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जनसत्ता 5 सितंबर 2010
सालों पहले दक्षिण भारत जाना हुआ था। वहां जाने का मतलब था, विविध रंग-रूपों छवियों में समुद्र को देखना। लौटी तो स्मृति में केवल समुद्र नहीं था। था तो समुद्र-मूर्ति-कला और अध्यात्म के अद्भुत समंजन को सम्मोहित मन।
सालों के अंतराल के बाद पूछ रहा था- ‘केरल के बैक वाटर्ज गए हो?’
एकदम हां या ना में जवाब देना संभव नहीं था क्योंकि मन में यह तो था कि जरूर समुद्र से संबंधित ही यह जल-प्रसार होगा लेकिन उसकी कोई निश्चित छवि आंखों में नहीं थी। आंखों में तो समुद्र की विविध छवियां आ रही थीं।
बैक वाटर्ज यानी बांध बनाकर रोका गया समुद्र का पानी। दक्षिण भारत में जगह-जगह बैक वाटर्ज पर्यटन स्थल बन चुके हैं। सैलानी इन स्थलों को खासी दिलचस्पी से देखते हैं। पर्यटन के ऐसे ही कुछ अनुभव और मोहक नजारों को कलमबद्ध कर रही हैं मीरा सीकरी।अपने सुंदर, मीठे से रोमानी परिवेश वाला फिरंगियों से घिरा, लहरों में हंसी और मदहोशी बिखरेता कोवलम् का समुद्र।
प्यार से अपने-अपने नीले-हरे और आसमानी रंगों की विशिष्टता को बनाए-हाथ मिलाते अरब सागर, प्रशांत महासागर और बंगाल की खाड़ी का संगम बनते कन्याकुमारी का महासागर तट।
पांडिचेरी का कटा-छटा तराशा अभिजात समुद्र।
अपने आक्रामक रूप में अपनी सामर्थ्य का ढिंढोरा पीटता उत्ताल ज्वार तरंगों वाला अंडमान का समुद्र
सुभद्रा-बलराम और सोलह कला संपूर्ण कृष्ण की मिथकीय कथा को लिए जगन्नाथपुरी का शांत आमंत्रित करता सागर।
ये सब सागर हैं-बैक वाटर्ज नहीं। लेकिन उत्सुक मन, केरल जाने का मन बना कर भी अपने भीतर कैद किए बैक वाटर्ज को उघाड़ने की कोशिश में लगा हुआ है।
बैक वाटर्ज क्या समुद्र पीछे की तरफ छोड़ा वह पानी है जो समुद्र के प्रवाही लहराते जल का हिस्सा नहीं बन पाया। छूट गया सो छूट गया। ओड़ीशा की ‘चिल्का झील’ का स्मरण हो आया। वहां जा रहे थे, पर झील पर पहुंचने से पहले ही ड्राइवर ने समुद्र के उस हिस्से पर गाड़ी खड़ी कर दी थी जहां से ‘मोटर बोट’ द्वारा देवी मंदिर वाले टापू पर ले जाया जाना था। सब जाने के लिए तैयार हो गए थे पर किशोर वय का मेरा बेटा उन उत्ताल, लीलती तरंगों वाले विराट समुद्र में, उस सामान्य नौका पर जाने से डर रहा था-डर मैं भी रही थी पर उसे समझाया-
‘डरपोक मत बनो, किनारे पर अकेले बचे रहने से तो अच्छा है सबके साथ खत्म हो जाओ।’
लाल मुंह और ‘ओउम भूर्भुवः’ के पाठ के साथ उस टापू पर जाना हुआ था, जिसे हमने उस समय चिल्का का हिस्सा समझ लिया था। चिल्का के समुद्र के उस रोमांचक अनुभव का दुष्परिणाम यह हुआ था कि अगली सुबह डर के कारण सुरक्षित विराट चिल्ला झील में पक्षियों को देखने के लिए भी जाना नहीं हो पाया।
क्या चिल्का झील उस समुद्र के द्वारा छोड़े-फेंके पानी से ही बनी है-पर इतनी बड़ी झील, जो शायद एशिया की सबसे बड़ी झील है-? क्या चिल्का झील को बैक वाटर्ज कहा जा सकता है?
