पंचायतों की महिलाएँ और स्वच्छता अभियान

Submitted by RuralWater on Thu, 06/02/2016 - 11:23

स्वच्छता अभियान की ‘चैम्पियन’ पंचायतों की महिलाएँ



.राजस्थान के ब्लाक आमेर में गाँव नांगल सुसावतान पंचायत की युवा सरपंच चांदनी तेज-तेज कदमों से गाँव के हर घर में घुसती और वहाँ बने शौचालय का दरवाजा खोलकर हमें दिखाती। गाँव के कच्चे-पक्के सभी घरों में शौचालय बने हुए थे। चांदनी पिछले दो महीनों से इसी काम में लगी है।

22 साल की चांदनी बीएड परीक्षा की तैयारी कर रही है। मई माह में ही उसकी परीक्षाएँ भी हैं। लेकिन उसे गाँवों के लोगों को खुले में शौच से मुक्त कराने की चुनौती की अधिक चिन्ता है। वह बताती है कि काम सरल नहीं था। बहुत से लोगों के घर पहले से शौचालय बने थे लेकिन उनके नाम सूची में थे। इन नामों को सूची से निकालना फिर नए नामों को शामिल करना, परिवारों को शौचालय निर्माण के लिये सरकार द्वारा 15 हजार रुपए का खर्च दिये जाने की जानकारी देना, फिर राशि को उनके अकाउंट में डलवाना। ये सभी प्रक्रिया पूरी करने में काफी भाग दौड़ करनी पड़ी।

लेकिन वह मानती हैं कि जो मुश्किलें गाँव की महिलाओं और लड़कियों को शौचालय न होने के कारण आ रही थी उसके सामने ये काम कठिन न था। आज चांदनी की पंचायत के पाँचों गाँवों के 1632 घरों में शौचालय बन चुके हैं। निरीक्षण की प्रक्रिया भी पूरी हो चुकी है लेकिन अभी प्रमाण पत्र मिलना बाकी है।

यहाँ के दौलत पुरा पंचायत की सरपंच वनिता राजावत पिछले साल दूसरी बार सामान्य सीट से चुनाव जीत कर सरपंच नियुक्त हुई हैं। आँगनवाड़ी वर्कर रह चुकी वनिता साफ-सफाई के बारे में बेहद जागरूक हैं। वह साफ कहती हैं, “हम महिलाएँ घर में गन्दगी सहन नहीं कर पातीं। पंचायतों का प्रतिनिधित्व करने से गाँव भी हमारे घर-परिवार बन जाते हैं। गाँव में गन्दगी फैले और घर परिवार की लड़कियाँ अपनी निजी सफाई और शौच की जरूरतों को पूरा न कर सके तो हमारा सरपंची करने का क्या फायदा?” इसलिये उसकी प्राथमिकता फिलहाल पंचायत के तीनों गाँवों को खुले में शौच से मुक्त बनाना है। वनिता का मानना है कि स्वच्छता अभियान की शुरुआत से उन्हें शौचालयों की जरूरत को पूरा करने की ताकत मिली है। 45 वर्षीय बीकॉम पास वनिता अब जी जान से इसी काम में जुटी हैं।

गुजरात राज्य की ‘नम्बर वन’ बन चुकी जवला ग्राम पंचायत की सरपंच सोनल बेन ने गाँव में शौचालय बनाने, पीने के पानी और साफ-सफाई बनाए रखने के लिये पाँच बार ग्राम पंचायत बुलाई और गाँव की महिलाओं को अपने साथ जोड़कर जल्द ही समूचे गाँव के हर घर में शौचालय बना डाले। आज उसके गाँव को साफ-सफाई और अन्य सभी सुविधाओं के चलते कई पुरस्कार मिल चुके हैं।

खुले में शौच की त्रासदी और पंचायत महिलाओं की भूमिका


चांदनी, वनिता, सोनल बेन की तरह देश की पंचायतों में नियुक्त अधिकतर महिलाएँ गाँवों में शौचालय बनाने और साफ-सफाई बनाए रखने में अधिक दिलचस्पी दिखा रही हैं। महिलाओं के खुले में शौच जाने की दिक्कतों से बखूबी परिचित ये महिलाएँ स्वच्छता अभियान के तहत शौचालयों के निर्माण, पानी की व्यवस्था और गाँव की साफ-सफाई जैसे मुद्दों के समाधान में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं।

