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राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 19 दिसम्बर 2015
भारत को इस बात के लिये चिंतित होना चाहिए कि वह किस तरह अपने व्यापक वंचित जनसंख्या के जीने के लिये मानवीय सेवा उपलब्ध करायेगा। लेकिन ज्यादातर के लिये आवश्यक होगा कि वह व्यापक रूप से तथा व्यापक पैमाने पर एक घरेलू सामाजिक एवं आर्थिक रूपांतरण लाये। यह एक चुनौती है पर देश के टिकाऊ विकास के एक वैकल्पिक प्रारूप को प्रदर्शित करने वाला बेहतर अवसर भी। जीवाश्म ईंधन पर पूरी तरह निर्भरता से यह विकास अपने आप को अलग करता है। अगर यह सफल होता है, तो भारत एक मिसाल बन जायेगादो डिग्री सेन्टीग्रेड तक तापमान की बढ़ोत्तरी को सीमित करने को लेकर यह समझौता है। लेकिन उत्सर्जन घटाने को लेकर जो मौजूदा संकल्प है, उसके मुताबिक़ नियंत्रण तापमान में 3 डिग्री सेन्टीग्रेड तक की औसत बढ़ोत्तरी हो सकती है। पेरिस में 195 देशों के प्रतिनिधियों ने सभी पक्षों को लेकर आयोजित सम्मेलन (सीओपी) के लम्बे चले सत्र में दो सप्ताह के भीतर सम्मेलन को पूरा करने में ग़ज़ब की तेजी दिखायी है तथा इस सम्मेलन में एक अन्तरराष्ट्रीय समझौते को तैयार कर लिया है, जो पूरी धरती पर जलवायु परिवर्तन के खतरे को देखते हुए सभी देशों द्वारा भविष्य की कार्रवाई की बुनियाद डालती है। पेरिस समझौते को व्यापक रूप से मानवीय अंत:क्रिया, प्रौद्योगिकी एवं भू-परिदृश्य में सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण रुपांतरण की शुरुआत के रूप में चिह्नित करता है। इस पूरी प्रक्रिया में, भारत ने, विशेषकर समृद्ध एवं विकासशील देशों के बीच होने वाले भेदभाव की सुरक्षा को लेकर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। पर्यावरण मन्त्री प्रकाश जावड़ेकर ने अपनी संतुष्टि व्यक्त की कि भारत की तमाम मुख्य चिन्ताओं के क्षेत्र को पेरिस समझौते में जगह दी गई है।
अन्तिम दस्तावेज को स्वीकार करने के लिये सभी देशों की जरूरत है अन्यथा यह संधि कबाड़ा हो सकती है, अगर इसमें से कोई भी देश और कोई एक पक्ष भी असहमत होता है। लगता है, आखिरी दस्तावेज में सबके लिये कुछ न कुछ है। हालाँकि इसमें इस बात की गुंजाईश बिल्कुल नहीं है कि सबको पूरी तरह संतुष्ट किया जा सके।
विवादास्पद मुद्दे
विवाद वाले मुख्य मुद्दे रहे हैं - भेदभाव, वित्तीय सहायता, शमन कार्रवाई तथा हानि एवं क्षति। इन शब्दों को निम्नलिखित तरीके से विश्लेषित किया गया है : सम्मेलन के अनुच्छेद 3 की अभिव्यक्ति के माध्यम से समृद्ध एवं विकासशील देशों के बीच के भेदभाव को कायम रखना, सबके लिये, मगर अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ (सीबीडीआर); वित्तीय सहायता के माध्यम से विकासशील देशों के लिये समर्थन देना, प्रौद्योगिकी एवं सामर्थ्य निर्माण ताकि वे उत्सर्जन को कम से कम कर सकें और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के साथ अनुकूलित हो सकें; सभी बड़े उत्सर्जकों को निश्चित करने के लिये समृद्ध एवं विकासशील देशों को उस तारीख के बारे में बताना चाहिए, जब उनकी ग्रीन हाउस गैस अपनी चरमावस्था पर पहुँच जायेगी तथा गरीब देशों का समर्थन करना, जो बढ़ती गर्मी के कारण अपने यहाँ विभिन्न तरह की हानि और क्षति का सामना कर रहे हैं तथा इसके साथ ही इस बात पर फैसला करना कि ‘ज़िम्मेदारी एवं क्षतिपूर्ति’ वाली भाषा बनाये रखनी चाहिए।