खूबसूरत सा अनुभव ‘द्वारका’ में भी हुआ था। शाम कृष्ण मंदिर में आरती के बाद, वहीं मंदिर के पीछे ही नदी को देखने गए थे-भरी पूरी नदी को देख सोचा था, सुबह यहां नहाने के लिए आएंगे। सुबह नदी और समुद्र एक साथ होते हुए भी अपने-अपने वजूद को लिए हुए अलग-अलग दिखाई दे रहे थे। समुद्र के साथ हाथपाई करती नदी की उन सीढ़ियों पर बैठकर उस बेगवान जल में संभल-संभल कर थोड़ा-सा नहा लिए, क्योंकि दोनों तरफ के पानी की शरारतें रुक नहीं रही थीं। नदी का जो पाट कल रात पूरा भरा हुआ था, इस समय परले पार द्वीप को दिखा रहा था। इस पार से नौकाएं वहां जाकर रुकतीं, थोड़ी देर के लिए वहां रुककर-टापू को दिखा इस पार लौटा लातीं। नदी और समुद्र का इस तरह इकट्ठे होकर भी अलगाव अदभुत और चमत्कारिक लगा था। समुद्र के खारे पानी के साथ होते हुए भी नदी का पानी मीठा था।
क्या नदी का यह पानी पश्चपानी था?
याद आया पांडिचेरी में भी बस से एकांत स्थल वाली उस ‘लेक’ में जहां तीस या चालीस रुपए के टिकट पर बीसेक मिनट के लिए मोटरबोट से चक्कर लगाया था, उसे ‘पर्यटक-पुस्तिका’ में बैक वाटर्ज नाम ही दिया गया था।
तो क्या समुद्र के पास जो झीलें हैं वे समुद्र के द्वारा फेंके पानी से ही अस्तित्व में आई हैं? केरल के विज्ञापनों में बैक वाटर्ज को ही विज्ञापित किया जाता है, हालांकि वहां का हरियालापन और घनी वनस्पति से घिरा संपूर्ण प्रदेश अपनी तरफ खींचता है। पर इस बार तो जिज्ञासु मन समुद्र, मंदिर या वहां की हरियाली नहीं ‘बैक वाटर्ज’ को देखने जानने और समझने के लिए बेचैन हो रहा था, उसको देखे बिना चैन क्यों कर मिलता? ऐसे में केरल तो पहुंचना ही था।
बैक वाटर्ज का वास्तविक बोध केरल पहुंच कर ही हुआ। वैसे यहां के लोग इसे ‘रेन वाटर’ कहकर संबोधित करते हैं। सच ही तो कहते हैं बिना वर्षा जल के मिले यह जल-प्रसार मीठा और संपन्न कैसे होता। यों समुद्र के योगदान के बिना, उसका यह रूपाकार भी संभव नहीं था। इतना पानी-इतना पानी कि मछली बताते बताते थक जाए। जहां भी रह जाओ, अहसास यह कि गंगा में घर बसा लिया समुद्र की उत्ताल तरंगों के आक्रमण से रहित आवास में- निडर मन, शांत मन, शीतल मन। वेनिस जाना नहीं हुआ लेकिन मेरा मन कहता है कि केरल में रहने का सुख और सौंदर्य वेनिस से कम नहीं हो सकता। विशेषकर एक पर्यटक के तौर पर जो इतने फैले हुए जल की असुविधाओं से बचा हुआ, केवल सुखद पक्ष का परिचय ही पा रहा होता है।
‘बैक वाटर्ज’ में ‘जल विहार’ तो कोचीन, कुमाराकोम और एलिपी- तीनों स्थानों पर हो सकता है पर सबसे सुंदर अनुभव एलिपी की ‘हाउसबोट’ में रहकर ही पाया जा सकता है। एलिपी की झील ही है, जहां अगस्त में हस साल सर्पाकार नौकाओं में नौका दौड़ होती है- प्रत्येक नौका में सौ-सौ लोग केवल केवल एक ताल, एक लय में नौका को दौड़ाते हैं। आधुनिक सब सुविधाओं से युक्त हाउसबोट बारह बजे के आसपास आपको ले लेती है और अगले दिन सुबह नौ बजे तट पर छोड़ देती है। हाउसबोट का प्रमुख चालक बताता है कि झील में कोई और जीव नहीं है, बस मछलियां है, जो यहां के लोगों की रोजी रोटी का साधन हैं।
झील को सुंदर बना रही हैं- बीच-बीच में मोटे डंठल से लिपटे हरे पत्तों वाली वेलें, जो झुरमुट में इकट्ठी हुई, चोटे-छोटे, चलते-फिरते द्वीपों का आकार ले लेती है। दूर से दिखाई देने पर हरे-हरे पत्तों या द्वीपों वाला ताल।
सबसे अद्भुत लगी वह पगडंडीनुमा पटरी, जिसके एक तरफ दूर-दूर तक फैले धान के खेत हैं और एक तरफ वर्षा-जल या झील। पगडंडी पर कतार में लोग आ जा रहे हैं। चालक बताता है ये लोग आ जा रहे हैं। चालक बताता है ये लोग इसी गांव के हैं।
गांव? कहां है गांव?
