लेखक
आजादी के समय देश में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल उपलब्धता 5000 घन मीटर थी जो न्यूनतम जरूरत की ढाई गुनी थी। तब अन्तरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर हम भी जल सम्पन्न देशों की सूची में थे। नब्बे का दशक आते-आते जनसंख्या इतनी बढ़ गई कि प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल की आवश्यकता के लिहाज से हम सीमान्त स्थिति में पहुँच गए। जल प्रबन्धन के लगभग सारे लक्ष्य हासिल करने के बावजूद खेत तक सिंचाई का पानी पहुँचाने की हमारी हैसियत जवाब देती जा रही थी। जल संकट सामान्य अनुभव है। तीस साल पहले हमने इस संकट की तीव्रता महसूस की थी और बेहतर जल प्रबधन के लिये गम्भीरता से काम करना शुरू किया था। हालांकि आजादी मिलने के फौरन बाद ही जब पहली योजना बनाने का काम शुरू हुआ तब सिंचाई प्रणाली को और ज्यादा विस्तार देने की बात हमारे नेताओं ने समझ ली थी। तभी बाँध परियोजनाओं पर तेजी से काम शुरू कर लिया गया। हालांकि सन् 1950 का वह समय ऐसा था कि देश की आबादी 36 करोड़ थी।
देश के पास प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल उपलब्धता पाँच हजार घनमीटर थी। यानी अन्तरराष्ट्रीय मानदंडों के मुताबिक हर व्यक्ति की जरूरत से ढाई गुना पानी उपलब्ध था। लेकिन इस पानी का इस्तेमाल करने लायक हम नहीं थे। ज्यादातर खेती वर्षा आधारित थी। खेती के उपकरणों का इस्तेमाल ना के बराबर था। जैसे-तैसे जरूरत भर का अनाज पैदा करने की कोशिश शुरू हुई। उसी का नतीजा था कि ब्रिटिश सरकार की बनाई सिंचाई व्यवस्था को तेजी से विस्तार देने का काम शुरू किया गया।
नई-नई लोकतांत्रिक सरकार के सामने देश की माली हालत का मसला भी सामने था। नेहरू युग के नाम से प्रसिद्ध उस काल में कृषि और उद्योग को एक साथ एक सा जोर देकर चलने की रणनीति बनी और एक दशक के भीतर ही पूरी दुनिया में यह माना जाने लगा कि आजाद भारतवर्ष अपनी सार सम्भाल खुद करने में सक्षम है। हालांकि सूखे और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण दो चार साल के व्यवधान के बाद साठ के दशक के अन्त तक हरित क्रान्ति का लक्ष्य हासिल कर लिया गया। इस क्रान्ति में जल प्रबन्धन की सबसे बड़ी भूमिका रही। अनाज के आयात की परिस्थितियाँ बदल दी गईं।
इसी बीच पंचवर्षीय परियोजनाओं की समीक्षा करने लायक अनुभव भी हमारे पास था। इसी समीक्षा से हमें पता चला कि देश में बढ़ती जनसंख्या की रफ्तार भी एक बड़ी समस्या है। साठ के दशक के अन्तिम वर्षों में परिवार नियोजन के कार्यक्रमों पर जोर दूरगामी योजनाओं का हिस्सा बताया गया लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में यही कार्यक्रम सरकार के विरोध और आलोचना का सबसे बड़ा माध्यम बनाया गया।
विरोध में इतना आक्रामक और जबरदस्त प्रचार चला कि आगे से इस कार्यक्रम और सम्बन्धित विभाग का नाम बदलकर परिवार कल्याण कर दिया गया। परिवार नियोजन के नाम से सर्वज्ञात उस कार्यक्रम के विरोध के कारणों पर विश्वसनीय शोध और तटस्थ विश्लेषण अभी तक उपलब्ध नहीं है। क्यों नहीं है? यह भी उतना ही शोध का विषय है। लेकिन सामान्य और प्रत्यक्ष अनुभव है कि परिवार नियोजन के प्रति जागरुकता कम नहीं हुई।
