पानी का हिसाब-किताब

Submitted by admin on Thu, 10/01/2009 - 08:17
Source
सचिन कुमार जैन / sachinwriteson blog
शिवपुरी की छर्च पंचायत की सत्तर साल की विधवा पांचोनाय कुशवाहा के लिये जीवन के बचे हुये दिन किसी औपचारिकता से अधिक नहीं है। वह किसी जनकल्याणकारी योजना की पात्र नहीं है। आज वह सरकार द्वारा चलाये जा रहे राहत कार्य के अन्तर्गत पानी रोकने वाली संरचना पर कठिन शारीरिक श्रम कर रही हैं। दिन भर तपती धूप में काम करने के बाद शाम को यदि उसने 100 क्यूबिक फिट की खंती बनाई होगी तभी उसे मिलेगी न्यूनतम मजदूरी वर्ना अगले दिन यह काम पूरा करना होगा। पांचोनाय को फिर भी किसी से कोई शिकायत नहीं है, बस वह चाहती है कि यहां छांव तो मिल नहीं सकती, अगर पीने को पानी ही मिल जाये तो अच्छा है यह जानकर उसे आश्चर्य होता है कि फैमाईन कोड के अनुसार राहत कार्य स्थल पर मजदूरों के लिये छाया-पानी दोनों की व्यवस्था होना चाहिए। फिर वह कहती हैं सरकार भी पानी कहां से लायेगी, अब न तो आसमान में पानी है, न जमीन में और सरकार की कागजी योजनायें तो पानी पैदा नहीं कर सकती हैं न। सयानी-पांचोनाय कुशवाहा के साथ यह संवाद सच्चाई की कई और परतें खोलता है।

योजनायें बनती हैं और असफल हो जाती हैं जिनकी परिणति पांचोनाय के रूप में हमारे सामने आकर होती है। किसी न किसी विशाल लक्ष्य को लेकर सामाजिक-राजनैतिक आंदोलन खड़े होते हैं। परन्तु चौंकाने वाली बात यह हे कि बीते साढ़े पांच दशकों में हमने कभी भी अपने तमाम गांवों की क्षमता और अर्थव्यवस्था का आकलन करने की कोशिश नहीं की। हमारे गांव की खद्यान्न सम्बन्धी जरूरतें क्या हैं, कितना उत्पादन हम करते हैं, कमी की स्थिति में जरूरत कैसे पूरी की जाती है, क्या वह तरीके ठीक है, अधिक उत्पादन का उपयोग किस तरह और कितनी सार्थकता के साथ किया जा रहा है, गांव में स्थानीय स्तर पर रोजगार की स्थिति और संभावनायें क्या हैं और गांव के कमजोर लोगों को किस तरह सशक्त बनाया जा सकता है, इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए न तो सरकार ने कोई प्रयास किये न सामुदायिक पंचायतों नें। जब इन जानकारियों से ही हमारा कोई नाता नहीं है तो आत्मनिर्भरता और स्वावलम्बन के लक्ष्य कैसे तय किये जा सकते हैं?

