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पृथ्वी दिवस पर विशेष
बेमौसम बारिश, बारिश के दिनों में पानी कम गिरना और इन आपदाओं की आवृत्ति दशक-दर-दशक बढ़ना प्रत्यक्ष रूप से नई जरूर है लेकिन विशेषज्ञों ने दशकों पहले आगाह करना शुरू कर दिया था। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर 1980 और 1990 के दशकों में कई गम्भीर विचार-विमर्श हो चुके हैं। हालांकि जलवायु परिवर्तन के नाम से जब भी इस संकट पर बात हुई वह भूताप यानी ग्लोबल वार्मिंग के इर्द-गिर्द घूमती रहीं। और भूताप का मसला कार्बन उत्सर्जन करने वाले उद्यमों-उपक्रमों पर चिन्ता जताने के आगे ज्यादा नहीं बढ़ पाया।
कुछ दिनों या महीनों के अन्तर से मौसम का बदलना चाहे नियमित हो या अनियमित हो, इसे हम ऋतु परिवर्तन या मौसम का बदलना कहते हैं। और इस बदलाव को पृथ्वी के भीतर या बाहर यानी वायुमण्डल की हलचल के कारण समझते आए हैं। मौसम के बदलने को हमने प्रकृति की देन समझा और अपने मुताबिक उसे बदलने की कोशिश नहीं की बल्कि उन बदलावों से अनकूलन कर लिया और अपने जीवनयापन के प्रबन्ध उसी के मुताबिक हमने करना सीख लिया।
लेकिन स्थाई या दीर्घकालिक प्रवृत्ति के रूप में जलवायु का बदलना हमारे सामने चुनौती खड़ा कर रहा है। इसे हम आजकल जलवायु परिवर्तन के खतरों के तौर पर देखते हैं। पृथ्वी में प्राकृतिक बदलावों को नियन्त्रित करना हमारे बूते के बाहर है। लेकिन मानव के अपने उद्यम या गतिविधि से अगर जलवायु परिवर्तन की संकटपूर्ण स्थिति बनती हो तो गम्भीरता से सोचना पड़ेगा।
वैज्ञानिक अध्ययनों से निकले तथ्य बताते हैं कि पृथ्वी की रचना के साढ़े चार अरब साल का इतिहास उथल-पुथल भरा रहा है। विभिन्न कालखण्डों में तरह-तरह के बदलाव हुए। ये बदलाव चक्री क्रम में भी हुए और कई बार अनियमित रूप से भी। और कभी अपरिवर्तन या जड़त्व या स्थिरता के भी दौर रहे।
ऐसी परिस्थितियाँ भी मानव के अनुकूल नहीं रही। फिर भी मानव इतिहास के पूरे सवा करोड़ साल के इतिहास में रामापिथीकस, आस्ट्रेलोपिथीकस, होमोइरेक्टस, नियंडरथल, और होमो सेपेयंस जाति प्रजाति का मानव इन परिवर्तनों से अनुकूलन करता हुआ अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं। वरना जीव की कई प्रजातियाँ तो जलवायु से अनुकूलन ना करने के कारण काल के गाल में समा गईं।
बहरहाल पृथ्वी के बड़े परिवर्तनों में संयोग रहा हो या अनुकूलन लायक परिस्थितियों में मानव के बुद्धि कौशल के कारण रहा हो-पृथ्वीवासी मानव विकास करता हुआ यहाँ तक पहुँचा है लेकिन बीसवें सदी के अन्त में हमारे संज्ञान में आया पृथ्वी का विकासक्रम कुछ नई चुनौतियाँ खड़ी कर गया है। उन्हीं में एक जलवायु परिवर्तन की विकट चुनौती है।
