सारांश:
हमारे देश में अधिकतम ताप विद्युत संयंत्र कोयले पर आधारित है, जिसमें कोयले को जलाकर विद्युत उत्पादन किया जाता है। इससे भारी मात्रा में उड़न राख उत्सर्जित होती है जो प्रदूषण का एक मुख्य स्रोत है। आज पूरे देश में करीब 85 ताप विद्युत केंद्रो द्वारा 300 मिलियन टन उड़न राख प्रति वर्ष उत्सर्जित होती है। इतनी बड़ी मात्रा में उत्सर्जित होने वाली उड़न राख का भण्डारण कहाँ और कैसे किया जाए, यह एक बड़ी चुनौती है। साथ ही उड़न राख की भौतिक तथा रासायनिक प्रकृति से यह स्पष्ट होता है कि भारी व विरल धातु की अधिकता के कारण यह पर्यावरण के लिये विषाक्त साबित होती है। प्रस्तुत लेख में इसी समस्या के निदान की चर्चा पर्णांग (फर्न) जैसे सजावटी पौधों की कृषि तकनीक के रूप में की गई है, जिनमें धातु अवशोषण की अद्भुत क्षमता है। अतः प्रस्तुत लेख में पर्णांगों के द्वारा इसके प्रबंधन के साथ-साथ इसकी विषाक्तता की समस्या को भी समायोजित करने का प्रयास किया गया है जो एक सस्ती, सरल तथा पर्यावरण-मित्र तकनीक है।
Abstract
In India majority of thermal power plants are coal based, in which electricity is generated by coal-combustion. It generates huge quantity of fly ash which becomes a major source of reside and pollution. Today, about 300 million tons fly ash is generated annually by 85 thermal power units in India. The storage and utilization of these huge quantities of fly ash becomes a major challenge. Besides, physico-chemical properties of fly ash have demonstrated to contain significant amount of toxic elements also, posing a threat to receiving environment. In the present article, management of such site with the development of a vegetation cover of metal hyperaccumulator ferms may prove to be promising eco friendly, cost effective and simple agro-technology to handle this menace.
प्रस्तावना
पर्णांग (फर्न) अर्थात टेरिडोफाइट्स अति प्राचीन पुष्प विहीन पादप प्रजाति हैं, जिनका अस्तित्व पृथ्वी पर कार्बोनीफेरस काल से भी लगभग 350-400 मिलियन वर्ष पुराना है। इनकी जटिल किंतु आकर्षक पर्ण विन्यास अनायास ही इन्हें प्राचीन कला और साहित्य से जोड़ती है। विभिन्न प्रजातियों की परम्परागत औषधीय उपयोगिता का विवरण प्राचीन औषधीय साहित्यों जैसे चरक एवं सुश्रुत संहिताओं (C 100 AD) में भी मिलता है। पर्णांग मुख्यतः नम एवं छायादार स्थानों पर सघनता से उगते हैं और समूचे विश्व के विभिन्न भागों में करीब इनकी 12,000 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। भारत में इस समूह के पौधे सामान्यतः पहाड़ों पर पाये जाते हैं, जिनकी संख्या लगभग 1000 है। खासकर पहाड़ी क्षेत्रों में जहाँ सघन जंगल तथा पर्याप्त नमी वाली जलवायु पाई जाती है इनकी जैवविविधता देखने योग्य होती है। पूर्वाेत्तर हिमालय से लेकर पश्चिमोत्तर हिमालय में कुमाऊँ की पहाड़ियों से लेकर गढ़वाल तक, जम्मू से लेकर कश्मीर की पहाड़ियों तक तथा हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला की पहाड़ियों से लेकर चंबा होते हुए लाहौल-स्पीति की बर्फीली पहाड़ियों तक इस वनस्पति समुदाय का साम्राज्य फैला हुआ है। ठीक, उसी प्रकार पूर्वोत्तर हिमालय में असम, पश्चिम बंगाल तथा अरुणाचल प्रदेश से लेकर अंडमान निकोबार