पानी की रात

Submitted by admin on Fri, 10/18/2013 - 15:46
Source
काव्य संचय- (कविता नदी)
लोग जो अपनी चिंताओं से छूटने आए थे वहां
एक शाम उन सबने कहा
पानी बढ़ रहा है
नदी अपनी बगल में फैले जंगल जैसी
प्रलापों से भरी नींद जैसी नदी में
पेड़ों से गिरता अँधेरा बहता था
किनारे पर औरतें शोकगीत गाती खड़ी रहीं
बूढ़े खाँसते रहे तेज हवा में
नौजवानों के चेहरों पर कितनी धूल
कितने पैवंद लहूलुहान देहों पर
स्याह पानी भरता हुआ उनकी आत्मा के खोखल में

किस घाटी से आ रहा है यह अंधकार
वे चीखें
अपने ही रक्त में डूबे हुए
हमें कुछ भी दिखलाई नहीं देता
पीठ फेरकर जाते हुए स्वप्न भी नहीं
हमें दिखलाओ वे जगहें हम जिन्हें छोड़ आए हैं
हमें वे शब्द दो जिनके बीच कभी तो होगा
हमारा सूर्योदय

पत्थरों पर पानी सिर फोड़ता था
पानी के आदमियों जैसे हजार-हजार सर
और धुंध में जमता झाग
रात में चमकता हुआ।

1975