शौचालय के इस्तेमाल के लिये लोगों की सोच बदलने में भी पंचायतों की महिलाएँ अधिक प्रभावी साबित हो रही हैं। इनमें युवा और पढ़ी लिखी महिला सरपंचों की गिनती अधिक है। पिछले कुछ पंचायत चुनावों में शहरों के कॉलेजों या हाईस्कूल में पढ़ने वाली युवा लड़कियों सहित अन्य पढ़ी-लिखी महिलाएँ काफी संख्या में नियुक्त हुई हैं।

ये महिलाएँ लड़कियों के खुले में शौच जाने से जुड़ी स्वास्थ्य, सुरक्षा और स्वच्छता की समस्याओं को बेहतर समझ और महसूस कर रही हैं। इन युवा सरपंचों का मानना है कि वे जानती हैं कि लड़कियों को घर, स्कूल या कॉलेज में अलग शौचालय न होने से कितनी अधिक दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। खासकर माहवारी के समय लड़कियों और महिलाओं को शौचालय की अधिक कमी खलती है। बहुत सी लड़कियाँ शौचालय न होने के कारण हाईस्कूल पहुँचने पर स्कूल जाना छोड़ देती हैं।

शौचालय के प्रति महिलाओं में जागरुकता पैदा करती महिलाएँप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अप्रैल माह में पंचायत दिवस के अवसर पर सभी राज्यों की महिला प्रतिनिधियों से आग्रह किया था कि वे संकल्प लें कि अपने गाँवों को खुले में शौच से मुक्त करेंगे। प्रधानमंत्री का मानना था कि अगर पंचायतों की महिलाएँ अपने हर गाँव में शौचालय के निर्माण की कमान सम्भालें तो स्वच्छता अभियान के मकसद को जल्द पूरा किया जा सकता है।

प्रधानमंत्री की इस सोच को अधिकतर राज्यों में खासकर जहाँ शौचालयों के निर्माण की जिम्मेदारी पंचायतों को सौंपी गई है वहाँ पहले से ही महिला वार्ड पंच, सरपंच, प्रधान और महिला सचिव मिलकर शौचालय, पीने का पानी और साफ-सफाई की जरूरतों को पूरा करने में अधिक गम्भीर प्रयास कर रहे हैं।

विभिन्न राज्यों के अनुभवों से पता चलता है कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं पंचों और सरपंचों के कामों की सूची में शौचालय का निर्माण, पानी की समस्या और गन्दे पानी का निकास या गाँवों की साफ-सफाई अधिक प्राथमिकता पर है। यही कारण है कि ये महिलाएँ स्वच्छता अभियान की ‘चैम्पियन’ बनकर उभर रही हैं।

हिंसा, बीमारियाँ और शर्म का मुद्दा


देश में इस समय 56.4 करोड़ लोग शौचालय का इस्तेमाल करने में असमर्थ हैं। ये लोग खुले में रेलवे पटरी, पार्क, खेत या सड़कों के किनारे बने खड्डों में शौच के लिये जाते हैं। यह आँकड़ा देश की करीब आधी आबादी से कुछ कम है। ग्रामीण इलाकों में विभिन्न प्रकार के सामाजिक और आर्थिक समूह से सम्बन्धित कुल 61 प्रतिशत लोग खुले में शौच जाते हैं।

एक अनुमान के मुताबिक समूचे विश्व में खुले में शौच जाने वालों की कुल संख्या का 60 प्रतिशत हिस्सा भारत में है। पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ इन समस्याओं का अधिक शिकार होती हैं। केवल भारत में 30 करोड़ महिलाएँ और लड़कियाँ खुले में शौच जाती हैं। स्वास्थ्य और सुरक्षा की दृष्टि से महिलाओं को शौचालय की अधिक आवश्यकता होती है। महिलाओं और लड़कियों के लिये शौचालय उनके स्वास्थ्य, सुरक्षा और आत्मसम्मान के लिये अधिक महत्त्वपूर्ण है।