इसी तरह पानी, जिसने समस्या से बढ़कर संकट का रूप नहीं लिया, बल्कि अब अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगाने की स्थिति में ला दिया गया है। सूखा, अकाल या बाढ़, ये तीनों समस्यायें पर्यावरण से सम्बन्धित नहीं हैं, बल्कि इंसानी समाज ने अपनी लालच का शिकार बनाकर उसका अपमान किया है, जंगल, पहाड़, जमीन, मिट्टी सब कुछ स्वार्थ के खातिर रौदे-चिचोड़े गये तब जाकर पानी समाज का दामन छोड़ने की स्थिति में आया है। इस सिद्धान्त को कभी नहीं अपनाया गया कि प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिये होना चाहिये, उनका शोषण हमारे अपने विनाश को आमंत्रण देगा। परन्तु उद्योगों ने नदियों से साफ पानी लिया और उन्हीं नदियों में जहरीला पानी छोड़ दिया, कृषि के मामले में आर्थिक लाभ कमाने के लिये सोयाबीन, कपास और गन्ने जैसी फसलों में 300 फीसदी की वृध्दि हुई, इन फसलों के लेने के लिए गेहूं, चना या अन्य खाद्यान्न फसलों से 15 गुना अधिक पानी लगता है। परिणाम यह हुआ कि भूजल स्तर में भी निरन्तर गिरावट आती रही। पानी के मामले में भी कभी यह आकलन नहीं किया गया कि हमारे गांव में पानी की उपलब्धता, जरूरत और उपयोग की क्या स्थिति है, पीने और अन्य उपयोग के लिये कितनी मात्रा में पानी की जरूरत है, अब से पांच वर्ष पूर्व इस सिद्धान्त से तो कोई वाकिफ ही नहीं था कि प्रकृति से हम जितना पानी लेते हैं उतना ही पानी लौटाना समाज की जिम्मेदारी भी है। यदि हम इस जिम्मेदारी को नहीं निभायेंगे तो प्रकृति भी अपने दायित्व से पीछे हटेगी और सूखे-अकाल के रूप में अपना हिस्सा वापस ले लेगी।

नये सन्दर्भों में समुदाय और सरकार पानी बचाने की पहल तो कर रही हैं परन्तु सिर्फ अपनी जरूरतें पूरी हो सकें, यही लक्ष्य है। एक ओर तो पानी रोकने वाली संरचनायें बनाकर भू-जल स्तर बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है तो वहीं दूसरी ओर स्वजलधारा जैसी विनाशकारी योजना तेजी से क्रियान्वित की जा रही है। यह योजना बहुआयामी सामाजिक संकट के बीज बो रही है। स्वजलधारा योजना के यहां गहरे बोर किये जा रहे हैं और ज्यादा पानी लेने के उद्देश्य से बाद में बोर करवाने ग्रामीण ज्यादा गहरे उतरते जा रहे हैं जिससे पहले वाले बोर में पानी उतरता जा रहा है और लोगों के बीच टकराव की स्थिति निर्मित हो रही है। क्या इसी तरह सरकार जल संकट से निपटने का लक्ष्य तय कर रही है? चूंकि समुदाय भी पानी के प्रति ईमानदार नहीं है इसलिये सरकारी सहायता के लालच में वह स्वजलधारा का हितग्राही (वास्तविकता में अहितग्राही) बन रहा है।

नीति के स्तर पर राष्ट्रीय सरकार जल स्रोतों को अपने नियंत्रण में ले रही है फिर गंगा, नर्मदा और कावेरी नदी को ठीक उसी तरह बेचा जायेगा जिस तरह विनिवेश मंत्रालय (राष्ट्रीय सम्पत्ति विक्रय केन्द्र) सरकार के नियंत्रण वाले उद्योगों-कम्पनियों को बैंगन के भाव में बेच रहा है। सरकार के उस कदम पर कोई उंगली भी नहीं उठा सकेगा क्योंकि सरकार को अपनी सम्पत्ति बेचने का अधिकार होता है। सरकार ने एक सिरे से जल स्रोतों पर समाज के हक को नकार ही दिया है। समाज अब भी निष्क्रिय है। नीति का यह स्वरूप और समाज का व्यवहार दोनों ही पानी के संरक्षण में दूरगामी लक्ष्य को स्पष्ट नहीं करते हैं। वे चाहते हैं कि आज के समाज की जरूरतें पूरी होना चाहिए, भावी पीढ़ी के प्रति हमारा कोई उत्तारदायित्व नहीं है।