समाज में उसकी स्वीकार्यता न तब कम थी और न आज कम है। यानी कटघरे में कोई आएगा तो वह सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र ही आएगा। बल्कि आज स्थिति यह है कि समाज के ही बड़े तबके से यह माँग उठने लगी है कि चीन की तरह ही हमें भी कारगर कानून बना कर जनसंख्या प्रबन्धन करना चाहिए। वरना प्राकृतिक संसाधनों में सबसे महत्त्वपूर्ण संसाधन पानी की जरूरत को पूरा करने में भी हम अक्षम होते जा रहे हैं। इस बात के लिये आइए 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस पर गाज़ियाबाद में आयोजित अकादमिक विमर्श में प्रस्तुत एक वरिष्ठ जल विज्ञानी की शोधपरक प्रस्तुति के तथ्य देखें।
विशेषज्ञ प्रस्तुति में बताया गया कि देश के पास हर साल वर्षा के रूप में सिर्फ 4000 घन किलोमीटर पानी उपलब्ध होता है। पर्यावरणीय और अन्य प्राकृतिक कारणों से हम यह पूरा पानी इस्तेमाल नहीं कर सकते। इस्तेमाल करने लायक कुल उपलब्ध पानी की मात्रा सिर्फ 1800 घन किलोमीटर है। यह उपलब्धता डेढ़ सौ साल के आँकड़ों के आधार पर बिल्कुल स्थिर है और इसके बढ़ने या बढ़ाए जाने की सम्भावना हमारे सामने नहीं है।
इस जल उपलब्धता के आधार पर ही आजादी के समय देश में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल उपलब्धता 5000 घन मीटर थी जो न्यूनतम जरूरत की ढाई गुनी थी। तब अन्तरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर हम भी जल सम्पन्न देशों की सूची में थे। नब्बे का दशक आते-आते जनसंख्या इतनी बढ़ गई कि प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल की आवश्यकता के लिहाज से हम सीमान्त स्थिति में पहुँच गए। जल प्रबन्धन के लगभग सारे लक्ष्य हासिल करने के बावजूद खेत तक सिंचाई का पानी पहुँचाने की हमारी हैसियत जवाब देती जा रही थी।
इतना ही नहीं पीने के पानी के लिये शहरी इलाकों से माँग आने लगी। राजधानी दिल्ली इस बात के लिये सबसे बड़ा सबूत है। जितना पानी उपलब्ध था उसके प्रबन्धन के लिये नए बाँधों और जलाशयों को बनाने के अलावा कोई व्यावहारिक उपाय सोचा नहीं जा सका और जो आज भी नहीं सूझता। लेकिन तब की सरकार के खिलाफ आन्दोलन के रूप में बड़े बाँधों का विरोध शुरू हो गया।
देश के मेधावी और कार्यकुशल जल विज्ञानियों की दिन रात की मेहनत के बावजूद आधी से ज्यादा परियोजनाओं के शुरू होने में कई-कई साल की देरी हुई। तब बनाई गई कई बाँध परियोजनाएँ आज तक अटकी पड़ी हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं में रेणुका और किशाउ जैसी बाँध परियोजनाओं के नाम गिनाए जा सकते हैं।
बड़ी हैरत की बात है कि आज उन्हीं बड़े बाँधों के पक्ष में माँग उठना शुरू हो गया है। बारहों महीने अविरल धारा और निर्मल धारा के पक्ष में भी सतही जल के भण्डारण को बढ़ाने की बातें नए रूप में होने लगी हैं। बदली हुई मानवकृत स्थितियों में जल भण्डारण के अलावा कोई दूसरा उपाय किसी को नहीं सूझता।