हमारे देश में स्वच्छता से जुड़ी बीमारियों से मरने वाले बच्चों और महिलाओं की संख्या अधिक है। भारत में समूचे विश्व में डायरिया से मरने वालों की संख्या सबसे अधिक है। यूनिसेफ के मुताबिक हमारे देश में पाँच साल से कम आयु के 400 बच्चे प्रतिदिन डायरिया के कारण मरते हैं। डायरिया का सीधा सम्बन्ध शौचालय और स्वच्छता से है।

एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक लाखों महिलाओं और लड़कियों को शौचालय के इस्तेमाल के लिये अपने घर से 300 मीटर तक चलना पड़ता है। गाँवों में निरन्तर विकास और निर्माण के कारण खुली जगह कम होती जा रही है ऐसे में कभी-कभी उन्हें खुली जगह ढूँढने के लिये बहुत अधिक दूरी भी तय करनी पड़ती है।

सरपंच वनिता बताती है कि कुछ समय पहले उसके गाँव के कुछ घरों की महिलाएँ उसके पास आईं और उन्होंने बताया कि उनके घर में पाँच से सात छोटे-छोटे बच्चे हैं। जिन्हें पाँच बजे से पहले उठाकर शौच के लिये बाहर भेजना पड़ता है। वनिता के मुताबिक गाँव में अब खुली जगह नहीं बची। चारों तरफ मकान बन जाने के कारण उन्हें और उनके बच्चों को हाईवे पर जाना पड़ता था। वहाँ बैठने पर उन्हें लोगों से पिटने और यातना का डर सताता था। परेशान होकर वे शौचालय बनाने के लिये उससे मदद माँगने आये।

ग्राम सरपंच वनिता राजावतयह समस्या बहुत से गाँवों की है। जहाँ जगह की कमी भी और गाँव वालों को शौच की जरूरत पूरी करने के लिये बहुत दूर जाना पड़ता है।

बहुत से सर्वेक्षणों से साबित होता है कि महिलाओं पर शौचालय की कमी का प्रभाव अधिक पड़ता है। क्योंकि पुरुषों की अपेक्षा उनको नहाने और स्वच्छता बनाए रखने के लिये शौचालय की अधिक जरूरत होती है। सुबह सूरज निकलने से पहले या रात में जब वे शौच के लिये जाती हैं तो उनके साथ हिंसा और शारीरिक शोषण की सम्भावना बढ़ जाती है।

शौच के दौरान घर से निकलने वाली महिलाओं के साथ हिंसा और रेप जैसे मामले समय-समय पर प्रकाश में आते रहे हैं। बहुत से ऐसे मामले पुलिस तक पहुँचते भी नहीं। लेकिन मई 2014 में उत्तर प्रदेश के बदायूँ में सुबह शौच के लिये घर से निकली दो बहनों के साथ रेप के बाद उन्हें पेड़ से लटकाने की बर्बर घटना ने खुले में महिलाओं के शौच जाने के खतरनाक परिणामों की तरफ नए सिरे से चेताने का काम किया है।

वाटर एड द्वारा मध्य प्रदेश में किये गए एक सर्वे के मुताबिक शौचालय तक पहुँच न रखने वाली 94 प्रतिशत महिलाओं और लड़कियों ने बातचीत में स्वीकार किया कि शौच जाने के दौरान उन्हें विभिन्न प्रकार की हिंसा और यातना का शिकार होना पड़ा। इसी सर्वे में दिल्ली की लड़कियों ने भी माना कि शौच जाने के दौरान रेप और छेड़खानी या फिर शारीरिक यातनाएँ अक्सर होती हैं। शहरों में सामुदायिक शौचालय के इस्तेमाल के लिये भी लड़कियों को घर से दूर जाना पड़ता है।

राजस्थान के खोरा मीना पंचायत की सरपंच सीमा मीना के मुताबिक, “गाँवों में भी माहौल अब कोई अच्छा नहीं रहा। इसलिये लड़कियाँ अक्सर सुबह या रात को अकेले में बाहर जाने में डरती हैं। बढ़ती अपराध की घटनाओं के डर से उन्हें परिवार के किसी बड़े को साथ ले जाना पड़ता है। जो हर समय सम्भव नहीं हो पाता।”