इसी कड़ी में अब नदियों को जोड़ने का निहायत ही गैर-जिम्मेदाराना प्रयास शुरू हुआ है। पांच लाख साठ हजार करोड़ रूपये की लागत वाली यह योजना दो गांवों, दो जिलों, दो राज्यों, दो देशों के बीच हिंसक टकराव के लिये उपजाऊ भूमि तैयार करेगी। जब एक के अधिकार क्षेत्र का पानी किसी अन्य को दिया जायेगा तो ऐसा होना अवश्यंभावी है। भारत-बांगलदेश के बीच ब्रम्हपुत्र नदी और कर्नाटक-आंध्रप्रदेश के बीच कावेरी नदी के विवाद को इस विचार को कैसे प्रोत्साहन प्रदान कर रही है, यह समझ से परे है।

पानी के सम्बन्ध में सरकार का रवैया आमतौर पर उदासीन और अव्यावहारिक रहा है। पूर्व में भारत में पानी के कुल उपयोग का 85 फीसदी हिस्सा सिंचाई के लिये उपयोग में लाया जाता रहा है। अत: सिंचाई के साधनों को विकसित करने में लिये 1951 से 1985 तक सरकार ने मध्यम और वृहद स्तरीय सिंचाई परियोजनाओं पर 60000 करोड़ रूपये खर्च किये और फिर 1985 से 2000 तक 13 हजार करोड़ यानी लगभग 28 हजार करोड़ रूपये। जबकि पानी के संरक्षण और पर्यावरण के विकास के लिये पहले दौर में 2723 करोड़ रूपये ही लगाये गये यानी पानी के उपयोग के लिये तो ज्यादा प्रयास हुये पर पानी बचाकर संरक्षित कैसे किया जाये इसकी कोई पहल ही नहीं की गई। ऐसे ही कई कारणों से जलविहीन बसाहटों की संख्या 1950 में 900 से बढ़कर सन 2002 में 90 हजार तक पहुंच गई हैं जहां अब एक से पांच किलोमीटर के दायरे में पानी उपलब्ध नहीं है। पहले की तुलना में भूजल स्तर 15 मीटर नीचे उतर चुका है यह स्थिति प्रकृति और व्यवस्था के प्रति गैर जिम्मेदार व्यवहार का परिणाम है।

अनुसंधान, प्रयोग और उपभोग को व्यवहार में प्राथमिकता देते हुये हम यह भूल गये कि पानी का निर्माण किया जाना संभव नहीं है और जब पानी का अभाव होगा तब पेयजल के साथ-साथ खाद्यान्न उत्पादन की सीमायें भी तय होती जायेंगी, जिसका सामना अब हम कर भी रहे हैं। ऐसी अवस्था में अब जरूरत है कि सरकार पर अपनी निर्भरता कम करते हुये समाज जन आंदोलनों के जरिये अपनी सक्रियता बढ़ाये और सरकार के प्रभुत्व के दायरे सीमित करते हुये प्राकृतिक संसाधनों के प्रति स्वयं जिम्मेदार हो।

जब संकट अपने चरम पर पहुंच जाता है तब संगठन अधिकार की बात करने लगते है। सरकार जन सहभागिता का नारा बुलंद करती है और न्यायपालिका सक्रियता के साथ लगाम कसने की जिम्मेदारी निभाने लगती है परन्तु संकट को गंभीर बनाते समय इनमें से कोई भी अपनी बुनियादी जिम्मेदारी निभाने के लिए तत्पर नहीं दिखता बल्कि अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए गैर-जिम्मेदार व्यवहार करते नजर आते हैं। पिछले पचास वर्षों में जंगल साफ करके ज्यादा पानी वाली व्यापारिक एवं नकद फसलों को बढ़ावा देकर समुदाय ने धरती के पेट को सुखा दिया, नदियों को उद्योग ने खरीदना और सरकार ने बेचना शुरू कर दिया। न्यायपालिका का आदेश है कि देश की सभी नदियों को जोड़ दिया जाये ताकि सुखाई जा चुकी नदियों को लबालब देखने का स्वप्न रातों-रात पूरा किया जा सके और सरकार नीति बनाकर जल संसाधनों को राष्ट्रीय (यानी सरकारी) सम्पत्ति बनाने की कोशिश कर रही है। ये सभी पानी के महत्व से अपने मन्तव्य को पूरा करना चाहते हैं। पर इस सबमें एक समानता तो है कि हर कोई अपनी बात के पक्ष में पानी के संकट का तर्क और उसके हल का दावा पेश कर रहा है।