एक मुद्दा, जो पहले विवादास्पद था और जिसे औसत तापमान के बढ़ने की चिन्ता के रूप में अंतरिम प्रारूप में बहुत हद तक हल कर लिया गया है, सम्मेलन के लिये एक लक्ष्य के रूप में इस पर सहमति हासिल कर ली जायेगी। कई कमजोर देशों की माँग है कि गर्मी घटाने के लिये ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड के भीतर लाया जाय। पेरिस समझौते के अनुच्छेद 2 के मुताबिक सम्मेलन का लक्ष्य है कि नियंत्रण औसत तापमान की बढ़ोत्तरी को पूर्व औद्योगिक स्तरों पर 2 डिग्री सेन्टीग्रेड के नीचे लाया जाय तथा इस बात की कोशिश की जाय कि इस सीमा को 1.5 डिग्री सेन्टीग्रेड तक निश्चित कर लिया जाय, यह मानकर कि इससे जलवायु परिवर्तन के खतरे और प्रभाव में कमी आयेगी। हालाँकि विभिन्न आकलनों से यह संकेत मिलता है कि उत्सर्जन को घटाने को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर निश्चित किये गए योगदान में मौजूदा संकल्प अपनायी गई नीति से सम्भवत: नियन्त्रण तापमान में लगभग 3 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान की बढ़ोत्तरी होगी, जबकि जिस तरह कारोबार की प्रकृति है, उससे लगता है कि इस सदी के आखिर तक लगभग 5 डिग्री सेन्टीग्रेड की बढ़ोत्तरी होती रहेगी।
अन्तिम दस्तावेज दो मुख्य भागों में विभाजित है: खुद समझौता ही, जो लगभग सभी प्रतिबद्धताओं का एक टिकाऊ समुच्चय दिखता है तथा निर्णय, जिसमें कार्यान्वयन के लिये आवश्यक बहुत सारे मुद्दों तथा संस्थागत व्यवस्थाओं के प्रति प्रतिबद्धता दिखाने वाले बहुत सारे अनुच्छेद हैं। चूँकि दस्तावेज के दोनों भागों पर पेरिस समझौते में हस्ताक्षर किये गए हैं। स्पष्ट है कि सम्पूर्ण दस्तावेज में कानूनी शक्ति है। हालाँकि ज्यादा उम्मीद है कि निर्णय के घटक विशेष रूप से पाँच साल की समीक्षा के दौरान बदल सकते हैं, जो निर्माण की प्रक्रिया में है।
मौसम के कुल सवालों पर, यह समझौता विकसित तथा विकासशील देशों के बीच के भेदभाव को कायम रखता है, बहुत सारे विशेषज्ञ मुखर रूप से इस बारे में एक उचित जवाब देते हैं। भेदभाव के बहुत सारे तत्व समझौते के विभिन्न भागों में अंतरनिहित हैं। यहाँ तक कि प्रस्तावना की भाषा भी अपने आप में इतनी मजबूत नहीं है, जितनी कि कई सारे विकासशील देशों द्वारा सोची गई थी।
भेदभाव पर जो भाषा (सीबीडीआर) अख्तियार की गई है, वह ‘भिन्न राष्ट्रीय परिस्थितियों की रौशनी में’ विस्तारित की गई है, जो सम्भवत: यह संकेत करती है कि विकसित तथा विकासशील देशों के बीच पूर्व से चली आ रही सख्त आग की दीवार तोड़ डाली गई है। इस बवंडर में खोने वाले विकसित देशों की इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी की स्वीकृति है।
इसके बावजूद, इस दस्तावेज में ऐसे कई सारे प्रावधान हैं, जो विशेष रूप से विकसित देशों की मजबूरी की ओर इशारा करते हैं। उदाहरण के लिये, समझौता का अनुच्छेद 9 विकसित देशों की तरफ से वित्तीय सहायता का स्पष्ट आह्वान है और महत्त्वपूर्ण है कि इसे सार्वजनिक कोष से दिया जाना है तथा जिसे ‘पूर्व के प्रयासों के परे एक क्रमिक विकास का प्रतिनिधित्व करना चाहिए। उम्मीद की जाती है कि शमन और अनुकूलन के लिये विकासशील देशों की आवश्यकताओं तथा प्राथमिकताओं की पूर्ति के लिये प्रतिवर्ष कम से कम 100 बिलियन डॉलर के रूप में व्यवस्था होगी। इसके अलावा, विकसित देशों के लिये यह आवश्यक होगा कि वो विकासशील देशों के सहयोग में पारदर्शी सूचनाएं उपलब्ध कराये तथा आवश्यक रूप से अपनी योजनाओं के बारे में बताते हुए अतिरिक्त वित्त की व्यवस्था करें।