सीमा की तरह अन्य महिलाओं ने भी बताया कि घर की लड़कियाँ जब चाहे तब शौच के लिये बाहर नहीं निकल पातीं। ऐसी परिस्थितियों में अक्सर लड़कियाँ पेशाब या शौच जाने की समय असमय जरूरत को पूरा करने में असमर्थ रहती हैं। जिससे उन्हें कई प्रकार की बीमारियों का खतरा बना रहता है।

महिलाओं को अक्सर घर या घर के नजदीक या काम पर जन-सुविधाओं के अभाव में मूत्र को रोकना पड़ता है। मूत्र रोकने से ब्लैडर में दबाव बढ़ता है जिससे मूत्राशय का स्तर बढ़कर कभी-कभी किडनी तक पहुँच जाता है। जिससे वे वल्वोवोवे जिनाइटीस जैसी बीमारियों का शिकार होती हैं। इसके अतिरिक्त खुले में शौच जाने वाली महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान और प्रसव के बाद कई प्रकार के इन्फेक्शन होने की सम्भावना अधिक रहती है।

जयपुर स्थित ‘इन्दिरा गाँधी पंचायतीराज एवं ग्रामीण विकास संस्थान’ (आईजीपीजीवीएस) के प्रोफेसर और जन स्वास्थ्य अभियान के प्रशिक्षक श्री सुनीत कुमार अग्रवाल ने बताया कि ग्रामीण इलाकों में बच्चों और महिलाओं की मौतों का अधिक कारण स्वच्छता का अभाव होता है। इन्फेक्शन के कारण गाँवों में नवजात शिशु मृत्य दर प्राय: अधिक होती है। गर्भावस्था या प्रसव के समय साफ–सफाई और स्वच्छता न होने के कारण इन्फेक्शन होने की सम्भावना अधिक होती है। जो महिलाओं की मौत का बड़ा कारण है। उनका कहना था कि खुले में शौच पर रोक लगाना महिलाओं के जीवन को बचाने के लिये जरूरी है।

ग्राम सरपंच सीमा

सोच बदलने की कोशिश


शौचालों का निर्माण कोई नई योजना नहीं है। इसके प्रयास 1999 से ‘सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान’ से शुरू हो गए थे। इसका उद्देश्य स्कूलों और आँगनवाड़ी में शौचालयों का निर्माण था। इस अभियान की अवधारणा शौचालय की माँग बनाना और समुदायों को शौचालयों के निर्माण में शामिल करना था। इसके लिये वर्ष 2010 तक का लक्ष्य रखा गया था। लेकिन इस अभियान ने बहुत से घरों में शौचालय तो बना दिये लेकिन लोगों में उसके इस्तेमाल की सोच पैदा करने में असमर्थ रहे। गाँवों के बहुत से घरों में शौचालय तो बने लेकिन घर की लड़कियाँ और महिलाएँ भी उसका इस्तेमाल नहीं कर पाईं क्योंकि इन्हें गोदाम या स्टोर रूम की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा।

राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में विभिन्न महिलाओं से की गई बातचीत से निष्कर्ष निकलता है कि अब हालात बदल रहे हैं। जिस घर में शौचालय बनता है उसका इस्तेमाल हो इसकी जिम्मेदारी भी पंचायतें निभा रही हैं। स्वच्छता की आदत बनाने में और लोगों की पुरानी सोच को बदलने के लिये अलग-अलग तरीके अपनाए जा रहे हैं।

सरपंच सीमा मीना के मुताबिक गाँवों में पहले भी बहुत से घरों में शौचालय थे लेकिन घर के लोग उसे इस्तेमाल नहीं कर रहे थे। इसके लिये सीमा ने स्कूलों में जाकर लड़कियों के साथ मीटिंग की और उन्हें शौच के लिये बाहर जाने की तकलीफों के बारे में समझाया। सीमा बताती है, “मैंने लड़कियों को कहा कि वे अपने परिवार के लोगों को घर में शौचालय बनाने और उसका इस्तेमाल करने की जिद करें।”