हजारों साल के इतिहास में समाज ने समय-समय पर सूखे का सामना किया है पर जंगल की सम्पन्नता और मिट्टी की नमी से वह संकट के काल को आसानी से गुजार जाते थे। अब जंगल और नमीं दोनों ही नहीं बची है। इस सिद्धान्त को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया है। प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग मानवीय जरूरतों की पूर्ति तक सीमित रहना चाहिए, यह लालच की पूर्ति का साधन नहीं बनाना चाहिए। परन्तु विकास प्राथमिकतायें बदलने के साथ-साथ लोगों का व्यवहार भी बदला और समाज प्राकृतिक संसाधनों के शोषण में जुट गया राजनैतिक स्वार्थों में बंधे होने के कारण सरकार भी इस शोषण को बढ़ावा देती रही।

यह माना जाने लगा है कि पानी के संकट से निपटने के लिये असामान्य प्रयासों की जरूरत है क्योंकि स्थितियां ऐसी नहीं रही हैं कि प्राकृतिक रूप से यह समस्या हल हो सके। औद्योगिकीकरण और प्राकृतिक संसाधनों की अर्थनीति के कारण जंगलों का पहले व्यापक पैमाने पर विनाश हुआ, फिर असीमित लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से कृषक समुदाय उद्योग और आम उपभोक्ता ने जल संसाधनों का बेतरतीब शोषण किया। इतना ही नहीं तकनीकी रूप से उन्नत पारम्परिक जल व्यवस्थाओं का भी विनाश कर दिया गया। ऐसी अवस्था में पानी की कमी से निपटने के सहज विकल्प तो समाप्त हो ही गये, साथ में खाद्य असुरक्षा का अकल्पनीय संकट और पैदा हो गया। लोग विकास करते हुये भूख और प्यास से मरने की कगार पर आ गये हैं। अब दौर ऐसा है जिसमें हर स्तर पर पहले से आठ गुना ज्यादा पानी की आवश्यकता है इसलिए इसमें व्यापारिक नजरिया भी सक्रिय हो गया है।

सरकार केवल पानी का ही नहीं बल्कि पानी के स्रोतों का भी निजीकरण करे यानी संभव है कि गंगोत्री, यमुनोत्री पर भी किसी बड़े व्यापारिक घराने का जल्द ही नियंत्रण हो जाये। साथ ही ऐसा वातावरण बनाया जाये कि लोग स्वेच्छा से पानी की भारी कीमत चुकाने के लिए तैयार हो जायें। इस संदर्भ में देखा जाये तो वातावरण तो तैयार हो चुका है। पानी की कमी से जूझता समाज व्यापक पैमाने पर पानी की कीमत चुकाने के लिये तत्पर दिखाई पड़ता है। बशर्तें उसे 'जल सुविधा' मिल सके।

भोपाल में विगत दस वर्षों में पानी की आपूर्ति करने वाले निजी टेंकरों की संख्या 10 से बढ़कर 450 तक पहुंच गई है। विगत पांच वर्षों में जल वितरण के लिये जिम्मेदार नगर निकायों ने पानी की कीमत 30 रूपये से बढ़ाकर 300 रूपये तक कर दी है पर समाज ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्ति नहीं की। एक अध्ययन के आधार पर विश्व बैंक ने भी कहा कि भारत में लोग पानी की भारी कीमत चुकाने के लिय तैयार है पर सरकार ही अपने दायित्व निभाने में सक्षम नहीं है इसके बाद सरकार ने जिस रूप में राष्ट्रीय जलनीति पेश की उससे स्पष्ट हो गया कि वह जलस्रोतों को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करके उन पर अपना नियंत्रण सिद्ध कर रही है ताकि बाद में अपने अधिपत्य वाले जलस्रोतों को राष्ट्रीय कम्पनियों को बेच सके। सरकार ने पानी बेचकर एक वर्ष में 28 हजार करोड़ रूपये का राजस्व अर्जित करने का लक्ष्य भी निर्धारित कर लिया है स्वाभाविक रूप से यह बोझ आम आदमी को वहन करने के लिये तैयार होना होगा।