पानी की बढ़ती माँग का आलम यह है कि भूजल स्तर के नीचे गिरते जाने की समस्या को देखते हुए खेत के दसवें हिस्से में तालाब बनाने का प्रयोग शुरू हुआ है। यह अलग बात है कि फिलहाल यह काम स्वयंसेवी संस्थाओं के स्तर पर दिखता है। यानी इसे एक्शन रिसर्च श्रेणी में ही रखा जा सकता है। किसानों को समझा कर उन्हें अपनी जमीन के दसवें हिस्से में तालाब बनाने को उनके लिये बहुत फायदेमन्द बताते हुए काम बढ़ाया जा रहा है।
अब तक के अनुभव से पता चल रहा है कि जल संकट से बुरी तरह जूझ रहे किसानों को बेशक फायदा मिल रहा है। लेकिन इसकी दीर्घकालिकता और वित्तीय व्यावहारिकता का पता एक्शन रिसर्च की रिपोर्ट के बाद ही चल पाएगा। वैसे गैरसरकारी स्तर पर तालाब खुदवाने के पिछले तीन दशकों में जो बहुप्रचारित काम हुए हैं उनकी भी वित्तीय व्यावहारिकता का विश्वसनीय अध्ययन हमें उपलब्ध नहीं है। ऐसे महत्त्वपूर्ण काम के लिये अभी हमारे पास विश्वसनीय और स्वतंत्र एजेंसियाँ भी नहीें हैं।
देश में ऐसा माहौल भी नहीं बन पाया है कि केन्द्र या राज्य सरकारें ऐसे काम में दिलचस्पी लेने का जोखिम उठा सकें। यह काम सैद्धान्तिक रूप से इसलिये भी कठिन लगता है क्योंकि सरकारी जल विज्ञानी इस समस्या से जूझ रहे हैं कि उनकी परियोजनाओं के लिये जल ग्रहण क्षेत्र से पानी कम आने लगा है। जिस तरह से पानी के लिये मारा-मारी बढ़ रही है उससे हम आसानी से अनुमान लगा सकते हैं कि ऐसे कामों के लिये कानूनी प्रावधान बनाने में कितनी मुश्किल खड़ी होने वाली हैं।
यह अनागत समस्या हम इस नजरिए से देख रहे हैं कि हर साल आबादी बढ़ने का आँकड़ा दो करोड़ है। यानी हमें हर साल दो करोड़ गुणा दो हजार घनमीटर अतिरिक्त पानी उपयोग में लाने की योजना बनाना है। यह मात्रा चालीस घन किलोमीटर यानी चालीस अरब घन मीटर बैठती है। एक घन मीटर सतही जल को उपयोग में लाने योग्य बनाने के लिये यानी बारिश के पानी को रोककर रखने का इन्तज़ाम करने के लिये कम-से-कम तीन सौ रूपए का खर्चा आता है।
इस तरह 40 अरब घन मीटर पानी के प्रबन्ध के लिये हर साल अतिरिक्त छह लाख करोड़ रूपए का खर्चा आएगा। ऐसी सनसनीखेज हालत की बात करने के बाद यह सवाल उठना लाजिमी है कि अब तक योजनाकारों ने प्रबन्ध कैसे किया? दरअसल यह इन्तजाम अब तक भूजल से होता आया। हिन्दी इण्डिया वाटर पोर्टल के लिये हाल ही में लिखे शोधपरक आलेखों में मोटा अनुमान लगाया गया है कि हम हर साल भूजल के इस्तेमाल की मात्रा कई-कई घन किलोमीटर के हिसाब से बढ़ाते रहे हैं।
सतही जल के प्रबन्धन पर अपनी सारी ताकत लगाने के बाद उद्योग जगत के तमाम दबावों को झेलते हुए कृषि और सिंचाई पर ज्यादा खर्च बढ़ाने का यही कारण रहा है। हालांकि यह तर्क जोरदारी के साथ पेश कभी नहीं किया गया। शायद इसलिये नहीं किया गया होगा कि अपने सालाना बजट का आकार हमें उद्योग जगत की हिस्सेदारी से बना हुआ दिखता है। इसके प्रचार और उनके दबाव का क्या कहना?