सीमा के मुताबिक गाँवों के कुछ बुजुर्ग खुले में जाने की पुरानी आदत के कारण शौचालय बनाने में रुचि नहीं दिखाते। लेकिन अब गाँवों की लड़कियाँ स्कूलों में जाने लगी हैं। खुले में शौच जाने वाली लड़कियों के साथ हिंसा की घटनाओं के प्रचार के कारण भी वे अब शौच के लिये बाहर जाने से डरती भी हैं। इसके अलावा वे अब इसे शर्म और आत्मसम्मान का मसला भी मानती हैं इसलिये हमारे थोड़े से प्रोत्साहन से वे परिवार वालों को समझाने में सफल हो रही हैं।

केवल 23 वर्षीय सीमा एम कॉम की पढ़ाई कर रही है उसके सात महीने की बच्ची है। लेकिन घर, पढ़ाई और पंचायत के तीनों मोर्चों को वह बेहद ही कुशलता से सम्भाल रही है। उसका मकसद यही है कि गाँव की कोई भी लड़की अशिक्षित न रहे और कोई लड़की या महिला बीमारी या हिंसा से न मरे। इसके लिये वे सबसे पहले गाँव को खुले में शौच से मुक्त कराना चाहती है।

प्रशिक्षण से मिला सम्बल


सोच बदलने के लिये अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग रणनीतियाँ अपनाई जा रही हैं। इसके पंचायतों की महिलाओं को बकायदा सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों से प्रशिक्षण भी प्राप्त कर रही हैं। प्रोफेसर सुनीत अग्रवाल के मुताबिक उनके संस्थान आइजीपीजीवीएस में वे पंचायतों की महिलाओं को खुले में शौच की सोच बदलने के प्रति प्रशिक्षित करते हैं। उन्होंने बताया कि प्रशिक्षण के माध्यम से उन्हें बताया जाता है कि कैसे एक तरफ गाँवों में घूँघट की बात की जाती है तो दूसरी तरफ उन्हीं महिलाओं को परिवार के लोग खुले में शौच के लिये भेजकर शर्मिन्दा करते हैं। पड़ोसी के शौच पर बैठी मक्खी का बाल कैसे उनके खुद के पीने के पानी में पहुँच जाता है, इसे प्रदर्शित कर महिला पंचों और सरपंचों को गाँवों में जागरुकता फैलाने के लिये समझाया जाता है। ऐसे ही तरीकों को बाद में ये महिलाएँ गाँवों में इस्तेमाल करती हैं।

प्रोफेसर सुनीत के मुताबिक महिलाएँ संवेदनशील होने के कारण इन समस्याओं के निपटान में अधिक कारगर साबित हो रही हैं। इसलिये स्वच्छता अभियान के तहत उन्हें प्रशिक्षण देकर अभियान के मकसद को जल्द पूरा किया जा सकता है।

युवा सरपंच चांदनी ने अपने गाँवों के उन घरों में राशन देने में पाबन्दी लगा दी जहाँ या तो शौचालय बने नहीं थे या फिर इस्तेमाल नहीं कर रहे थे। चांदनी ने बताया, “हमने उन्हें दो माह का समय दिया कि राशन चाहिए तो शौचालय बनाओ।’’ उसका मानना है कि आदतों को बदलने के लिये थोड़ी सख्ती तो की जा सकती है।

घर में शौचालय होने से महिलाओं को सम्मान और सुरक्षा दोनों मिलता हैगुजरात की सरपंच सोनल बेन को लगा कि गाँव की पिछड़ी जाती की महिलाओं की भागीदारी के बिना यह कार्य सम्भव नहीं। इसलिये उसने सबसे पहले उन्हें अपने साथ जोड़ने की कोशिशें की। जब गाँवों की सब महिलाओं का साथ मिला तो कुछ समय में ही गाँव साफ-सफाई से चमकने लगा। अब उसका गाँव पानी शौचालय और साफ-सफाई में कई पुरस्कार भी हासिल कर चुका है।

‘सरपंच पति’ से स्वच्छता चैम्पियन


देश में कुल 2.5 लाख पंचायतें हैं। इनमें कुल तीस लाख के करीब प्रतिनिधि पंचायतों में काम कर रहे हैं। इनमें करीब 40 प्रतिशत संख्या महिलाओं की है। संविधान के 73वें संशोधन से वर्ष 1992 से महिलाओं को पंचायतों में मिले आरक्षण के साथ प्रशासन को सम्भालने का उनका सफर शुरू हुआ था। शुरू में एक तिहाई और बाद में कई राज्यों में पचास प्रतिशत तक मिले इस आरक्षण से करीब 14 लाख महिलाएँ पंचायतों के कामों में हिस्सा ले रही हैं।