शमन कार्रवाई पर, विकसित देशों के लिये जरूरी है कि वो पूर्ण उत्सर्जन न्यूनीकरण के लक्ष्य को पाने की अगुआई करे, लेकिन विकासशील देश ‘विभिन्न राष्ट्रीय परिस्थितियों की रौशनी में अर्थव्यवस्था उन्मुख उत्सर्जन न्यूनीकरण या शमन के लक्ष्य के प्रति समय के साथ आगे बढ़े। ‘बढ़ी हुई पारदर्शी ढाँचे’ के अंतर्गत, सभी देशों के लिये जरूरी है कि 2020 से शुरू होने वाले प्रत्येक पाँच सालों में राष्ट्रीय रूप से निश्चित योगदान के बारे में सूचनाएँ मुहैया कराये। विकासशील देशों के लिये एक चरम वर्ष का कोई उल्लेख नहीं है, सिर्फ इसके कि सम्पूर्ण रूप से अपने उत्सर्जन को कम करने के लिये उन्हें लम्बा समय लगेगा।
यह दस्तावेज़, पेरिस समझौते के क्रियान्वयन के एक व्यापक समीक्षा या ‘नियंत्रण जाँच पड़ताल’ का आह्वान करता है तथा यह ‘उसे आगे बढ़ाने के एक तरीके’ तथा समानता एवं सर्वेश्रेष्ठ उपलब्ध विज्ञान’ की रौशनी में सभी क्षेत्रों को आच्छादित करता है। ज्यादातर विश्लेषक इस बात को अनुभव करते हैं कि उत्सर्जन कम करने, प्रौद्योगिकी तथा वित्त स्थानांतरण में हो रही प्रगति की समीक्षा के लिये यह महत्त्वपूर्ण है, जबकि यह भेदभाव की निगरानी के लिये सम्भावना का द्वार खोलता है।
इस दस्तावेज में हानि एवं क्षति के महत्त्व को स्वीकार किया गया है, लेकिन इस निर्णय (हालाँकि समझौते में नहीं है) में एक स्पष्ट सीमा-रेखा भी है कि यह देनदारी तथा क्षतिपूर्ति से बंधा हुआ नहीं है। देनदारी तथा क्षतिपूर्ति के बिना जलवायु परिवर्तन के शिकार होने वालों के लिये कोई चारा नहीं बचता है कि वो इसके लिये वैधानिक दावा कर सके।
भारत के लिये निहितार्थ
समझौते के नये ढाँचे के कार्यान्वयन के लिये भारत को आगे बढ़ते हुए खासकर लक्ष्यों की क्रमिक समीक्षा, निगरानी ढाँचे तथा पेरिस समझौते में उल्लेखित राष्ट्रीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सीबीडीआर शब्द के फिर से सुझाये गए शब्द को लेकर सजग रूप से प्रयास करना होगा, विशेष रूप से जिस तरह भारत के ‘राष्ट्रीय परिस्थितियों’ की व्याख्या वित्तीय प्रवाह, प्रौद्योगिकी स्थानांतरण या सामर्थ्य निर्माण की व्याख्या की जायेगी, यह स्पष्ट नहीं है, क्योंकि भारत अपनी उच्च जीडीपी के साथ ग़रीबी में रहने वाले करोड़ों की आबादी वाला देश है। जलवायु परिवर्तन के तीव्र प्रभाव के चलते कमजोरी एवं अनुकूलन के सन्दर्भ में कठोर निहितार्थ भी हैं कि हम तभी उम्मीद कर सकते हैं, अगर औसत तापमान 2 डिग्री सेन्टीग्रेड या इससे ज्यादा तक बढ़ता है।
इसके बाद, शेष कार्बन क्षेत्र की हिस्सेदारी का मामला बनता है। अगर, समीक्षा के दौरान शेष विकास क्षेत्र की समान भागीदारी को सुनिश्चित करने वाली पर्याप्त प्रणाली सामने नहीं आती है, तो नीचे की ओर एक मुकाबला हो सकता है, जहाँ विकसित देश बचे हुए कार्बन बजट को खाली करते रहेंगे। इस परिस्थिति में, भारत को अपने आप में तैयार रहना होगा कि वह करोड़ों को गरीबी से ऊपर उठाये, जबकि विकास के क्षेत्र में अपने समुचित अधिकारों के लिये दावा भी करें। भारत को भी इस बात के लिये चिन्तित होना चाहिए कि वह किस तरह अपने व्यापक वंचित जनसंख्या के जीने के लिये मानवीय सेवा उपलब्ध करायेगा। लेकिन ज्यादातर के लिये आवश्यक होगा कि वो व्यापक रूप से तथा व्यापक पैमाने पर एक घरेलू सामाजिक एवं आर्थिक रुपांतरण लाये, जिसका प्रयास इससे पहले कभी नहीं हुआ। यह एक चुनौती है, फिर भी यह देश के टिकाऊ विकास के एक वैकल्पिक प्रारूप को प्रदर्शित करने वाला एक बेहतर अवसर भी है: जीवाश्म ईंधन पर पूरी तरह निर्भरता से यह विकास अपने आप को अलग करता है। अगर यह सफल होता है, तो भारत अन्य विकासशील देशों के लिये एक मिसाल बन जायेगा।
(सुजाता सीएसटीईपी, बंगलुरू में मुख्य शोध वैज्ञानिक हैं। सुधीर इंडो-जर्मन सेन्टर फॉर सस्टनेबिलिटी एण्ड टीचेज एट आईआईटी, मद्रास में संयोजक हैं)