जलवायु परिवर्तन के क्रमिक इतिहास पर गौर करें तो भूताप में परिवर्तन के कारण ग्लेशियरों के बनने-बिगड़ने की कहानी 54 करोड़ साल पीछे जाती है। तब से आज तक ग्लेशियर साईकिल के कई दौर हुए हैं। इनमें सबसे नया अब से एक लाख बीस हजार साल पहले से लेकर अब से साढ़े ग्यारह हजार साल पहले का है।
भूगर्भशास्त्री इसे जलवायु के इंटरग्लेशियर साईकिल के नाम से पढ़ते-पढ़ाते हैं। उनका अनुमान है कि पिछले बारह हजार साल पहले शुरू हुए होलोसीन (holocene) दौर के बिल्कुल आखिरी दौर में यह पृथ्वी है। कुछ ही सदियों में यह चक्र भी पूरा होने को है। वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर उनका यह भी पूर्वानुमान है की मौजूदा चक्र पूरा होने के बाद फिर हिमयुग की परिस्थितियाँ बनेंगी। और यह भावी युग मौजूदा चक्र से काफी लम्बा होगा बशर्ते मानव उसमें दखलअन्दाजी ना करें।
यानी हम पृथ्वीवासी इंटरग्लेशियर चक्र के अन्तिम दौर में है और मौजूदा होलोसीन काल पृथ्वी के क्रमिक रूप से तप्त होने का दौर है। भूताप के कारण ग्लेशियरों का हर साल बनने/बढ़ने की तुलना में ज्यादा पिघलना जारी है। अपने स्वार्थ को सामने रख कर देखें तो हमारा सरोकार हिमालय क्षेत्र से ज्यादा है। पूरी दुनिया के लिये भी यह क्षेत्र कम महत्त्व का नहीं है।
उम्र के लिहाज से हिमालय का कुछ नया (किशोर) होना और अपनी रचना की प्रक्रिया के दौर से गुजरना इसके महत्त्व को ज्यादा ही बढ़ा देता है। और फिर भारतवर्ष के लिये तो हिमालय प्रकृति की बड़ी कृपापूर्ण देन है। पृथ्वी पर मानव रूप के उद्गम से कोई बीस लाख साल बाद अस्तित्व में आया हिमालय वही है जहाँ के ग्लेशियरों से गंगा और यमुना नदियाँ निकलती हैं। देश के आधे से ज्यादा भूभाग पर हुई बारिश का पानी ये नदियाँ ही धारण करती हैं।
देश की विलक्षण जलवायु में बारिश और सर्दियों के बाद छः महीने पिघलते ग्लेशियरों का जल लेकर यही नदियाँ देश के मैदानी इलाकों से गुजरती हैं। भूगर्भशास्त्री कैलेण्डर के लिहाज से नया-नया बना हिमालय वही है जिसके बनने के बाद ही भारतीय उपमहाद्वीप की जलवायु बदली उसके बाद ही साइबेरिया और मध्य एशिया से आने वाली बर्फीली हवाएँ हिमालय ने ही रोकना शुरू की। हिमालय के रूप में पाँच सौ से आठ हजार मीटर ऊँची पर्वत मालाओं के कारण ही भारतवर्ष को वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर और हेमन्त का क्रमिक ऋतुचक्र मिला।
भूगर्भशास्त्र के अध्येयता डॉ. त्रिलोचन सिंह के मुताबिक होलोसीन चरण में चल रहे इस दौर में हिमालय के विकास की प्रक्रिया अभी जारी है हिमालय की भूआकृति बदल रही है। उसके भूदृश्य बार-बार नए आकार ले रहे हैं। उन्हीं के चलते जलवायु में बदलाव हो रहे हैं। इनमें एक खास बदलाव यह देखा गया है कि हिमालय पर हिमपात की बजाय बारिश बढ़ रही है स्थिति यह है कि काफी ऊँचाई पर भी बारिश होने लगी है। नतीजतन ग्लेशियरों का पिघलना भी बढ़ गया है। पिछले दशकों में हिमालय में आँधी के साथ भारी बारिश और बादल फटने की आवृत्तियाँ बढ़ने की घटनाएँ दर्ज हुई हैं। इसका एक बड़ा कारण भूताप में बढ़ोत्तरी को माना गया है।