यानी वैसी विकट परिस्थितियों में भी पूर्व के योजनाकार पिछले चार दशकों से सतर्कता बनाए हुए थे। लेकिन मौजूदा राजनीतिक और बौद्धिक क्षेत्र में जल प्रबन्धन को लेकर वैसी बुद्धिमत्ता का संकेत दिखाई नहीं देता। अभी तो यह भी पता नहीं है कि योजना आयोग क्यों मिटा दिया गया है या उसका नाम बदल कर नीति आयोग क्यों कर किया गया है। लेकिन इधर अब बिल्कुल भी सुनने को नहीं मिलता कि साल-दर-साल बढ़ती दो करोड़ की आबादी के लिये खाने-पीने नहाने-धोने के लिये सबसे पहली जरूरत पानी के इन्तजाम के लिये हो क्या रहा है? हो सकता है कि आग लगे पर कुआँ खोदा जाए। सब जानते हैं तब कुछ भी नहीं हो पाता, सिर्फ बहाने बनाने के अलावा।
देश के पास प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल उपलब्धता पाँच हजार घनमीटर थी। यानी अन्तरराष्ट्रीय मानदंडों के मुताबिक हर व्यक्ति की जरूरत से ढाई गुना पानी उपलब्ध था। लेकिन इस पानी का इस्तेमाल करने लायक हम नहीं थे। ज्यादातर खेती वर्षा आधारित थी। खेती के उपकरणों का इस्तेमाल ना के बराबर था। जैसे-तैसे जरूरत भर का अनाज पैदा करने की कोशिश शुरू हुई। उसी का नतीजा था कि ब्रिटिश सरकार की बनाई सिंचाई व्यवस्था को तेजी से विस्तार देने का काम शुरू किया गया।
नई-नई लोकतांत्रिक सरकार के सामने देश की माली हालत का मसला भी सामने था। नेहरू युग के नाम से प्रसिद्ध उस काल में कृषि और उद्योग को एक साथ एक सा जोर देकर चलने की रणनीति बनी और एक दशक के भीतर ही पूरी दुनिया में यह माना जाने लगा कि आजाद भारतवर्ष अपनी सार सम्भाल खुद करने में सक्षम है। हालांकि सूखे और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण दो चार साल के व्यवधान के बाद साठ के दशक के अन्त तक हरित क्रान्ति का लक्ष्य हासिल कर लिया गया। इस क्रान्ति में जल प्रबन्धन की सबसे बड़ी भूमिका रही। अनाज के आयात की परिस्थितियाँ बदल दी गईं।
इसी बीच पंचवर्षीय परियोजनाओं की समीक्षा करने लायक अनुभव भी हमारे पास था। इसी समीक्षा से हमें पता चला कि देश में बढ़ती जनसंख्या की रफ्तार भी एक बड़ी समस्या है। साठ के दशक के अन्तिम वर्षों में परिवार नियोजन के कार्यक्रमों पर जोर दूरगामी योजनाओं का हिस्सा बताया गया लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में यही कार्यक्रम सरकार के विरोध और आलोचना का सबसे बड़ा माध्यम बनाया गया।
विरोध में इतना आक्रामक और जबरदस्त प्रचार चला कि आगे से इस कार्यक्रम और सम्बन्धित विभाग का नाम बदलकर परिवार कल्याण कर दिया गया। परिवार नियोजन के नाम से सर्वज्ञात उस कार्यक्रम के विरोध के कारणों पर विश्वसनीय शोध और तटस्थ विश्लेषण अभी तक उपलब्ध नहीं है। क्यों नहीं है? यह भी उतना ही शोध का विषय है। लेकिन सामान्य और प्रत्यक्ष अनुभव है कि परिवार नियोजन के प्रति जागरुकता कम नहीं हुई।
