जितना विशाल पहाड़ है, उतना ही विशाल यहां रहने वाले पहाड़ियों (पर्वतीय लोग) का हौंसला होता है। वें जीवन की हर परेशानियों के आगे चट्टान की तरह खड़े हो जाते हैं, लेकिन हार कभी नहीं मानते। उनकी इसी जीवटता के कारण उत्तराखंड के पहाड़ियों का गौरवशाली इतिहास रहा है। सैंकड़ों गौरव गाथाएं यहां प्रसिद्ध हैं। सैंकड़ों बड़े आंदोलनों की नींव भी उत्तराखंड की धरती पर ही पड़ी है, जिनमें चिपको आंदोलन और उत्तराखंड पृथक राज्य आंदोलन अहम हैं। इन आंदोलनों में अग्रिम पंक्ति में महिलाएं ही थीं। एक तरह से जब भी पहाड़ पर कोई विपदा आती है, या यहां के लोगों के अधिकारों का हनन होता है, तो पर्वतीय नारी हमेशा सबसे आगे खड़ी मिलती हैं। पहाड़ की महिलाओं ने पहाड़ के दर्द को हमेशा अपने दर्द से ऊपर रखा है और पहाड़ की रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रही हैं, लेकिन इसी जीवट पहाड़ के लिए परेशानी बन रहा है, जल संकट।
पहाड़ों या हिमालयी क्षेत्रों को पानी का अहम स्रोत माना जाता है। यहां हजारों वर्ग किलोमीटर में फैले जंगलों से पानी की लाखों धाराएं निकलती हैं। कई छोटी नदियों का उद्गम भी इन्हीं पहाड़ियों से होता है। पहाड़ी इलाकों में रहने वाले लोग अपनी पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए इन्हीं प्राकृतिक स्रोतों (स्प्रिंग्स) पर निर्भर रहते हैं। कई इलाकों में इन्हीं स्रोतों से पेयजल योजनाएं भी संचालित की जा रही हैं। इससे कई इलाकों में लोगों के घरों तक पेयजल लाइन पहुंच गई है। एक प्रकार से प्रदेश के 86 प्रतिशत पानी की मांग प्राकृतिक स्रोतों से ही पूरी की जाती है, लेकिन आजादी के 72 सालों बाद भी उत्तराखंड के 9 लाख परिवारों के घरों में पानी का नल नहीं है। इनमें 3.79 लाख परिवार देहरादून, हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर के हैं, जबकि पहाड़ी जिलों के 5.32 हजार परिवार हैं।
वैसे तो केंद्र सरकार की योजना है कि ‘हर घर नल’ के माध्यम से इन घरों में पानी उपलब्ध कराया जाएगा, लेकिन इस कार्य में सरकार के सामने काफी चुनौतिया होंगी, क्योंकि राज्य में जल की उपलब्धता लगातार कम होती जा रही है। नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि ‘‘उत्तराखंड में अधिकांश नौले-धारे सूख चुके हैं। अकेले अल्मोड़ा में 83 प्रतिशत स्प्रिंग्स सूख गए हैं।’’ वहीं अमर उजाला में प्रकाशित स्टेट ऑफ एन्वायरमेंट रिपोर्ट के मुताबिक ‘‘राज्य के 16 हजार राजस्व गांवों में से 8800 गांवों को पानी की कमी का सामना करना पड़ रहा है। सबसे ज्यादा परेशानी पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, टिहरी और चमोली में है।’’ दरअसल, राज्य में 11 हजार से ज्यादा पेयजल योजनाएं पंचायतों को सौंपी जा चुकी हैं, पहाड़ी इलाकों में अधिकांश पेयजल योजनाएं या तो बहुत पुरानी हैं या जर्जर हालत में हैं। जिस कारण ठीक प्रकार के पानी का वितरण नहीं हो पाता हैं, या ये कहें कि कई योजनाएं पानी उपलब्ध कराने में असफल साबित हो रही हैं। अमर उजाला में प्रकाशित इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘‘प्रदेश में करीब 12 हजार प्राकृतिक जलस्रोत या तो सूख गए हैं, या सूखने की कगार पर हैं।’’ ये स्थिति प्रदेश में तब है, जब गंगा और यमुना जैसे 8 बड़ी नदियों का उद्गम उत्तराखंड़ से होता है।
उत्तराखंड में गहारते इस जल संकट का बोझ महिलाओं के कंधे पर ही पड़ता है। वें घर के सभी कामों को करने के अलावा पानी ढोने का कार्य भी करती हैं। जिससे उन्हें तमाम परेशानी तो होती है, लेकिन इन परेशानियों को वें कभी जग-जाहिर नहीं करतीं। रिपोर्ट के मुताबिक "उत्तराखंड़ 72 प्रतिशत महिलाओं को पानी लाने के लिए रोजाना घर से बाहर निकलना पड़ता है। इस काम में बच्चे उनका सहयोग करते हैं। लगभग 60 प्रतिशत महिलाओं को पानी लाने के लिए पर्वतीय इलाकों में आधा किलोमीटर तक चलना पड़ता है। तो वहीं दस प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं, जो इन पहाड़ी रास्तों में पानी लाने के लिए चार किलोमीटर तक की दूरी तय करती हैं।" ऐसे में पहाड़ की महिलाओं के सामने कई चुनौतिया हैं, लेकिन वें सभी चुनौतियों का हंसी-खुशी सामना करती हैं, किंतु समस्या तो अब यहां सरकार के सामने है। क्योंकि घटते जलस्तर के बीच सरकार को ‘हर घर नल से जल’ देना है। साथ ही ये भी सुनिश्चित करना है कि पानी साफ भी हो। अब देखना ये होगा कि सरकार ऐसा कबतक कर पाती है।
हिमांशु भट्ट (8057170025)