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जल चेतना तकनीकी पत्रिका, जुलाई 2012
संयुक्त राष्ट्र की संस्था भूमण्डलीय जल आँकलन द्वारा जारी शोध आख्या के अनुसार भविष्य में तेल के बजाय पानी के लिये युद्ध होंगे। यदि कृषि में स्वच्छ जल आवश्यकता से अधिक प्रयोग होता रहा तो सन 2020 तक स्वच्छ जल स्रोतों की दशा चिन्तनीय हो जायेगी। नदियों के पानी में मछली व अन्य जलचरों का शिकार होते रहने से समुद्री व नदीय जल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। जल का विकल्प न होने के कारण इसका दुरुपयोग रोकने तथा सदुपयोग की विधियाँ खोजनी होंगी।

इस प्रकार भारत में जलाभाव की समस्या तो नहीं है किन्तु जल प्रबन्धन का अभाव अवश्य है जिसके फलस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में भी स्थिति भयावह होती जा रही है और नगरों में शुद्ध पेयजल की उपलब्धता कठिन होने लगी है। देश में पेयजल की बिक्री का व्यवसाय भी तेजी से बढ़ रहा है। यदि जल का समुचित और योजनाबद्ध ढंग से उपयोग हो तो पेयजल तथा अन्य उपयोग के पानी की कमी भविष्य में नहीं हो सकेगी।
जल प्रबन्धन के उपाय
1. अपने प्राकृतिक जल के स्रोतों को पुनर्जीवित करने में ग्रामीण लोगों को सहयोग देकर भयावह त्रासदी से बचाया जा सकता है।
2. प्राचीन काल के जल संरक्षण उपायों को नई प्रौद्योगिकी उपलब्ध करवाकर प्रभावी ढंग से अपनाया जा सकता है।
3. जल संरक्षण के कार्य को सामाजिक आन्दोलन का रूप दिया जाना चाहिए। पानी की एक भी बूँद व्यर्थ न जाने के बारे में अच्छी जागरूकता उत्पन्न की जानी चाहिए। यदि जनता जल संरक्षण का महत्त्व अच्छी तरह समझ ले तो प्राकृतिक जलस्रोतों का अनावश्यक दोहन समाप्त हो जायेगा।
4. आर्थिक विकास में जल संसाधनों का उपयोग वैज्ञानिक ढंग से किया जाना चाहिए। इसे राष्ट्रीय जलनीति बनाकर और उसके प्रभावी कार्यान्वयन द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिए। इसके अन्तर्गत देश की नदियों को इस प्रकार मिलाने की व्यवस्था होनी चाहिए कि गंगा, ब्रह्मपुत्र और इनकी सहायक नदियों का अधिकांश व्यर्थ होने वाला जल दक्षिणी प्रायद्वीप तथा पश्चिमी प्रदेशों में जल की कमी को दूर कर सके। नगरों में जलापूर्ति के दौरान जल के व्यर्थ बह जाने को रोका जाना चाहिए और जल शोधन संयन्त्रों की कमी नहीं होने देनी चाहिए।
5. लघु बाँध, जलाशय विकास और वर्षाजल संचय द्वारा ताजे जल का संरक्षण उच्च प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए। इसका कार्यान्वयन स्थानीय लोगों व स्वयंसेवी संस्थाओं के सहयोग और सरकारी क्षेत्र व निजी क्षेत्र के समन्वय से किया जाना चाहिए। इनके निर्माण से लाखों लोगों को विस्थापित हुए बिना ही रोजगार मिल सकेगा और स्थानीय कौशल, पहल तथा सामग्री का उपयोग हो सकेगा।
6. सिंचाई में जल की बचत, कृषि क्षेत्र व उपज बढ़ाने के लिये सूक्ष्म सिंचाई विधियों (जैसे ड्रिप व स्प्रिंकलर विधि) का उपयोग होना चाहिए। इन आधुनिक तकनीकों की खरीद के लिये किसानों को छूट मिलनी चाहिए। कृषि में रासायनिक उर्वरकों के अधिक प्रयोग के बजाय जैविक खादों के प्रयोग को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।
7. औद्योगिक इकाइयों में जल शोधन संयन्त्रों की स्थापना होनी चाहिए। औद्योगिक जल तथा घरेलू मल जल का पुनर्चक्रण कर पानी का संरक्षण किया जाना चाहिए ताकि धुलाई एवं बागवानी के लिये अधिक पानी प्राप्त हो सके।
8. भूमिगत जल का उपयोग बहुत सावधानी से किया जाना चाहिए और अन्य स्रोतों से प्राप्त जलापूर्ति से उसका समुचित सम्बन्ध स्थापित होना चाहिए। इससे भूमिगत जल का स्तर बनाये रखने में सुविधा होगी और आपात स्थिति से बचा जा सकेगा। इसके अतिरिक्त नीतिगत व व्यावहारिक स्तर पर जल संरक्षण के पारम्परिक उपायों (कुआँ, तालाब, बावड़ी, जलाशय) को अपनाने के लिये पहल करनी चाहिए।
9. जल की उपलब्धता और कृषि सम्बन्धी औद्योगिक व घरेलू उपयोग के लिये इसकी सतत आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये ढाँचागत विकास एक बड़ा कार्यक्रम है।
10. जल प्रबन्धन कार्यक्रमों एवं परियोजनाओं के राष्ट्रीय स्तर पर सफल कार्यान्वयन के लिये जागरूकता, अनुकूल प्रौद्योगिकी, संचालन अनुरक्षण का प्रशिक्षण, अनुमोदन प्रक्रियाएँ, वित्त की उपलब्धता, पारदर्शिता तथा दायित्व निर्धारण मुख्य घटक हैं। जनता, निजी क्षेत्र एवं स्वयंसेवी क्षेत्र विशेष रुप से ग्रामीण व नगरीय सामुदायिक सहभागिता के सहयोगी प्रयास ही विश्वास का निर्माण कर सकते हैं और सफलता के लिये बेहतर परिणाम दे सकते हैं।
कृष्ण प्रकाश त्रिपाठी
157 बाघम्बरी योजना, इलाहाबाद - 211 006 (उ.प्र.)