सचमुच वहां घर भी बने हुए हैं। वहीं पास ही दो-तीन दुकानों और एक छोटे से रेस्तरां वाली मार्केट भी। वहां उतर कर हम एक महिला के साथ उसके घर भी हो आते हैं। हाउस बोट में बैठे हम अनुमान नहीं लगा सकते थे कि यह छोटी सी पगडंडी हमें पक्के घर में ले जाएगी, जहां फ्रिज, टेलीविजन जैसी संपूर्ण सुविधाओं के साथ एक संयुक्त परिवार बसेरा कर रहा होगा। विश्वास नहीं होता छोटी सी इस दुनिया को क्रियाशील और प्रसन्न देखकर इस पगडंडी पर ही हाउसबोट को रात रुकना है। नौकाएं बांध ली जाती हैं। सभी के स्थान आरक्षित हैं। शाम ढले जल-विहार नहीं होता-मछुआरों को जाल लगाने होते हैं। हां, छोटी नौकावाले नारियल, केले वगैरह बेचने के लिए पास जरूर आ जाते हैं। देर रात एक बिस्तरनुमा नौका आती है। चालक बताता है-यह आखिरी नौका है जो आमजन को यहां बस्ती में पहुंचाने आती है। सुबह साढ़े पांच छह बजे के करीब पहली नौका उन्हें उनके कार्यस्थलों पर ले जाना शुरू कर देगी। वैसे कुछ लोगों की अपनी छोटी नौकाएं भी हैं, अपनी गाड़ी जैसी।
कुमाराकोम में झील के किनारे ‘बैक वाटर्ज’ रिसोर्ट के भीतर पहुंचकर आप मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते। आवास के भीतर बनाई चोटी छोटी नहरों में पानी भीतर आया हुआ है- जैसे बैकवाटर्ज का अर्थ समझा रहा हो। इन नहरों को पार करने के लिए बनाए हुए कलात्मक सेतुओं पर खड़े होकर संपूर्ण परिदृश्य का अंग बन जाना, सहज स्वाभाविक है। झील के किनारे झूले पर बैठे या लेटे-अधलेटे हुए पानी के विस्तार को देखना और महसूस करना या किनारे पर आराम से बैठकर चाय पीते हुए हवा के वेग से हरी बेलों की तट से टकराहट के गीत सुनना या उनकी लय में आंखें मूंद लेना, विश्रांतिदायक अनुभव हो सकता है। बड़ी-बड़ी नौकाओं की छत पर और नीचे बैठे गाते बजाते, मौज मनाते पर्यंटक आप की मुंदी हुई आंखों को खोलते ही नहीं जल-तरंग की इस अविस्मरणीय लय में शामिल कर लेते हैं।
गहरे भीतर से आवाज आती है- सौंदर्य चाहे सागर का हो, पहाड़ का हो, नदी का हो या जंगल का। तभी तक आकर्षक और मन को लुभानेवाला हो सकता है, जब तक आप सुरक्षित हैं, सुविधाओं में हैं।केरल का जल-प्रसंग अधूरा रहेगा अगर इस जल से उपजे मसालों का जिक्र न किया जाए। मुनार से कुमाराकोम जाते हुए रास्ते में मसालों को उगते हुए, हरी वनस्पति के रूप में देखना एक अनुभव है, तो उन्हें देखने, शूंघने और चखने का अपना एक स्वाद।
यहां मुनार के चाय बागानों का अपना एक विशिष्ट चरित्र है-बिल्कुल अलग निराले से। पहाड़ की, ढ़लानों की ढलानों पर हरे तराशे हुए वृत्ताकार, कहीं अर्द्धवृत्ताकार बागानों को देखते हुए मुंह से वाह निकले बिना नहीं रहता। बिना कहीं जाए कमरे में बैठे हुए या किसी भी पहाड़ी पर चाय पीते हुए, तराशी हुई मुलायम-मुलायम चाय की केती को देखना कितना सुखद हो सकता है यह वहां जाए बिना महसूस नहीं हो सकता।