द्वीप तक इनका विस्तृत साम्राज्य है। मध्य भारत में पचमढ़ी के जंगलों से लेकर दक्षिण भारत के जंगली इलाकों जैसे डक्कन के पठार तथा वेस्टर्न घाट में भी इनकी सघनता प्रचुर मात्रा में वैज्ञानिकों द्वारा दर्शाई गई है। इस समुदाय की कुछ प्रजातियाँ राजस्थान के मरुभूमि से लेकर मैदानी भागों में भी पाई जाती हैं। यद्यपि मैदानी भागों में इसकी विविधता कम पाई जाती हैं किंतु किसी खास भौगोलिक क्षेत्र के अनुरूप अपने आप को ढालने की क्षमता इस पादप समुदाय में उत्पत्ति के करोड़ों वर्ष के बाद भी मौजूद है क्योंकि वर्तमान समय के पर्णांग करोड़ों वर्षों के क्रमिक विकास के परिणामस्वरूप अस्तित्व में हैं।
शोध पत्रों के गहन अवलोकन से यह स्पष्ट होता है कि भारत में इस समुदाय पर मुख्यतः अनुसंधान वर्गिकी, बाह्य आकारिकी, अन्तः रचना, आनुवंशिकी तथा आर्थिक महत्व पर ही केंद्रित रहा है, परंतु पिछले दशकों से वैज्ञानिकों ने इसकी कुछ प्रजातियों को प्रदूषण का सूचक भी बताया है। यद्यपि धातु अवशोषक के संदर्भ में आज भी अधिकांश प्रपत्र पुष्पीय पादपों पर पाए गए हैं और अपुष्पीय पादपों पर बहुत कम शोध हुए हैं, फिर भी इसकी कुछ प्रजातियों के धातु अवशोक होने की सूचना काफी समय से है, जैसे फर्न प्रजाति एस्प्लेनियम एडल्टेरियम निकेल धातु का सूचक है। जबकि एस्प्लेनियिम सेप्टेन्त्रिओनले उत्तरी तथा मध्य वेल्स में लेड तथा कॉपर की खानों में पाया गया। अन्य पर्णांग जैसे- पीलिया कॉलोमिलोन्स तथा किलेन्थस हिर्टा कॉपर तथा निकेल धातु के सूचक हैं। कुछ पर्णांग क्रोमियम संदूषित मृदा पर भी उगते हुए पाये जाते हैं। वैसे पिछले कुछ वर्षों में भारी धातुओं और आर्सेनिक के अति-अवशोषक के रूप में चाइनीज ब्रेक फर्न टेरिस विटाटा का नाम अति प्रचलित हुआ है और इस संदर्भ में कई अन्य शोध पत्र अमरीकी वैज्ञानिकों द्वारा प्रकाशित किए गए हैं।
स्थलीय पर्णांगों के अलावा जलीय पर्णांग भी धातु अवशोषक के रूप में काफी प्रचलित है जैसे एजोला फिलीकुलोइड्स विभिन्न भारी धातुओं जैसे क्रोमियम, निकेल तथा जिंक के साथ-साथ कैडमियम तथा कॉपर धातु का भी अवशोषक है। उसी प्रकार एजोला पिनाटा, मारसिलिया मीनुटा तथा साल्वीनिया मोलेस्टा भी कैडमिय धातु के अवशोषक के रूप में सूचित हैं। पर्णांग समुदाय के धातु अवशोषक गुणों के कारण ही इसका उपयोग उड़न राख जैसी विषाक्त मृदा के समायोजन में किया गया है। खास बात यह है कि धातु अवशोषित पर्णांगों में बाह्य रूप से विषाक्तता के कुछ भी लक्षण दिखाई नहीं पड़ते जो इस बात को साबित करता है कि इन पादपों में प्राकृतिक रूप से धातु प्रबंधन की आंतरिक क्षमता मौजूद है।
यद्यपि ताप विद्युत संयंत्र के अधिकांश उड़न राख सड़क निर्माण, खानों की भराई व भवन सामग्री (सीमेंट बनाने में) के रूप में उपयोग में लाये जा रहे हैं, फिर भी ताप विद्युत संयंत्र के पास इसके भंडारण की समस्या हल नही हो पाई है ऐसे में फर्न जैसी सजावटी पौधों के वानस्पतिक आच्छादन (वेजिटेशन कवर) द्वारा प्रबंधन एक खास विकल्प है। यद्यपि उड़न राख जैसी विषाक्त और विषम समस्या से निबटने में इस विशेष पादप समुदाय की कृषि-तकनीक की चर्चा अभी सामान्य जनमानस तक प्रचलित नहीं है। अतः प्रस्तुत शोध प्रपत्र में उड़न राख का समायोजन एवं प्रबंधन तीन शोभाकारी फर्न एमपिलौप्टेरिस प्रोलिफेरा, डिप्लेजियम एस्कूलेंटम तथा टेरिस विटाटा की कृषि-तकनीक द्वारा सफलतापूर्वक किए जाने की संभावना को