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दैनिक भास्कर, 22 अप्रैल 2017
आज पानी का कारोबार एक बड़ा उद्योग बन चुका है। पानी का शुद्धिकरण, उसकी मार्केटिंग और घरों तक पहुँचाने के लिये। एक बड़ा नेटवर्क है, लेकिन इस सब के बीच जल की जरूरत और गुणवत्ता की जिम्मेदारियों को नजरअंदाज किया जा रहा है…
पहले इन विरोधाभासी स्थितियों पर गौर करें
राजधानी दिल्ली की परिवहन व्यवस्था की लाइफ लाइन बन चुकी मेट्रो की ओर से पीने के पानी का कोई इंतजाम नहीं किया गया है। लाखों की संख्या में यात्री चुने हुए स्टेशनों पर बिक्री के बोतल बंद पानी पर निर्भर हैं। पैसे से पानी खरीदने में असमर्थ यात्रियों के लिये भीषण गर्मी में प्यासे रहकर ही सफर करना होता है।
दिल्ली के अधिकतर, प्राइवेट बिल्डरों द्वारा बनाए गए फ्लैट्स या दूसरे मल्टी स्टोरीज बिल्डिंग में दिल्ली जल बोर्ड द्वारा सप्लाई किए जाने वाले शुद्ध पेयजल को भूतल में बने टैंकों में भरकर उसकी गुणवत्ता को वे लोग खुद ही बिगाड़ देते हैं।
दिल्ली के कई मोहल्लों और देश के तमाम कस्बाई व ग्रामीण इलाकों में पूरे गर्मी के मौसम में पेयजल को तरसते लोगों के लिये जल की शुद्धता का अर्थ सिर्फ पानी के साफ होने से है। बोतलबंद पानी सभी जगह कम्पनी द्वारा तय कीमत पर नहीं बेचा जा रहा है।
इन कुछ विरोधाभासी स्थितियों के संदर्भ में सामान्य तौर पर जल की जरूरत, गुणवत्ता और उसे बचाने की जिम्मेदारियों को लेकर खड़े होने वाले सवालों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। सुविधा सम्पन्न लोग शुद्ध पेयजल की पूर्ति कई तरह से कर लेते हैं। आज जल प्राप्ति के साथ-साथ उसे साफ करने के कई सस्ते-महँगे साधन उपलब्ध हो गए हैं। कंठ गीला करने से लेकर आवश्यकतानुसार पानी की उपलब्धता की पूर्ति कैसे हो? उसपर खर्च कितना आए? सेहत के दृष्टिकोण से उसकी शुद्धता का पैमाना क्या है? इसे लेकर सरकार चाहे जितनी भी चिंतित और सक्रिय बनी रहे, लेकिन लोग घरों के नलों में आने वाले पानी को कितना सही रख पाते हैं, इसपर शायद ही कभी गम्भीरता से विचार किया गया हो।
अब दिल्ली को ही लें, जहाँ लोगों के मन में यह दुविधा बनी हुई है कि दिल्ली जलबोर्ड द्वारा मिलने वाला पानी पीएँ या नहीं? खासकर सम्भ्रान्त वर्ग के लोगों के बीच तो इसको लेकर जबरदस्त भ्रम की स्थिति है। जबकि दिल्ली सरकार का दावा है जलबोर्ड द्वारा सप्लाई किया जाने वाला पानी, पूरी तरह से पीने योग्य और बिल्कुल ही शुद्ध है। इसकी सप्लाई के व्यापक इंतजाम किए गए हैं, जो पूर्वी, उत्तरी और दक्षिणी नगर निगमों द्वारा सम्पन्न करवाए जाते हैं। बोर्ड द्वारा पानी के शुद्धिकरण और उसकी गुणवत्ता बनाए रखने के लिये जल विश्लेषक, रसायनशास्त्री, बैक्टीरियोलॉजिस्ट की पूरी टीम, लेबोरेटरी टेक्नीशियन से लेकर उसके सहायकों और अटेंडेटों की पूरी फौज सक्रिय है।
वे दिल्ली में प्रतिदिन 880 मिलियन गैलन पानी की जरूरत को पूरी करने के मकसद से यमुना, पश्चिमी यमुना केनाल, गंगा केनाल और भाखरा स्टोरेज से मिलने वाले पानी को शुद्ध करने का काम करते हैं। इसके अतिरिक्त भूतल जल के रूप में ट्यूबवेल्स, रेनीवेल्स से मिलने वाले पानी को भी खारापन दूरकर शुद्ध बनाया जाता है। दिल्ली स्थित वजीराबाद, ओखला, हैदरपुर, वाटर वर्क्स भागीरथी, ग्रेटर कैलाश और नागलोई में जल शोधन के प्लांट लगे हैं। इनमें पानी की शुद्धता के मानक आईएस-10500-1993 के मुताबिक विभिन्न जगहों के नमूने लेकर जाँच किए जाते हैं। इस सिलसिले में पानी में पाए जाने वाले रसायनों और उससे होने वाली रोगों को ध्यान में रखते हुए उसकी गुणवत्ता निर्धारित की जाती है। समस्या यह है कि इस तरह से मिलने वाले अच्छे पानी को लोग खुद ही बिगाड़ देते हैं। अधिकतर चार-पाँच मंजिली भवनों के फ्लैटों में पानी की सुलभता के लिये भूतल में बड़े टैंक बनाए जाते हैं।