समाज में उसकी स्वीकार्यता न तब कम थी और न आज कम है। यानी कटघरे में कोई आएगा तो वह सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र ही आएगा। बल्कि आज स्थिति यह है कि समाज के ही बड़े तबके से यह माँग उठने लगी है कि चीन की तरह ही हमें भी कारगर कानून बना कर जनसंख्या प्रबन्धन करना चाहिए। वरना प्राकृतिक संसाधनों में सबसे महत्त्वपूर्ण संसाधन पानी की जरूरत को पूरा करने में भी हम अक्षम होते जा रहे हैं। इस बात के लिये आइए 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस पर गाज़ियाबाद में आयोजित अकादमिक विमर्श में प्रस्तुत एक वरिष्ठ जल विज्ञानी की शोधपरक प्रस्तुति के तथ्य देखें।
विशेषज्ञ प्रस्तुति में बताया गया कि देश के पास हर साल वर्षा के रूप में सिर्फ 4000 घन किलोमीटर पानी उपलब्ध होता है। पर्यावरणीय और अन्य प्राकृतिक कारणों से हम यह पूरा पानी इस्तेमाल नहीं कर सकते। इस्तेमाल करने लायक कुल उपलब्ध पानी की मात्रा सिर्फ 1800 घन किलोमीटर है। यह उपलब्धता डेढ़ सौ साल के आँकड़ों के आधार पर बिल्कुल स्थिर है और इसके बढ़ने या बढ़ाए जाने की सम्भावना हमारे सामने नहीं है।
इस जल उपलब्धता के आधार पर ही आजादी के समय देश में प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल उपलब्धता 5000 घन मीटर थी जो न्यूनतम जरूरत की ढाई गुनी थी। तब अन्तरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर हम भी जल सम्पन्न देशों की सूची में थे। नब्बे का दशक आते-आते जनसंख्या इतनी बढ़ गई कि प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष जल की आवश्यकता के लिहाज से हम सीमान्त स्थिति में पहुँच गए। जल प्रबन्धन के लगभग सारे लक्ष्य हासिल करने के बावजूद खेत तक सिंचाई का पानी पहुँचाने की हमारी हैसियत जवाब देती जा रही थी।
इतना ही नहीं पीने के पानी के लिये शहरी इलाकों से माँग आने लगी। राजधानी दिल्ली इस बात के लिये सबसे बड़ा सबूत है। जितना पानी उपलब्ध था उसके प्रबन्धन के लिये नए बाँधों और जलाशयों को बनाने के अलावा कोई व्यावहारिक उपाय सोचा नहीं जा सका और जो आज भी नहीं सूझता। लेकिन तब की सरकार के खिलाफ आन्दोलन के रूप में बड़े बाँधों का विरोध शुरू हो गया।
देश के मेधावी और कार्यकुशल जल विज्ञानियों की दिन रात की मेहनत के बावजूद आधी से ज्यादा परियोजनाओं के शुरू होने में कई-कई साल की देरी हुई। तब बनाई गई कई बाँध परियोजनाएँ आज तक अटकी पड़ी हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं में रेणुका और किशाउ जैसी बाँध परियोजनाओं के नाम गिनाए जा सकते हैं।
बड़ी हैरत की बात है कि आज उन्हीं बड़े बाँधों के पक्ष में माँग उठना शुरू हो गया है। बारहों महीने अविरल धारा और निर्मल धारा के पक्ष में भी सतही जल के भण्डारण को बढ़ाने की बातें नए रूप में होने लगी हैं। बदली हुई मानवकृत स्थितियों में जल भण्डारण के अलावा कोई दूसरा उपाय किसी को नहीं सूझता।
पानी की बढ़ती माँग का आलम यह है कि भूजल स्तर के नीचे गिरते जाने की समस्या को देखते हुए खेत के दसवें हिस्से में तालाब बनाने का प्रयोग शुरू हुआ है। यह अलग बात है कि फिलहाल यह काम स्वयंसेवी संस्थाओं के स्तर पर दिखता है। यानी इसे एक्शन रिसर्च श्रेणी में ही रखा जा सकता है। किसानों को समझा कर उन्हें अपनी जमीन के दसवें हिस्से में तालाब बनाने को उनके लिये बहुत फायदेमन्द बताते हुए काम बढ़ाया जा रहा है।
