निर्मल अभियान और लोग

Submitted by Shivendra on Fri, 09/05/2014 - 09:03
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जनसत्ता (रविवारी), 31 अगस्त 2014
शौचालय बनाकर जिस भारत को गंदी और बीमारी मुक्त बनाने की बात सोच रहे हैं, वह और गंदा, बदबू भरा और भयंकर रोगों से ग्रस्त होगा। पिछले दिनों एक चैनल ने लखनऊ के एक लड़कियों के स्कूल को दिखाया था। वहां के प्रधानचार्य ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा कि उनके यहां शौचालय तो हैं मगर क्या करें वह इनकी सफाई नहीं करवा पाते। क्योंकि एक बार की सफाई में चार सौ रुपए खर्च होते हैं। उतना फंड नहीं है। सोचिए कि यह लखनऊ शहर की बात है जहां मीडिया भी पहुंच सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के दिन लालकिले से अपने भाषण के दौरान घोषणा की कि हर स्कूल में लड़कियों के लिए शौचालय होना चाहिए। लड़कियों के स्कूल छोड़ देने का एक बड़ा कारण शौचालय का न होना है। लड़कियों के नजरिए से देखें तो यह चिंता वाजिब लगती है। बहुत सी लड़कियां, उनके अभिभावक और अध्यापिकाएं भी इस बात की शिकायत करते पाए जाते हैं।

हाल में, केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को सुझाव दिया है कि वे स्वच्छ भारत अभियान को जोर शोर से चलाने की तैयारी करें। इसके लिए जरूरी है कि वे अपने जल और स्वच्छता विभागों का विलय कर दें। केंद्र सरकार ने इस अभियान का लक्ष्य रखा है कि 2019 तक भारत को खुले में शौच जाने से मुक्त बनाना है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी घर में शौचालय होने के अभियान को संयुक्त राष्ट्र ने चलाया है। बल्कि वे लड़कियां जिन्होंने शौचालय के अभाव में शादी से मना किया या ससुराल छोड़ने का फैसला किया, उन्हें पुरस्कृत कर लड़कियों के लिए रोल मॉडल की तरह पेश किया गया।

इन दिनों भी पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय का ऐसा ही एक विज्ञापन आता है। जिसमें मशहूर अभिनेत्री विद्या बालन ग्रामीणों को शौचालय की महत्ता बताते दिखाई देती हैं। पिछले दिनों पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने एक टीवी कार्यक्रम में विद्या बालन की भूमिका वाले इस विज्ञापन का जिक्र किया था। उन्होंने इसकी उपयोगिता को भी माना था। इसमें भी एक लड़की शौचालय न होने के कारण अपने ससुराल नहीं जाना चाहती थी।

स्कूलों के अलावा घरों में शौचालय का न होना लड़कियों और स्त्रियों के लिए एक विकट समस्या रही है। पहले गांवों में औरतों मुंह अंधेरे और दिन ढले ही दैनिक क्रियाओं से निवृत होने जा पाती थीं। किसी खतरे की आशंका ही रही होगी कि वे समूहों में खेतों की तरफ निकलती थीं।

हालांकि यह भी सच है कि उनका इस तरह से अपनी सहेलियों के साथ घर से बाहर निकलना घर के रात दिन के कामों और समस्याओं से कुछ देर का ही सही छुटकारा भी था। फिर अपनी कहना और दूसरे की सुनने का अवसर भी यही होता था, वरना तो घर से बाहर निकलने के अवसर कम ही आते थे। असल मुसीबत तब आती थी जब किसी लड़की या औरत की तबियत खराब हो जाती थी और उसे दिन के वक्त शौच के लिए निकलना पड़ता।

गांव के ढकोसलों और घर की तथाकथित इज्जत के नाम पर औरतें इस तरह की तकलीफ को सहने को मजबूर होती थीं। वे किस मुसीबत में दिन गुजारती होंगी ये वे ही बता सकती हैं। आज भी बहुत से स्थानों पर ऐसी ही स्थिति है।

खुले में शौच जाना लड़कियों के लिए तरह-तरह की आफतें लेकर आता है। उनके प्रति अपराध करने वाले ऐसे ही अवसरों की तलाश में रहते हैं। बलात्कार की एक बड़ी वजह खुले में लड़कियों का शौच भी है। मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 2013-14 में 80.57 प्रतिशत लड़कियों के स्कूलों में उनके लिए अलग शौचालय थे। जबकि 2012-13 में यह संख्या 69 प्रतिशत थी। देश में प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर उन्नीस प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय नहीं हैं। पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय द्वारा चलाए जा रहे निर्मल भारत अभियान के तहत 2017 तक देश में खुले में शौच को खत्म करना है।

शौचालयों का न होना महिला की सामाजिक स्थिति का बयान भी है। अब से कुछ समय पहले तक दिल्ली के भीड़भाड़ वाले बाजारों तक में महिलाओं के लिए शौचालय नहीं थे। इसका कारण हमारे यहां प्रचलित यह धारणा रही है कि भले घर की लड़कियों औरतों का बाजार में क्या काम। बाजार माने पैसा, खरीददारी। पैसा, खरीददारी का मतलब पुरूष खैर, अब धीरे-धीरे हालात बदले हैं। सुलभ संगठन ने इस ओर पहल की है।

