झर-झर झरने, फिर लहरें कल-कल नदियाँ,
बस्ती-बस्ती बाँटें, अमृत-जल नदियाँ।
क्या पाकर, गम्भीर-गहन हो जाती हैं,
बचपन की सोतों जैसी, चंचल नदियाँ।
पुण्य धर्म का बन, प्रवाह बहती आईं,
घाट-घाट गढ़ती आईं, देवल नदियाँ।
धरती पर, ममता का नीर बहाती हैं,
पोस रही हैं, हरियाली जंगल नदियाँ।
पुण्य धर्म का बन, प्रवाह बहती आईं,
घाट-घाट गढ़ती आईं, देवल नदियाँ।
धरती पर, ममता का नीर बहाती हैं,
पोस रही हैं, हरियाली जंगल नदियाँ।
उमस दुपहरी डूब के, इनमें बुझती है,
गरमी में ठण्डक, दिनभर शीतल नदियाँ।
पहियों पर भी तृप्ति, प्यास की संग चले,
राहगीर की भर देतीं छागल नदियाँ।
चट्टानों के बीच, आत्मा सा पानी,
धड़क रही हैं, दिल-दिल में पल-पल नदियाँ।
आज अगर जागेगी, तट की हर नगरी,
मान करेगी तभी, बचेंगी कल नदियाँ।
बस्ती-बस्ती बाँटें, अमृत-जल नदियाँ।
क्या पाकर, गम्भीर-गहन हो जाती हैं,
बचपन की सोतों जैसी, चंचल नदियाँ।
पुण्य धर्म का बन, प्रवाह बहती आईं,
घाट-घाट गढ़ती आईं, देवल नदियाँ।
धरती पर, ममता का नीर बहाती हैं,
पोस रही हैं, हरियाली जंगल नदियाँ।
पुण्य धर्म का बन, प्रवाह बहती आईं,
घाट-घाट गढ़ती आईं, देवल नदियाँ।
धरती पर, ममता का नीर बहाती हैं,
पोस रही हैं, हरियाली जंगल नदियाँ।
उमस दुपहरी डूब के, इनमें बुझती है,
गरमी में ठण्डक, दिनभर शीतल नदियाँ।
पहियों पर भी तृप्ति, प्यास की संग चले,
राहगीर की भर देतीं छागल नदियाँ।
चट्टानों के बीच, आत्मा सा पानी,
धड़क रही हैं, दिल-दिल में पल-पल नदियाँ।
आज अगर जागेगी, तट की हर नगरी,
मान करेगी तभी, बचेंगी कल नदियाँ।