दीवाली के बहुत दिन पहले से यह बताया जाता है कि इस बार हवा की गुणवत्ता कितनी खराब होने वाली है। इस बार प्रदूषण और हवा में फैली धुएँ की चादर कितनी खतरनाक स्तर पर है। विशेषज्ञ बताते रहे हैं कि प्रदूषण किन कारणों से बढ़ रहा है।
इमारतों के निर्माण से हवा में धूल फैली है। इसलिये निर्माण पर कुछ दिनों के लिये दीवाली से पहले रोक भी लगा दी गई थी। यह भी बताया गया कि अरावली की इकतीस पहाड़ियाँ गायब हो गईं। उससे राजस्थान से आने वाले धुल भरे तूफानों ने भी यहाँ का प्रदूषण बढ़ाया है। पहले ये पहाड़ियाँ धूल भरी आँधियों को रोक लेती थीं।
दिल्ली और एनसीआर के आस-पास खेतों में पराली जलाने से धुआँ और अधिक खतरनाक हुआ है हालांकि ध्यान से देखें तो वायु प्रदूषण का बड़ा कारण तरह-तरह के वाहनों से निकलने वाला पेट्रोल और डीजल का धुआँ है। लेकिन इन पर शायद ही कोई बात होती है। गाहे-बगाहे प्रदूषण की तरफ लोगों का ध्यान खींचने के लिये साइकिल दौड़ आयोजित की जाती है। कोई-कोई बैलगाड़ी और घोड़े की सवारी करता दिखता है। लेकिन ये बातें चकित तो कर सकती हैं। एक दिन के लिये खबर बनकर लोगों का ध्यान भी खींचती है, मगर इससे समस्या का कोई हल नहीं होता।
इस बार दिल्ली के मुकाबले एनसीआर ज्यादा प्रदूषित रहा है। इसके अलावा वायु की गुणवत्ता के सर्वेक्षणों में यह बात भी सामने आई है कि लखनऊ, कानपुर, पटना जैसे शहर भी भारी प्रदूषण की चपेट में हैं। कल तक महानगर जिस आफत से परेशान थे और तरह-तरह के उपायों से जहरीले वायु प्रदूषण से मुक्ति पाना चाहते थे, वह जहर जैसे भारत के उन इलाकों में भी जा पहुँचा है जहाँ कुछ साल पहले तक इतनी बुरी हालत नहीं थी।
दिल्ली में कहा जा रहा है कि दस साल और पन्द्रह साल पुरानी गाड़ियों को सड़क से हटा देना चाहिए। हटाना भी पड़ेगा। लेकिन कभी आपने सोचा है कि ये पुरानी गाड़ियाँ, ट्रक, बसें कहाँ जाती हैं। ये दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई छोड़कर छोटे शहरों, कस्बों यहाँ तक कि गाँव तक में जा पहुँचती हैं। वहाँ धड़ल्ले से चलती हैं।
दिल्ली की सड़कों पर हर साल दो लाख से ज्यादा नई गाड़ियाँ आती हैं। इससे ट्रैफिक जाम तो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। रेड लाइट्स पर भारी संख्या में खड़े वाहन भी प्रदूषण को बढ़ाते हैं। जब ये गाड़ियाँ पन्द्रह साल पुरानी हो जाएँगी तो कौड़ियों के मोल बिकेंगी और बड़े आराम से छोटे शहरों तक पहुँचा दी जाएँगी। अब करते रहिए आप बढ़ते प्रदूषण, जहरीली हवा, उसके मनुष्यों से लेकर, फसलों और पशु-पक्षियों तक पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव के बारे में बहसें।
दीवाली के आते ही इन दिनों चिन्ता की रेखाएँ बढ़ जाती हैं। इस बार दीवाली पर उच्चतम न्यायालय ने आठ बजे से लेकर दस बजे तक पटाखे चलाने का समय निर्धारित किया था। कहीं न्यायालय पटाखों पर रोक न लगा दे इसलिये भारी मात्रा में लोगों ने पहले से ही पटाखे खरीदकर रख लिये। पिछले साल तो बाकायदा पटाखों को त्यौहार से जोड़कर अभियान चलाया गया था और इसे हिन्दू-मुसलमान भी बनाने की कोशिश की गई थी। पहली बार पता चला था कि पटाखों का भी कोई धर्म होता है। तब वायु प्रदूषण, उस प्रदूषण के कारण सांस से लेकर पक्षाघात तक होने वाली गम्भीर बीमारियाँ और वायु के साथ-साथ बड़े स्तर तक होने वाले ध्वनि प्रदूषण को भी भुला दिया गया था।