दर्शाया गया है। खास बात यह भी है कि ये फर्न प्रजातियाँ उड़न राख के ऊपर सघन रूप से एक वानस्पतिक चादर की तरह उगते हैं जो कि उड़न राख के धूल कणों से वातावरण को बचाता है, साथ ही उड़न राख की विषाक्तता को कम करने का भी एक महत्त्वपूर्ण माध्यम है जिससे भविष्य में धातु मुक्त उड़न राख का उपयोग कृषि से लेकर खानों के अंदर भराई के लिये भी किया जा सके। इस प्रकार प्रस्तुत शोध पत्र में पर्णागों के कृषि-तकनीक द्वारा उड़न राख जैसी व्यर्थ एवं विषाक्त अपशिष्ट को बहुपयोगी एवं मूल्यवान बनाने की प्रबल संभावना को दर्शाया गया है।
सामग्री एवं विधि
वर्तमान अध्ययन में कहलगांव ताप विद्युत केंद्र, भागलपुर, बिहार की उड़न राख का उपयोग किया गया है उड़न राख का नमूना पॉलिथीन बैग में जमा कर संस्थान की मृदा प्रयोगशाला में लाया गया। तत्पश्चात कमरे के तापमान पर करीब एक सप्ताह तक सुखाया गया। सुखाने के बाद उड़न राख को महीन छलनी (2 मिमी) से छाना गया ताकि इसमें कोई अवांछित कणिका न रहे। इस प्रकार तैयार उड़न राख के भौतिक तथा रासायनिक गुणों का अध्ययन किया गया। भौतिक गुणों में उड़न राख का पीएच, पीएच मीटर से तथा विद्युत सांद्रता, सांद्रतामापी यंत्र से मापी गई। कुल फास्फोरस तथा नाइट्रोजन की मात्रा का निर्धारण जेल-डाल विधि से किया गया।
उड़न राख को कुल 9 प्लास्टिक गमलों (14 मिमी. परिधि) में भरा गया, जिनमें तीनों फर्न प्रजाति के लिये तीन-तीन गमलों का सेट तैयार किया गया। इसी प्रकार, तुलनात्मक अध्ययन (कंट्रोल) के लिये 9 प्लास्टिक गमलों को सामान्य मृदा से भरा गया, प्रत्येक फर्न प्रजाति के लिये तीन-तीन गमलों का सेट पुनः तैयार किया गया। अब प्रत्येक फर्न प्रजाति के स्पेार (बीजाणु) को तीन उड़न राख वाले गमले में तथा तीन सामान्य मृदा वाले गमले में बोया गया। इस प्रकार तीनों प्रजातियों के लिये तीन उड़न राख का सेट तथा तीन सामान्य मृदा का सेट तैयार किया गया। अब साप्ताहिक रूप से तीनों प्रजातियों के अंकुरण दर से लेकर बीजाणुभिद (नया पादप) बनने तक का अध्ययन किया गया तथा उड़न राख वाले गमले की तुलना सामान्य मृदा वाले गमले से की गई। स्पोर बुआई के लगभग पाँच महीने बाद जब तीनों प्रजातियों के बीजाणुभिद तैयार हो गए तब इनकी ऊपरी भाग की कटाई करके इनकी ताजी पत्तियों में प्रकाश संश्लेष्णीय कणिकाओं का तथा सूखी पत्तियों में अवशोषित धातुओं का अध्ययन आणिवक अवशोषण सूक्ष्मदर्शी (एटॉमिक एब्जोर्प्स स्पेक्ट्रोफोटोमीटर-सीमाडजू ए. ए.- 6300) द्वारा किया गया।
परिणाम एवं विवेचना
उड़न राख के भौतिकीय तथा रासायनिक अध्ययन से इसकी प्रकृति का पता चलता है तथा इसके समायोजन के लिये उपयुक्त वनस्पति के चुनाव में भी सहायता मिलती है। अतः वर्तमान अध्ययन से प्राप्त परिणामों जैसे उड़न राख की भौतिकीय तथा रासायनिक प्रकृति, इस पर उगने वाले पर्णांगों का अंकुरण दर, प्रकाश संश्लेष्णीय कणिकाओं पर प्रभाव तथा धातु अवशोषण क्षमता को विभिन्न सारणियों में दर्शाया गया है।