भारतीय उपमहाद्वीप और खासतौर पर भारतवर्ष के भूभाग में औसत वार्षिक तापमान बढ़ने का आँकड़ा चौंकाने वाला है। सन् 1881 से 2003 के बीच भारत में औसत तापमान 0.05 डिग्री सेल्सियस प्रति दस साल की दर से बढ़ा यह आँकड़ा सवा सौ साल के बीच का है।
अगर पिछले कुछ ही वर्षों के पर्यवेक्षण देखें तो 1971 से 2003 के बीच यह तापमान वृद्धि 0.22 डिग्री सेल्सियस यानी लगभग चार गुनी रफ्तार से बढ़ती हुई दर्ज की गई। और गौर करने लायक यह बात है कि बीसवीं सदी के आखिरी दशक में तापमान वृद्धि एक अपूर्व घटना रही।
जलवायु परिवर्तन के कारण बेमौसम बारिश और औसत बारिश का आँकड़ा बढ़ना एक समस्या है लेकिन उतना ही बड़ा संकट सूखे का है जो जलवायु परिवर्तन के कारण ही भारत के कई भागों को चिन्तित करता है। सूखा या देर से बारिश से तीसरी समस्या भूजल स्तर में गिरावट की खड़ी होती है। देश के सतही जल की मात्रा प्रति व्यक्ति माँग के लिहाज से जिस रफ्तार से कम हो रही है उसे भूजल से ही हम जैसे-तैसे संभाले हुए है। हमें देश में नए शहरों को बसाने की इच्छा या तमन्ना को लेकर भी ये विशेषज्ञ आगाह कर रहे हैं। हाल ही में किए गए अध्ययनों से यह भी पता चला है कि गर्म हवाओं की अवधि ज्यादा हो गई है। दिन ज्यादा गर्म होने लगे हैं। रात का औसत तापमान भी कुछ बढ़ गया है पिछले कुछ साल से भूगर्भशास्त्री इसी बदलाव के कारण गर्मियों में बारिश बढ़ने के अन्देशे जता रहे हैं। सन् 2015 की बेमौसम बारिश को हम उन्हीं अन्देशों के हिसाब से देख सकते हैं।
लगे हाथ यहाँ हमें 2008 की आईपीसीसी की उस रिपोर्ट का जिक्र भी कर लेना चाहिए जिसके मुताबिक मानसून के दिनों में कम बारिश और भूताप की प्रवृत्ति के कारण दक्षिण एशियाई देशों के दलदली इलाके सूखते जाने की बात है।
इसी सिलसिले में हिमालयी क्षेत्र पर 1970 में हुए गहन शोध सर्वेक्षण से सिद्ध हुआ था कि हिमालय में ऊँचाई वाली जगहों पर औसत तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी हुई। इसे ही नेपाल और तिब्बत के इलाकों में तापमान बढ़ने से जोड़ा गया। इस पर्यवेक्षण की खास बात यह थी कि ऊँचाई वाले इलाकों में तापमान वृद्धि नीचे के इलाकों की तुलना में ज्यादा थी।
इन्हीं निरन्तर बदलावों के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि 2030 तक औसत तापमान वृद्धि की दर 0.9 डिग्री सेल्सियस से बढ़कर 2.6 डिग्री सेल्सियस हो जाएगी। यह संकट मुख्य रूप से उत्तर भारत और हिमालयी क्षेत्र मे होगा। निष्कर्ष यह निकलता है कि जलवायु बदलाव से प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में हिमालय क्षेत्र ही संकट की सबसे ज्यादा चपेट में है इसका कारण वैज्ञानिक यह बताते है कि हिमालय भूपारिस्थितिकीय रूप से भंगुर है। दूसरा प्रमुख कारण हिमालय क्षेत्र में बहुत ही तेजी से बढ़ती आबादी को सिद्ध किया गया है।