दिल्ली जलबोर्ड का साफ और शुद्ध पानी पहले सीधे उन टैंकों में जमा होता है। बाद में उसे पम्प के जरिए छत पर लगे टैंकों में भरा जाता है। वही पानी पाइपों के जरिए लोगों के रसोईघरों और दूसरी जगहों में आता है। तब तक उसकी गुणवत्ता काफी हद तक बिगड़ चुकी होती है, कारण घरों के भूतल में बने टैंक सालों-साल तक साफ नहीं करवाए जाते हैं। इसे लेकर लोगों के सम्बन्ध में क्या कहा जाए, क्या यह बात उन्हें समझ में नहीं आती या इसके बारे में उन्हें कोई ज्ञान नहीं होता या फिर वह इतने जिम्मेदार नहीं होते कि समझकर भी वह इसके सम्बन्ध में कोई सार्थक कदम उठा सके। क्योंकि वे पहले साफ पानी को खराब करते हैं और फिर उसे ही वाटर प्यूरीफायर के जरिए साफ करते हैं।
यह स्थिति न केवल छोटी-बड़ी रिहायशी कॉलोनियों में है, बल्कि दिल्ली के वीवीआईपी इलाके से लेकर सासंद और मंत्रियों के बंगलों में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है। वहाँ रहने वाले विशिष्ट लोगों के लिये तो जलबोर्ड के पानी की कोई अहमियत ही नहीं है। वे बोतलबंद पानी पीने के लिये पूरी तरह से अभ्यस्त हो चुके हैं। बहरहाल, अधिकतर लोगों का मनोविज्ञान आरो वाटर प्यूरीफायर और बोतल बंद पानी के साथ इस कदर मजबूत बन चुका है कि वे न तो साफ-शुद्ध पानी को पहचान पाते हैं और न ही उसपर भरोसा करते हैं।
अब सवाल है कि उनके खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की जा रही है, जो अच्छे पानी को खराब कर रहे हैं? दिल्ली सरकार को कोई वैसी पहल भी करनी चाहिए, जिससे कि साफ पानी को लेकर उनके बन चुके मनोविज्ञान को बदला जा सके। इसके साथ ही दिल्ली जलबोर्ड को अपने गंदे टैंकों में पानी जमा करने वालों के खिलाफ भी तत्काल प्रभाव से कुछ ठोस कदम भी उठाने चाहिए। बोतलबंद पानी की गुणवत्ता पर पूरी तरह से भरोसा नहीं किया जा सकता है, क्योंकि कई जगहों पर एक्सपायरी डेट का पानी भी धड़ल्ले से बिकता है और अपनी प्यास बुझाने के चक्कर में लोग इस पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते हैं। खासतौर पर शादी-ब्याह जैसे आयोजनों में ऐसे पानी को आसानी से खपा दिया जाता है।
आज पानी का कारोबार एक बड़ा उद्योग बन चुका है। पानी के शुद्धीकरण से लेकर उसकी मार्केटिंग करने और घरों तक पहुँचाने तक के लिये लोगों का एक बड़ा नेटवर्क बन चुका है। इस सम्बन्ध में उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय ने पहल की है। उपभोक्ता के हित में केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने पानी की शुद्धता को मानक के अनुरूप बनाए रखने से लेकर उसकी कीमत को एकरूप करने के लिये प्रयास में जुटे हैं। एक बड़ा सवाल यह भी है कि दिल्ली के मेट्रो स्टेशनों पर पीने के पानी का इंतजाम क्यों नहीं किया गया है? क्या ऐसा कर वह भी बोतलबंद पानी को बढ़ावा नहीं दे रही है? क्या उसकी जिम्मेदारी नहीं बनती है कि यात्रियों को पीने का दो घूँट पानी मिले?