उड़न राख के भौतिकीय गुणों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि उड़न राख का रंग सामान्य मृदा की तुलना में ज्यादा मटमैला तथा रवेदार होता है अर्थात इसके अणुओं के बीच स्थान होता है। इसकी पीएच तथा विद्युत सांद्रता सामान्य मृदा से काफी अधिक होती है, किंतु नाइट्रोजन और फास्फोरस की मात्रा काफी कम होती है (सारणी 1)। इनमें कार्बनिक तत्वों की मात्रा तथा जल संग्रहण क्षमता सामान्य मृदा से कुछ कम होती है। उड़न राख के रासायनिक गुणों के अध्ययन से यह भी स्पष्ट होता है कि उड़न राख में विरल तथा विषाक्त तत्वों जैसे आर्सेनिक, लेड, बोरॉन, कैडमियम, क्रोमियम, एल्युमिनियम तथा निकेल की मात्रा सामान्य मृदा से काफी अधिक होती है। अन्य तत्व जैसे सिलिकॉन तथा निकेल भी काफी अधिक मात्रा में पाई गई है, परंतु इन सभी हानिकारक तत्वों के साथ उड़न राख में सभी सूक्ष्म-पोषक तत्व जैसे आयरन, जिंक, कॉपर तथा मैगनीज भी अधिक मात्रा में विद्यमान हैं (सारणी 1)।
वर्तमान अध्ययन में तीन सामान्य रूप से उगने वाले पर्णांगों जैसे एमपिलोप्टेरिस प्रोलिफेरा, डिप्लेजियम एस्कूलेंटम तथा टेरिस विटाटा का उपयोग उड़न राख पर किया गया है, जो कि कहलगांव ताप विद्युत केंद्र, भागलपुर के सर्वेक्षण के दौरान इसके आस-पास के भागों में सफलतापूर्वक उगते हुए पाया गया क्योंकि पर्यावरण के लिहाज से हमेशा वैसे स्थानीय पौधे का चुनाव करना चाहिए अथवा जिनका सर्वव्यापी वितरण हो, बायोमास (जीवभार) अधिक हो तथा जिनका उस खास स्थान की जलवायु में उगाना आसान हो। अतः हमेशा स्थानीय पौधों का चुनाव उचित होता है क्योंकि दुर्लभ और प्रतिकूल जलवायु वाले पौधों को किसी खास वातावरण के अनुकूल समायोजित करने में अधिक समय तथा कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।
उड़न राख पर फर्न स्पोर के अंकुरण तथा विकास का अध्ययन भी किया गया है (सारणी 2)। तीनों फर्न प्रजातियों में टेरिस विटाटा की अंकुरण दर सबसे अधिक और कम समय में पाई गई जबकि बाकी दोनों प्रजातियाँ एमपिलोप्टेरिस प्रोलिफेरा तथा डिप्लेजियम एस्कूलेंटम का अंकुरण तथा विकास दर लगभग बराबर पाया गया। उड़न राख की विषाक्तता के बावजूद भी फर्न के बीजाणु की अंकुरण दर लगभग सामान्य मृदा के समतुल्य ही पायी गई तथा नर व मादा जनन अंगों का उद्भव भी सफलतापूर्वक देखा गया (सारणी 2)। उड़न राख में उगने वाले पर्णागों में नर व मादा जननांगों का सफलतापूर्वक उद्भव इस बात का सूचक है कि इनमें सभी प्रकार की चय तथा अपचय क्रियाएं (Metabolic functions) सामान्य रूप से चल रही हैं तथा इनमें स्वतः अनुकूलन की क्षमता मौजूद है। उड़न राख में उगने वाले पर्णांगों में बाह्य रूप से भी विषाक्तता के कुछ भी लक्षण दिखाई नहीं पड़े।
उड़न राख का प्रभाव पर्णांगों की प्रकाश संश्लेषणीय कणिकाओं पर भी किया गया (सारणी 3), किंतु कोई उल्लेखनीय कमी दृष्टिगत नहीं हुई। यद्यपि कुल पर्णहरित कणिका संख्या में थोड़ी कमी जरूर प्रकट हुई। सामान्य फर्न टेरिस विटाटा के साथ एमपिलोप्टेरिस प्रोलिफेरा तथा डिप्लेजियम एस्कूलेंटम पर बहुत ही नगण्य प्रभाव दिखाई दिया। ऐसा माना जा सकता है कि यह कमी उड़न राख में पाई जाने वाली विषाक्त विरल धातुओं की वजह से हुई है क्योंकि इसी तरह के परिणाम विगत अध्ययनों से भी प्राप्त हुए हैं, (सिंह आदि, 2005; कुमारी एवं त्रिपाठी, 2009; कुमारी आदि, 2013) उड़न राख में उगने वाले पर्णांगों का धातु विश्लेषण भी किया गया (सारणी 4), जिससे यह स्पष्ट होता है कि इनमें विषाक्त धातुओं की मात्रा सामान्य मृदा में उगने वाले पर्णांगों से काफी अधिक विद्यमान है, परंतु उच्च विषाक्तता के बावजूद भी इन पर्णांगों में बाह्य रूप से किसी भी प्रकार का लक्षण जैसे पत्तियों का सूखना, पीलापन, अथवा मुरझाना दृष्टिगत नहीं हुआ। सभी पर्णांग बाह्य रूप से स्वस्थ्य दिखाई पड़ें।
निष्कर्ष