सन् 1991 से 2001 के बीच यहाँ की आबादी 25 फीसद बढ़ी। जबकि 2001 से 2006 के बीच यानी पाँच साल में ही यह आँकड़ा 20 फीसद बढ़ गया। यानी हिमालय क्षेत्र में जनसंख्या वृद्धि का आँकड़ा 4 फीसद प्रतिवर्ष बैठता है। जनसंख्या वृद्धि का सीधा प्रभाव भूक्षरण और भूजल प्रदूषण पर पड़ रहा है।
बहरहाल हिमालयी क्षेत्र में ग्लेशियरों के पिघलकर छोटे होने की प्रत्यक्ष घटना हमारे सामने है। वैज्ञानिकों ने यह भी बता दिया है कि ग्लेश्यिरों के पिघलने से बहा हुआ पानी ऊपर ही अस्थाई रूप से बन जाने वाली झीलों में जमा हो जाता है। यह झीलें ढाँचे के तौर पर बहुत ही कमजोर होती हैं और बहुत ही अस्थिर होती हैं। ज्यादा पानी के वजन से यह अचानक टूट जाती हैं और भयानक बाढ़ ला देती है। इस घटना को भूगर्भीय भाषा में ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ) कहा जाता है।
पिछले दिनों श्रीनगर में आई बाढ़ के कारणों पर ज्यादा हिसाब नहीं लगाया गया लेकिन भारी तबाही के बाद जीएलओएफ जैसी स्थाई प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन भले ही हमें फौरीतौर पर काम का ना लगे लेकिन भविष्य में बचाव और आपदा प्रबन्धन के लिये यह ज्ञान और तत्व बढ़े उपयोगी हो सकते हैं। दूर संवेदी प्रौद्योगिकी की एक-से-एक बढ़कर बारीक प्रणालियाँ आज हमें उपलब्ध हैं। हम चाहें तो हिमालय की हर हलचल पर पलपल नजर रख सकते हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण बेमौसम बारिश और औसत बारिश का आँकड़ा बढ़ना एक समस्या है लेकिन उतना ही बड़ा संकट सूखे का है जो जलवायु परिवर्तन के कारण ही भारत के कई भागों को चिन्तित करता है। सूखा या देर से बारिश से तीसरी समस्या भूजल स्तर में गिरावट की खड़ी होती है। इस बारे में प्रमुख जल विज्ञानी के.के जैन के मुताबिक देश के सतही जल की मात्रा प्रति व्यक्ति माँग के लिहाज से जिस रफ्तार से कम हो रही है उसे भूजल से ही हम जैसे-तैसे संभाले हुए है।
जल विज्ञान के विशेषज्ञ भारतवर्ष के जल चक्र की स्थिति पर हमें अलग से आगाह कर रहे हैं। हमें देश में नए शहरों को बसाने की इच्छा या तमन्ना को लेकर भी ये विशेषज्ञ आगाह कर रहे हैं। वे बता रहे हैं कि पृथ्वी पर जल संकट तो आसन्न है ही लेकिन भारतवर्ष तो पृथ्वी के उन देशों में है जो जल विपन्न देश की श्रेणी में आता है। ऊपर से जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे की तीव्रता और बढ़ने का अंदेशा हमारे सामने है।
आजादी के बाद से अब तक हमारी आबादी तीन गुनी हो चुकी है भारत के पास प्रकृति प्रदत्त जल उतना ही है जितना पैंसठ साल पहले था। दक्ष जल प्रबन्धन और अपनी राजनीतिक सूझबूझ से जल प्रबन्धन करते हुए हम यहाँ तक तो आ गए हैं लेकिन निकट भविष्य में जल संसाधन और बाढ़ व सूखे जैसे संकटों से निपटने का कोई विश्वसनीय उपाय या व्यवस्था अब हमें सोचनी ही पड़ेगी।