अक्सर सरकारों की आलोचना होती है कि वे किसी भी समस्या का समाधान नहीं खोजतीं। लेकिन सरकारों की आलोचना करने से पहले कभी-कभी हमें अपने क्रिया-कलापों के बारे में भी सोचना चाहिए। क्या सरकारें हमसे कहती हैं कि हम पटाखे जरूर जलाएँ और इतने जलाएँ की धुएँ और घुटन से जीना मुश्किल हो जाए। आखिर कोर्ट के डर से बड़ी संख्या में पटाखे खरीदने के लिये क्या सरकारों ने हमें प्रेरित किया था। अपनी गलती से बचने का और कभी न सुधरने का यह सबसे अच्छा तरीका होता है कि इसे सरकारों के जिम्मे डाल दिया जाए। प्रदूषण की मुश्किलों और इससे होने वाले रोग हम झेलते हैं। सरकारें नहीं। क्योंकि सरकारों के कोई चेहरे नहीं होते। फिर ज्यादा-से-ज्यादा पटाखे चलाना, अधिक-से-अधिक तेज रोशनी हो, जो आँखों की चौंधिया दे, ऐसे धमाके हों जिन्हें दूर तक सुना जा सके। ऐसे धमाके करने वाले हजारों पटाखों की लड़ियों को खरीदकर चलाना और दोस्तों के बीच रुतबा झाड़ना, अपनी तथाकथित अमीरी का प्रदर्शन करना भी क्या हमने सरकारों से सीखा है। अक्सर जब हमें अपने व्यवहार में कोई बदलाव नही करना होता है तो हम अपनी की गई गलती के लिये उंगली किसी और की तरफ उठाते हैं।
इस बार भी जब कई लोगों से यह कहा गया कि भाई दस बज गए अब तो बन्द करो तो वही जवाब था कि अरे हम क्या अकेले पटाखे जला रहे हैं। पहले दूसरों को बन्द कराइये तब हम बन्द कर देंगे। जब भी ऐसी बातें सुनती हूँ, दीवार फिल्म के वे संवाद याद आते हैं जिनमें डॉन बने अभिताभ बच्चन अपने पुलिस अफसर भाई शशि कपूर से कहते हैं कि भाई जाओ पहले उस आदमी के सिग्नेचर लेकर आओ जिसने मेरे हाथ पर लिख दिया था कि मेरा बाप चोर है। यही नहीं दूसरों के पटाखे शोरगुल कर रहे हैं तो हम क्यों रुकें, पहले आप पहले आप यानि कि पहले आप बन्द करें, जब तक ऐसा नहीं होता मन मर्जी क्यों न कर लें।
अब देता रहे उच्चतम न्यायालय फैसला, लोगों को जो करना होता है वही करते हैं। एक हद ऐसी भी है कि दूसरों की परेशानी किसी को दिखाई ही नहीं देती। परेशान लोग भी सोचते हैं कि चलो एक ही दिन की बात है, इसके लिये क्यों किसी से लड़ाई मोल लें। हालांकि पटाखे एक दिन की बात नहीं है। इनका चलना दशहरे से पहले शुरू हो जाता है और दीवाली के बीतने तक ये चलते रहते हैं।
तो क्या सचमुच इस मुसीबत का कोई इलाज नहीं। क्या हर बार शिकायतें होती रहेंगी मगर पटाखे, धुआँ, वायु और ध्वनि प्रदूषण को हम झेलने को मजबूर होंगे। रास्ते हमारे बीच से ही निकलेंगे। रोने-पीटने और खुद बचने के लिये दूसरों की निन्दा और आलोचना के मुकाबले ऐसा कोई हल निकले, जिससे कि राहत मिल सके। तभी बात बन सकती है। वरना तो सब एक-दूसरे को ही दोष देते रहेंगे और प्रदूषण बढ़ता रहेगा।
महिलाओं को उज्ज्वला योजना के जरिए गैस पहुँचाने के लिये सरकार ने सुविधा के अलावा यह तर्क भी दिया कि चूल्हा फूँकने से औरतों की आँखें खराब हो जाती थीं। उन्हें तरह-तरह के रोग हो जाते थे।
Source
राष्ट्रीय सहारा, 07 नवम्बर, 2018