अब तक के अनुभव से पता चल रहा है कि जल संकट से बुरी तरह जूझ रहे किसानों को बेशक फायदा मिल रहा है। लेकिन इसकी दीर्घकालिकता और वित्तीय व्यावहारिकता का पता एक्शन रिसर्च की रिपोर्ट के बाद ही चल पाएगा। वैसे गैरसरकारी स्तर पर तालाब खुदवाने के पिछले तीन दशकों में जो बहुप्रचारित काम हुए हैं उनकी भी वित्तीय व्यावहारिकता का विश्वसनीय अध्ययन हमें उपलब्ध नहीं है। ऐसे महत्त्वपूर्ण काम के लिये अभी हमारे पास विश्वसनीय और स्वतंत्र एजेंसियाँ भी नहीें हैं।
देश में ऐसा माहौल भी नहीं बन पाया है कि केन्द्र या राज्य सरकारें ऐसे काम में दिलचस्पी लेने का जोखिम उठा सकें। यह काम सैद्धान्तिक रूप से इसलिये भी कठिन लगता है क्योंकि सरकारी जल विज्ञानी इस समस्या से जूझ रहे हैं कि उनकी परियोजनाओं के लिये जल ग्रहण क्षेत्र से पानी कम आने लगा है। जिस तरह से पानी के लिये मारा-मारी बढ़ रही है उससे हम आसानी से अनुमान लगा सकते हैं कि ऐसे कामों के लिये कानूनी प्रावधान बनाने में कितनी मुश्किल खड़ी होने वाली हैं।
यह अनागत समस्या हम इस नजरिए से देख रहे हैं कि हर साल आबादी बढ़ने का आँकड़ा दो करोड़ है। यानी हमें हर साल दो करोड़ गुणा दो हजार घनमीटर अतिरिक्त पानी उपयोग में लाने की योजना बनाना है। यह मात्रा चालीस घन किलोमीटर यानी चालीस अरब घन मीटर बैठती है। एक घन मीटर सतही जल को उपयोग में लाने योग्य बनाने के लिये यानी बारिश के पानी को रोककर रखने का इन्तज़ाम करने के लिये कम-से-कम तीन सौ रूपए का खर्चा आता है।
इस तरह 40 अरब घन मीटर पानी के प्रबन्ध के लिये हर साल अतिरिक्त छह लाख करोड़ रूपए का खर्चा आएगा। ऐसी सनसनीखेज हालत की बात करने के बाद यह सवाल उठना लाजिमी है कि अब तक योजनाकारों ने प्रबन्ध कैसे किया? दरअसल यह इन्तजाम अब तक भूजल से होता आया। हिन्दी इण्डिया वाटर पोर्टल के लिये हाल ही में लिखे शोधपरक आलेखों में मोटा अनुमान लगाया गया है कि हम हर साल भूजल के इस्तेमाल की मात्रा कई-कई घन किलोमीटर के हिसाब से बढ़ाते रहे हैं।
सतही जल के प्रबन्धन पर अपनी सारी ताकत लगाने के बाद उद्योग जगत के तमाम दबावों को झेलते हुए कृषि और सिंचाई पर ज्यादा खर्च बढ़ाने का यही कारण रहा है। हालांकि यह तर्क जोरदारी के साथ पेश कभी नहीं किया गया। शायद इसलिये नहीं किया गया होगा कि अपने सालाना बजट का आकार हमें उद्योग जगत की हिस्सेदारी से बना हुआ दिखता है। इसके प्रचार और उनके दबाव का क्या कहना?
यानी वैसी विकट परिस्थितियों में भी पूर्व के योजनाकार पिछले चार दशकों से सतर्कता बनाए हुए थे। लेकिन मौजूदा राजनीतिक और बौद्धिक क्षेत्र में जल प्रबन्धन को लेकर वैसी बुद्धिमत्ता का संकेत दिखाई नहीं देता। अभी तो यह भी पता नहीं है कि योजना आयोग क्यों मिटा दिया गया है या उसका नाम बदल कर नीति आयोग क्यों कर किया गया है। लेकिन इधर अब बिल्कुल भी सुनने को नहीं मिलता कि साल-दर-साल बढ़ती दो करोड़ की आबादी के लिये खाने-पीने नहाने-धोने के लिये सबसे पहली जरूरत पानी के इन्तजाम के लिये हो क्या रहा है? हो सकता है कि आग लगे पर कुआँ खोदा जाए। सब जानते हैं तब कुछ भी नहीं हो पाता, सिर्फ बहाने बनाने के अलावा।