानी के लिए भी अच्छा नहीं है क्योंकि हर नदी में प्रदूषण का स्तर अलग-अलग है। हर नदी प्राकृतिक रूप से भी अलग है। नदियों को जोड़ने की शुरुआत की बात पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेई के कार्यकाल में शुरु की गई थी। इसे ‘अमृतक्रान्ति’ का नाम दिया गया था। बाद में मनमोहन सिंह की सरकार ने इसे जारी रखा था और सर्वेक्षणों पर 50 करोड़ रुपए से अधिक खर्च भी किए थे लेकिन 2009 में तत्कालीन पर्यावरण मन्त्री जयराम रमेश ने इसे बन्द कर दिया था। उनका कहना था कि इसके आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिकीय परिणाम अच्छे नहीं होंगे लेकिन अब नई सरकार ने इसे फिर से चालू किया है। प्रधानमन्त्री के कहने पर जल संसाधन एवं विकास मन्त्रालय नदियों को जोड़ने की योजना से स्थानीय लोगों को जागरुक करने की पहल भी कर रहा है। मन्त्रालय ऐसी नदियों को पहले जोड़ेगा जो एक ही राज्य में बहती हैं। इस योजना के जो भी फायदे हों मगर पर्यावरणविदों की चिन्ता पर भी ध्यान देने की जरुरत है। कहीं ऐसा न हो कि जिस योजना को लोगों के फायदे के लिए शुरू किया जा रहा है, उससे लोगों का नुकसान हो। तरह-तरह की बीमारियों की चपेट में वे आ जाएँ, जैसाकि पानी के लिए काम करने वाले लोग चिन्ता जता रहे हैं। हाँलाकि सरकार यदि लोगों को किसी योजना से जोड़ रही है, तो यह एक अच्छी बात है। लोगों की भागीदारी के बिना कोई भी कार्यक्रम सफल नहीं हो सकता है।

नदियाँ तो लोगों से गहरे जुड़ी हैं। जल्दी से जल्दी उन्हें इस ओर ध्यान देना ही होगा। लाखों टन पूजन सामग्री जिस तरह से नदियों में प्रवाहित की जाती है अगर उसे लोग फेंकना बन्द कर दें तो नदियों के पानी को बहुत हद तक खराब होने से बचाया जा सकता है। इस पूजन सामग्री को अगर एक जगह इकट्ठा किया जाए तो न तो कूड़ा फैलेगा बल्कि उपयोगी खाद भी मिलेगी। यही नहीं बहुत से उत्सवों के अवसर पर भारी मात्रा में मूर्तियों का विसर्जन नदियों में किया जाता है। इनसे भी नदियों के पानी में जहरीले तत्व जाते हैं लेकिन इन सब बातों को रोक लगा कर नहीं रोका जा सकता। लोगों को खुद ही निर्णय लेने होंगे और उन्हें अपने-आप लागू करना होगा। एक जमाने में लंदन की टेम्स नदी की हालत अपनी यमुना से भी बुरी थी लेकिन सरकारी प्रयासों और लोगों की जागरुकता ने आज उसे बेहद साफ-सुथरी नदी बना दिया है। गुजरात की साबरमती के बारे में भी यही कहा जाता है। यानि कि अगर हम तय कर लें तो दुनिया में ऐसा कोई काम नहीं जो न हो सके।

नदियो में जल मार्ग बनाने की योजना पर भी विचार हो रहा है। आजकल भी जो मोटर-बोट गंगा और अन्य नदियों में चलती हैं इनसे तेल की परत पानी में फेलती है जो पानी को बुरी तरह से प्रदूषित करती है। कहीं ऐसा न हो कि जल-मार्ग नदियों के पानी को और अधिक खराब कर दे और जलीय जीव-जन्तुओं पर भी इसका असर पड़े। जल विश्व दिवस दुनिया भर में 22 मार्च को मनाया जाता है। क्यों न हम हर दिन को जल दिवस बना दें क्योंकि पानी की जरुरत तो हमें हर रोज होती है। पानी की चिन्ता करेंगे तो वह हमारी चिन्ता करेगा। नदी साफ सुथरी होगी तो न केवल हमारे लिए बल्कि आने वाली पीढ़ियों की भी आवश्यक जरुरत पूरी होंगी। न जाने कितने रोगों से मुक्त होंगे। हरियाली के रुप में देश की सम्पन्नता और आर्थिक स्थिति सुधरेगी। लोगों का जीवन स्तर सुधरेगा। हो सकता है कि पानी खरीदने से मुक्ति मिल जाए।

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