पिछले दो दशकों से अधिक समय से पंचायतों में चुनकर आने वाली इन महिलाओं की भूमिका अब बदल चुकी है। उनके काम काज का स्त्री पक्ष अब दिखाई देने लगा है यानी वे अपने और अपनी महिला साथियों के साथ होने वाले अन्याय को समझने लगी हैं। शासन चलाने के ककहरे को सीखने के बाद अब वे खुद को सत्ता से बाहर रखने की साजिशों को समझने लगी हैं।

पिछले कुछ वर्षों में राजस्थान और पंजाब में हुई जन-सुनवाइयों में पंचायतों की इन महिलाओं ने पति या परिवार के अन्य पुरुष सदस्य की प्राक्सी बनकर काम करना या उनके सुझाए प्रस्तावों पर मुहर लगाने को मजबूर न होने के खिलाफ मोर्चा खोलने की शपथ ली। न ही अब वे रबड़ स्टाम्प बनने को तैयार हैं और न ही ‘सरपंच पति’ के जरिए काम करने को।

सरपंच वनिता ने माना कि जब वह पहली बार 2010 में सरपंच बनी थी तो वह घूँघट निकाल कर पंचायत में जाती थी। मर्दों से कम बात करती थी लेकिन दूसरी बार चुने जाने के बाद अब वे न तो घूँघट निकालती हैं न ही उसे कोई भी काम या बात करने में हिचक महसूस होती है। अब पढ़ी-लिखी और कम उम्र की युवा लड़कियों के सरपंच बनने के शुरू हुए दौर से भी माहौल में काफी बदलाव आ रहा है।

अब गाँवों की लाखों युवा लड़कियाँ पढ़ने लिखने के बाद पंचायतों में सरपंच, पंच या वार्ड मेम्बर के रूप में प्रभावी भूमिका निभाने वाली महिलाओं को अपना वास्तविक रोल मॉडल मानती हैं। देश के लाखों गाँवों में महिला नेतृत्व के रूप में उभरने वाली कई दबंग, सबल और प्राशसनिक कार्यों में दखल रखने वाली ‘कुशल पंचायत लीडर’ में वे अपनी छवि तलाशती हैं।

स्कूलों में पढ़ने वाली बहुत सी लड़कियों के लिये स्थानीय सत्ता के कार्यों में हाथ बटाने, स्थानीय मुद्दों पर अपनी राय देने, हक के लिये अपनी आवाज उठाने और अशिक्षित तथा पिछड़ी महिलाओं को जागरूक बनाने वाली स्थानीय ‘महिला लीडर’ उनकी असली रोल मॉडल हैं। पंचायतों की बागडोर सम्भालने के दो दशक के बाद गाँवो की ये महिलाएँ सक्षम नेता के रूप में अपनी छवि दर्ज कराती नजर आ रही हैं।

अन्तरराष्ट्रीय पत्रिका साइंस में 2008-2009 में प्रकाशित एक शोध के मुताबिक पंचायतों में महिलाओं के आरक्षण के कानून ने भारतीय महिलाओं को ग्राम स्तर पर स्वयं को सक्षम नेता साबित करने का अवसर प्रदान किया है। नार्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी द्वारा की गई इस सर्वे के मुताबिक लोकतंत्र के सबसे निचले स्तर पर यानी पंचायतों में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के कानून का सीधा असर गाँवों के रोल मॉडल पर पड़ा है। गाँवों के लोगों की महिला नेतृत्व के प्रति सोच बदल रही है।

शौचालय के प्रति महिलाओं में जागरुकता पैदा करती महिलाएँस्वच्छता अभियान के तहत पंचायतों की महिलाओं की भूमिका इस सर्वे के परिणामों की पुष्टि करते नजर आते हैं। अगर पंचायत की इन महिलाओं को पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराया जाय तो निस्सन्देह स्वच्छता की ये नई चैम्पियन वर्ष 2019 तक देश को खुले से शौच मुक्त बनाने में सफल और सार्थक ‘हीरो’ साबित होंगी।