पानी

Submitted by Shivendra on Fri, 01/30/2015 - 13:33
जलपानी है धरती का जीवन, जीव-जीव को अमृत पानी,
इसका कोई रंग नहीं है, पर इस जग की रंगत पानी।

चट्टानों से लड़कर बढ़ती जिजीविषा की धारा पानी,
बाँधों के कितने बन्धन है, पर उनसे कब हारा पानी।

पर्वत स्रोत नदी के लेकिन वहाँ नहीं रुक जाता पानी,
नीचे मैदानों तक बहकर, समदर्शी सा आता पानी।

आशा का वो आसमान है जिससे झरझर झरता पानी,
और प्रेम रस की फुहार से इस जमीन को भरता पानी।

अन्तस की अरुणा ना सूखे, रखना अपने मन में पानी,
जिसने पानी को पहचाना उसके ही जीवन में पानी।

हम मिट्टी की जिन्दा मूरत, अपनी आधी काया पानी,
मगर वहीं इंसान की आँखे, जिन आँखों में पाया पानी।

मरुस्थल तरसे मीठे जल को कठिन कि भरले गागर पानी,
प्यासों को बेकार लगे हैं, खारा रखते सागर पानी।