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जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (2013) पुस्तक से साभार
मनुष्य ने अपनी कठिनाइयों में संघर्ष के दम पर जो विकास किया, उसे हम परम्परा या पारम्परिक कहते हैं। इस परम्परा की कड़ी में तालाब, आहर, बावड़ी, पोखर, सर आदि अलग-अलग जगहों पर जुड़ते चले गए। सभ्यता के विकास के साथ गाँव और शहरों ने अपनी परम्परा से नाता तोड़ लिया है।
रघुवीर सहाय की एक कविता का अंश है-पानी-पानी/बच्चा-बच्चा/हिंदुस्तानी/माँग रहा है/हिंदुस्तानी।उन्होंने इसे ग्रामीणों के बीच खुद ही सुनाया था। रघुवीर सहाय ने शायद आज से दो दशक पहले देवघर (झारखण्ड) में एक बैठक में पानी के लिये आने वाले समय में मारामारी मचेगी, इसकी कल्पना कर ली होगी। सम्भव है कि वहाँ के स्थानीय लोगों को भी इस बात का अन्देशा हो गया था। तभी तो वे रोते-रोते अपने कपड़े के कोनों में आँसू पोंछते और कविता सुनते जा रहे थे। आज भी आप देवघर के मोहनपुर के लोगों से पानी की कोई कविता सुनाने को कहेंगे तो वह फट से ‘पानी-पानी’ यानी ‘जलयात्रा का पड़ाव’ सहायजी की कविता बहुत ही मर्म से भरकर सुनाने लगेंगे। प्रकृति संघर्ष और संयम का पाठ पढ़ाती है। वह लड़ने की शिक्षा कभी नहीं देती। प्रकृति अपने नियम हजारों साल में बनाती है, परन्तु विकास के नाम पर मनुष्य उसकी उपेक्षा करके अपने लिये नाश की राह खुद चुन लेता है। सत्य तो यह है कि भारत में जीवन जीने के लिये प्रकृति पर्याप्त वर्षा गिराती है। यह सही है कि चेरापूँजी और मासीनराम में बहुत ज्यादा, बाड़मेर और जैसलमेर में कम मात्रा में पानी गिरता है। दोनों ही जगहों के समाज ने उसी हिसाब से अपने जीने के तरीके तैयार कर लिये हैं। दोनों ही समाज कभी ज्यादा और कम की शिकायत नहीं करते हैं। राजस्थान के 11 जिले ऐसे हैं, जहाँ मरुस्थल का विस्तार है, परन्तु जैसलमेर, बाड़मेर और बीकानेर तीन ऐसे जिले हैं, जो मरुस्थल के नाम पर सबसे पहले हमारे खयालों में आते है। ताज्जुब है कि यहाँ के लोगों ने प्रकृति के वरदान के रूप में दो-चार बूँद को भी सहजता से स्वीकार कर लिया है और इसे ‘रजत बूँदों’ की संज्ञा दी है। जैसलमेर में तो कोई बारामासा नदी भी नहीं है। पानी ऊपर से पहले ही कम गिरता है, लेकिन समाज ने हिम्मत नहीं हारी, धैर्य रखा और पानी बरतने की कला विकसित कर ली।
मनुष्य ने अपनी कठिनाइयों में संघर्ष के दम पर जो विकास किया, उसे हम परम्परा या पारम्परिक कहते हैं। इस परम्परा की कड़ी में तालाब, आहर, बावड़ी, पोखर, सर आदि अलग-अलग जगहों पर जुड़ते चले गए। सभ्यता के विकास के साथ गाँव और शहरों ने अपनी परम्परा से नाता तोड़ लिया है। देश के दूसरे राज्यों में दिक्कतें भी खूब महसूस की जा रही हैं, लेकिन जैसलमेर ने आज भी अपनी उसी वर्षों पुरानी परम्परा को जीवित रखा है। जैसलमेर की जमीन पर घड़सीसर तालाब आज भी अपने दम पर इस तपती धरती पर लोगों के हलक को आर्द्र कर रहा है।
जैसलमेर जिले में आज 462 गाँव आबाद हैं। पहले यहाँ कुल 515 गाँव थे। किसी-न-किसी वजह से 53 गाँव मिट चुके हैं और इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह गए हैं। इनमें से ज्यादातर गाँवों में पीने के पानी की अपनी पारम्परिक व्यवस्था है। एक गाँव ही ऐसा है, जहाँ पीने के पानी का प्रबन्ध नहीं है। है न यह अचरज में डालने वाली बात! इससे भी ज्यादा अचरज तो यह जानकर होता है कि 53 उजड़ चुके गाँवों में भी पानी के प्रबन्ध के साक्ष्य मिलते हैं। सरकारी आँकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं। यहाँ हर जगह तालाब और कुएँ ही दिखते हैं। चिकित्सा और डाक की सुविधा आज भी महज मुट्ठी भर गाँवों को मयस्सर है। इस क्षेत्र को गजेटियर में जीवनविहीन और न जाने क्या-क्या नहीं कहा गया है, परन्तु ऐसा लिखने और कहने वाले जब घड़सीसर पहुँचते हैं तो उन्हें अपनी ही बात झूठी लगने लगती है।
जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें) | |
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पुस्तक परिचय - जल, जंगल और जमीन - उलट-पुलट पर्यावरण | |
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