दिल्ली लौटने के लिए उड़ान त्रिवेंद्रम से लेनी थी पर आंखों और मन में अभी भी बैक वाटर्ज यानी रेन वाटर्ज की छवि छाई हुई थी। विदा के बेला में उसके प्रति मोह का बढ़ जाना स्वाभाविक है। इसी मोह का परिणाम हुआ कि हवाई अड्डा पहुंचने के लिए सुबह जल्दी निकल पड़े ताकि कोवलम् सागर तट पर कुछ समय बिताया जा सके।
कोवलम् पहुंचते तो बारह बज रहे थे। तेज धूप और उसके तीखेपन को संतुलित करती सागर की हवा ने स्वागत किया। समुद्र से विदा लेने के लिए, उससे हाथ और आंखें मिलाते रेस्तरां में बैठ गए। पहले ठंडा पेय, फिर आइसक्रीम और फिर चाय। वहां बैठे हुए ठंडा पेय और चाय की चुस्कियों के साथ हम क्या पी रहे थे-वहां की ठंडक, ऊष्मा या सागर को? ठंडा पेय और गर्म पेय तो बस बहाना थे।
हमसे बेखबर सागर झाग उगलता हुआ सबसे निस्संग-धूप से, हवा से, मित्रता और शत्रुता से। अपने में ही लीन। चाहा मित्र की तरह विदा ले ली जाए पर वह सबसे विमुख, अपने ही में निमग्न।
ऐसा लगता है कि बड़े वेग से हमारी तरफ आया पर ये धोखा है, उसका आना तो उसके प्राणों का आरोह है, पर तत्काल ही वह अपनी लय और ध्वनि में अवरोहण कर जाता है, पीछे की तरफ। उसकी यह सरगम निरंतर गतिमान है। उसका ऋत है, सत्य है। लहरों की तरंगों की बहियां पकड़े आना और जाना है। अगर वर्षा का जल उसके द्वारा पीछे छोड़े पानी को अपने में समेट ले तो जैसा कोचीन, कुमाराकोम और एलिपी में हुआ है। पानी का प्रसार मर्यादित हो जाता है और लुभावना रूपाकार ले लेता है।
पर अभी सामने है कोवलम् की तेज धूप में सफेद लहरों की झालरों में हुंकारता, काल को चुनौति देता सागर। घबराकर मन में बैठा आदिम भय कौंध जाता है, अगर अभी सुनामी का आक्रमण हो जाए? अभी धुआंधार बारिश हो जाए तो? क्या यही आकर्षण, सुख, रंजन टिक पाएगा?
गहरे भीतर से आवाज आती है-सौंदर्य चाहे सागर का हो, पहाड़ का हो, नदी का हो या जंगल का। तभी तक आकर्षक और मन को लुभानेवाला हो सकता है, जब तक आप सुरक्षित हैं, सुविधाओं में हैं।
हवाई जहाज के उड़ान भरने पर हम समुद्र के प्रांगण से ऊपर उठ आसमानी दुनिया में पहुंच जाते हैं, कुछ समय तक सागर दिखाई देता है, फिर वह भी लुप्त हो जाता है और हम पहुंच जाते हैं एक अद्भुत वायवीय लोक में, जहां स्लेटी, कहीं सफेद, कहीं नीले रुई जैसे वर्षा के हल्के-फुल्के, उमड़ते-घुमड़ते जल प्रसार- जिसे छुआ नहीं जा सकता-बस आंखों से पिया जा सकता है।
यह मनुष्य की प्यास शून्य के पानी से नहीं बुझ सकती। उसके लिए चाहिए धरती का पानी, वर्षा का मीठा पानी। शून्य में झूलते हुए एक आकाशीय ध्वनि रहीम के शब्दों में मुखरित हो उठती है-
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न उबरें, मोती मानुष चून।