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काव्य संचय- (कविता नदी)
ओ नदी!
सूखे किनारों के कटीले बाहुओं से डर गई तू।
किंतु, दाई कौन?
तू होती अगर,
यह रेत, ये पत्थर, सभी रसपूर्ण होते।
कौंधती रशना कमर में मछलियों की।
नागफनियों के न उगते झाड़,
तट पर दूब होती, फूल होते।
देखतीं निज रूप जल में नारियां।
पांव मल-मल घाट पर लक्तक बहाकर
तैरती तुझमें उतर सुकुमारियां।
किलकते फिरते तटों पर फूल-से बच्चे।
वहन करती अछूते अंकुरों के स्वप्न का संभार
कागज की जरा-सी डोंगियां तिरतीं लहर पर।
और हिल-डुलकर वहीं फिर डूब जातीं।
तीर पर उठतीं किलक किलकारियां,
नाचते बच्चे बजाकर तालियां।
द्वीप पर नौसार्थ, मानो, आ गया हो,
स्वप्न था भेजा जिसे, मानो, उसे वह पा गया हो।
द्रोणियों पर दीप तिरते रात के पहले पहर में।
हेम की आभामयी लड़ियां हृदय पर जगमगातीं,
जगमगाते गीत हैं जैसे समय की धार पर।
किंतु, अब सब झूठ, तारे तो गगन में है,
मगर, पानी कहां जिसमें जरा वे झिलमिलाएं?
तू गई, जादू जहर का चल गया।
कूल का सौंदर्य सारा जल गया।
और जीवित-सी खड़ी तू मुस्कराती है अभी भी!
फूल जब मुरझा रहे थे, क्यों तुझे मूर्च्छा न आई?
क्यों नहीं, हरियालियां मरने लगीं, तब मर गई तू?
ओ नदी!
सूखे किनारों के कटीले बाहुओं से डर गई तू।
सूखे किनारों के कटीले बाहुओं से डर गई तू।
किंतु, दाई कौन?
तू होती अगर,
यह रेत, ये पत्थर, सभी रसपूर्ण होते।
कौंधती रशना कमर में मछलियों की।
नागफनियों के न उगते झाड़,
तट पर दूब होती, फूल होते।
देखतीं निज रूप जल में नारियां।
पांव मल-मल घाट पर लक्तक बहाकर
तैरती तुझमें उतर सुकुमारियां।
किलकते फिरते तटों पर फूल-से बच्चे।
वहन करती अछूते अंकुरों के स्वप्न का संभार
कागज की जरा-सी डोंगियां तिरतीं लहर पर।
और हिल-डुलकर वहीं फिर डूब जातीं।
तीर पर उठतीं किलक किलकारियां,
नाचते बच्चे बजाकर तालियां।
द्वीप पर नौसार्थ, मानो, आ गया हो,
स्वप्न था भेजा जिसे, मानो, उसे वह पा गया हो।
द्रोणियों पर दीप तिरते रात के पहले पहर में।
हेम की आभामयी लड़ियां हृदय पर जगमगातीं,
जगमगाते गीत हैं जैसे समय की धार पर।
किंतु, अब सब झूठ, तारे तो गगन में है,
मगर, पानी कहां जिसमें जरा वे झिलमिलाएं?
तू गई, जादू जहर का चल गया।
कूल का सौंदर्य सारा जल गया।
और जीवित-सी खड़ी तू मुस्कराती है अभी भी!
फूल जब मुरझा रहे थे, क्यों तुझे मूर्च्छा न आई?
क्यों नहीं, हरियालियां मरने लगीं, तब मर गई तू?
ओ नदी!
सूखे किनारों के कटीले बाहुओं से डर गई तू।