फिलहाल निजीकरण का एक और सिद्धान्त समझ लेना जरूरी है कि निजी क्षेत्र की रूचि सेवा के क्षेत्र में नहीं व्यापारिक लाभ में होती है। वे सेवा के एवज में शुल्क वसूल करते हैं और शुल्क न चुका पाने वाले समुदाय को नि:शुल्क पानी देना उनकी संवैधानिक बाध्यता होती है। ऐसी स्थिति में 30 करोड़ गरीब लोगों के लिये पानी भी एक दुर्लभ वस्तु बना जायेगा। जो स्थितियाँ हमारे सामने खड़ी कर दी गई हैं उनमें पीने, कृषि, रोजगार और उद्योगों की जल सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करने के लिए 40 हजार करोंड़ रूपये की जरूरत है जबकि अभी इस कार्य के लिये चार हजार करोड़ रूपये खर्च किये जा रहे हैं। अत: सरकार आर्थिक संसाधनों की कमी का तर्क देकर यह कार्य निजी क्षेत्र को सौंपने की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है। कहना न होगा कि पानी की कमी देश को कंगाली की हालत में लाकर खड़ा कर सकती है क्योंकि जलाभाव में अर्थ व्यवस्था के विकास की दर 3.5 फीसदी के आस-पास आकर अटक जायेगी और बजट घाटा बढ़ता जायेगा।वहीं दूसरी ओर भारत की सभी नदियों को जोड़ने की जो अव्यावहारिक योजना मूर्तरूप लेने जा रही है उसे कमजोर अर्थव्यवस्था पर 5.60 लाख करोड़ रूपये का अतिरिक्त बोझ तो पडेग़ा ही, बड़े बांध बनने से हजारों गांव-शहर उजाड़ने होंगे और बचे-खुचे जंगलों का विनाश भी करना पड़ेगा। इसके कारण सामाजिक और अन्तराष्ट्रीय टकराव के हालात भी पैदा होंगे जो कि हम कर्नाटक-तमिलनाडु और भारत-बांगलादेश के मामले में देख ही रहे हैं।

पानी के मसले पर समुदाय की भूमिका भी सवालों के दायरे में हैं और सबसे बड़ा सवाल यह है कि स्वावलम्बन और आत्मनिर्भरता की तलाश करते हुये हम इतने आगे निकल आये हैं परन्तु आज तक कभी अपने गांव की चौपाल पर बैठकर यह अध्ययन नहीं किया कि हमारी जल सम्बन्धी जरूरत कितनी है? किस काम के लिए है, कितना पानी हमारे पास उपलब्ध है और जितना पानी उपयोग में लाया जा रहा है उतना प्रकृति को लौटाया जा रहा है या नहीं, जल स्रोतों के रख-रखाव की जिम्मेदारी को किस तरह वहन किया जाये, यह जानने की कभी पहल नहीं की गई। इसलिये संकट जब अस्तित्व के लिये चुनौती बन गया तब ताबड़तोड़ सहभागिता, श्रमदान हुआ और कार्ययोजनायें बनने लगीं परन्तु केवल संरचनायें बनाने से जल संकट का हल नहीं खोजा जा सकेगा। निश्चित रूप से सबसे पहले इसके पूरे चरित्र को समझने की पहल करना होगी। अब भूमिकायें तय कर संघर्ष की रणनीति बनाना भी जरूरी है क्योंकि यह संकट अब अकेला नहीं है बल्कि बाजार और राजनीति का संरक्षण इसे नया रूप प्रदान करने में जुटा हुआ है।