लखनऊ की एक महिला पत्रकार ने अपने कार्यालय में शौचालय की सुविधा न होने और पुरुष शौचालय के इस्तेमाल में होने वाली शर्मिंदगी के कारण इस्तीफा दे दिया था। देश के बहुत से प्रदेशों के सरकारी दफतरों में भी यही हाल है। वहां महिलाओं की इस समस्या को संजीदगी से नहीं लिया जाता और महिलाएं अगर इस मसले की शिकायत करें। तो उसे मजाक में उड़ा दिया जाता है। यहां तक कि बहुत सी जगह महिला अधिकारी भी बार-बार कहने पर भी महिलाओं की इन समस्याओं पर ध्यान नहीं देती हैं।

घर-घर अगर शौचालय हों तो रोग कम फैलेंगे। भारत में सफाई बढ़ेगी। अभी तक लोग इस बात पर काफी नाक भौं सिकोड़ते हैं कि यहां आने वालों पर क्या असर पड़ता होगा, जब सवेरे-सवेरे लोग गाड़ी की खिड़कियों से झांकते हैं और लोग रेलवे लाइनों के आसपास बैठे नजर आते हैं। यह एक तरह से उनकी लाचारी ही है।

गांव में अगर शौचालय बन गए मगर उनकी सफाई न हुई, पानी न मिला, हाथ धोने के लिए पानी की अलग से व्यवस्था न की गई तो क्या होगा। गांवों में बाहर लगे हैंडपंप से पानी ले जाना पड़ता है। बहुत से स्कूलों में यह सुविधा भी नहीं है। इसलिए अगर शौचालय हैं भी तो उनका कोई उपयोग नहीं है। पानी की कमी के कारण देश में त्राहि-त्राहि मची हुई है। आज के शौचालयों को साफ रखने के लिए अधिक पानी की जरूरत है। और पानी है नहीं।

हमारे यहां चलन है कि गंदगी हम करें, साफ कोई और करे शौचालय भर बन जाने से गंदगी दूर नहीं होती। होता यह है कि गांव की कच्ची नालियों में भारी मात्रा में मलमूत्र बहता है, जिससे मक्खी-मच्छर, बदबू, गंदगी और प्रदूषण होता है। पश्चिमी देशों की तर्ज पर अगर हम कोई नारा लगा रहे हैं तो क्या उस तरह का बुनियादी ढांचा भी बना पा रहे हैं। गांवों में सीवेज के निस्तारण की क्या व्यवस्था होगी, इसकी क्या योजना है, यह कोई नहीं बताता। नालियां गंदगी को जहां बहा कर ले जाएंगी, वह वहां से कहां जाएंगी। कैसे उसका निपटान होगा।

क्या गंदगी के निपटान की ऐसी कोई व्यवस्था की जाएगी कि उससे खाद बन सके। गैस बनाईं जा सके। अन्य उपयोग किए जा सके। वरना शौचालय बनाकर जिस भारत को गंदी और बीमारी मुक्त बनाने की बात सोच रहे हैं, वह और गंदा, बदबू भरा और भयंकर रोगों से ग्रस्त होगा। पिछले दिनों एक चैनल ने लखनऊ के एक लड़कियों के स्कूल को दिखाया था। वहां के प्रधानचार्य ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा कि उनके यहां शौचालय तो हैं मगर क्या करें वह इनकी सफाई नहीं करवा पाते। क्योंकि एक बार की सफाई में चार सौ रुपए खर्च होते हैं। उतना फंड नहीं है।

सोचिए कि यह लखनऊ शहर की बात है जहां मीडिया भी पहुंच सकता है। जब एक प्रदेश की राजधानी के एक स्कूल की सफाई के लिए सरकार धन मुहैया नहीं करा पाती तो लाखों गांवों के करोड़ों घरों और स्कूलों के शौचालयों की सफाई की व्यवस्था कैसे होगी। अगर सफाई और गंदगी के निपटान की योजना बनाए बिना शौचालय बना दिए गए तो स्थिति की गंभीरता की कल्पना सहज ही की जा सकती है।

एक और बात जिसका जवाब हम सबको देना है। हमारे अपने अंदर भी सफाई का कोई सोच विकसित नहीं है। जहां भी जन सुविधाएं बनाई जाती हैं वहां के हालात देखिए। कोई अपनी फैलाई गंदगी को साफ करना जरूरी नहीं समझता। पानी अगर है भी तो पानी डालना भी जरूरी नहीं समझा जाता। इसीलिए रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, अस्पताल आदि स्थानों के शौचालयों की दुर्गति देखते ही बनती है। सिर्फ शौचालय ही नहीं सड़कों, पार्कों, स्टेशन रेलवे, तालाबों झीलों नदियों में भी कूड़ा फैलाने से बाज नहीं आते हैं। वैसे तो कूड़ेदान होते ही नहीं, अगर हैं भी तो कौन जाए कूड़ेदान तक, इधर खाओ, उधर फेंको जगह चाहे जो भी हो।

इसलिए हमें अपने अंदर भी सफाई के लिए जागरुकता पैदा करनी होगी। अपनी ही सुविधा की इतनी बेकदरी शायद अपने ही देश में संभव है। इसके लिए हम सब जिम्मेदार हैं। गांधी जी अपना शौचालय खुद साफ कते थे। इस बात को हम बार-बार सुनते तो हैं मगर गुनते नहीं। मंच पर गांधीजी को याद करने वाले हम अपने ऊपर बात आते ही एकदम से सब कुछ भूल जाते हैं। लड़कियों के स्कूल में शौचालय बनें, गांव-गांव घर-घर यह सुविधा मिले यह अच्छा होगा। हमारा देश साफ सुथरा रहे इसमें हमें अपनी भूमिका भी तय करनी चाहिए तभी निर्मल भारत अभियान सफल हो सकता है।

ईमेल-kshamasharma1@gmail.com