पर्णांगों के पूर्ण धात्विक विश्लेषण, पर्णहरित कणिका का अध्ययन तथा उड़न राख पर विभिन्न फर्न प्रजातियों के बीजाणुओं के अंकुरण दर के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि उड़न राख का समायोजन या प्रबंधन फर्न जैसे सजावटी पौधों की कृषि तकनीक द्वारा एक खास विकल्प के रूप में संभव है। पर्णहरित कणिका की मात्रा में आंशिक कमी यह दर्शाती है कि उड़न राख में मौजूद विषाक्त धातुओं के अवशोषण के परिणामस्वरूप यह कमी दृष्टिगत हुई है, क्योंकि सामान्य मृदा में उगने वाले पौधों की तुलना में उड़न राख में उगने वाले पौधों में विषाक्त धातुओं की मात्रा अपेक्षाकृत काफी अधिक पाई गई। फिर भी इसमें बाह्य रूप से विषाक्तता के कोई भी लक्षण दिखाई नहीं पड़े। अतः उपरोक्त तीनों फर्न प्रजातियों में एक आदर्श पर्यावरण मित्र के सारे गुण मौजूद हैं जैसे ये आसानी से नमी वाले स्थानों पर उगते हैं तथा कम समय में ही एक समूह (कॉलोनी) बना लेते हैं। साथ ही ये फर्न, मिट्टी में पाये जाने वाले विषाक्त तत्वों को सफलतापूर्वक अवशोषित कर लेते हैं। इन पादप समूह के साथ खास बात यह भी है कि ये खाद्य पदार्थ या फूड चेन के रूप में उपयुक्त नहीं होते, इनका जीवन-चक्र कम समय का होता है और धातु अवशोषण के पश्चात इनको नष्ट करना भी आसान है। जबकि बड़े वृक्षों का जीवन चक्र काफी लंबा होता है और इनको नष्ट करना भी आसान नहीं है, क्योंकि बड़े वृक्षों के लिये वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार की सख्त नीतियों का अनुपालन करना आवश्यक होता है। हमारे देश में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय एक तरफ उड़न राख की विषाक्तता के कारण इसके पूर्ण रूप से समायोजन के प्रति सजग है तो वहीं दूसरी तरफ बड़े वृक्षों की कटाई पर भी सख्त दिशा-निर्देश जारी कर चुका है। अतः ऐसी स्थिति में पर्णांगों को धातु संदूषित मृदा पर उगा कर संभावित प्रदूषण को कम करना एक नवीन एवं ठोस कदम है जो स्वस्थ पर्यावरण की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है।
यद्यपि इस समुदाय की पर्यावरणीय गुणवत्ता पर अन्तरराष्ट्रीय पैमाने की तुलना में भारत में कम अनुसंधान हुए हैं, फिर भी वर्तमान अध्ययन से यह प्रबल संकेत मिलता है कि उड़न राख जैसी विषम समस्या से निपटने में पर्णांगों की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है, यदि उड़न राख वाली मृदा में नमी या सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था हो। अतः पर्णांगों का धातु संदूषित उड़न राख समायोजन या प्रबंधन में उल्लेखनीय योगदान होने की प्रबल संभावना है।
आभार
लेखकगण, निदेशक, आई.एच.बी.टी. पालमपुर का इस कार्य के लिये आवश्यक सुविधाओं की परिपूर्ति हेतु आभार प्रकट करते हैं। इस शोध कार्य के लिये वित्तीय सहायता हेतु विज्ञान एवं तकनीकी विभाग, नई दिल्ली के महिला वैज्ञानिक योजना (SR/WOS-A/LS-117/2008) के प्रति भी आभार प्रकट करते हैं।
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सम्पर्क
अलका कुमारी एवं बृजलाल, Alka Kumari & Brijlal
उच्च तुंगता जीव विज्ञान एवं पादप संरक्षण विभाग, सी.एस.आई.आर. हिमालय जैवसंपदा प्रौद्योगिकी संस्थान, पालमपुर, 176 061 (हिमाचल प्रदेश), Department of High Altitude Biology and Plant Conservation, CSIR-Institute of Himalayan Bioresource Technology, Palampur 176061 (Himachal Pradesh)