पर्यावरण, धर्म तथा विकास के अन्तरसम्बन्ध

Submitted by RuralWater on Sun, 01/10/2016 - 10:19
Source
सर्वोदय प्रेस सर्विस, जनवरी 2016
पर्यावरण, धर्म तथा विकास ये एक दूसरे के पूरक तथा सहयोगी हैं अतः किसी एक के मूल्य पर दूसरे को बढ़ावा देने की बात करने का कोई अर्थ ही नहीं है। हमें सम्प्रदायों की सीमा को समझना होगा। किसी भी मान्यता को मानना अनुचित नहीं है पर मान्यताओं एवं कर्मकाण्डों को ही धर्म मान लेना, मानवीय सम्बन्धों को तनावपूर्ण करते हुए, प्रकृति तथा आसपास रहने वाले पशु-पक्षी, वनस्पति तथा समाज के लोगों को नुकसान पहुँचाते हुए, जंगल, पहाड़, नदी, कुओं तथा तालाबों को नष्ट करते हुए जो भी कार्य किया जाएगा वह विकास नहीं है, यह ध्यान रखना होगा। भारत में पर्यावरण, धर्म तथा विकास इन तीनों के आपसी सम्बन्ध अधिकांश लोगों के लिये पहेली बने हुए हैं। इसीलिये उन्हें एक दूसरे का पूरक समझने में तकलीफ़ होती है। विकास की गलत समझ के कारण सरकारें भी विकास का आकर्षण दिखाकर पर्यावरण को पहुँचने वाले नुकसान को तथा उससे उत्पन्न होने वाली भावी आपदाओं को नज़रअन्दाज कर देती हैं।

धर्म को अंग्रेजी के शब्दों रिलीज़न या फेथ का पर्यायवाची मानकर उसका पर्यावरण के साथ जो रिश्ता है उसे पूरी तरह नकारने का अभ्यास सभी के लिये एक आम बात हो गई है। आइए इन्हें समझने का प्रयास करें :

पर्यावरण :
हमारे चारोें ओर जो कुछ भी हमें दिखाई या सुनाई देता है वही सब पर्यावरण कहलाता है। इसकी सीमा पृथ्वी से आकाश तक है। हमारे घर के अन्दर परिवारजन, गाँव, नगर तथा पास पड़ोस के लोग, पशु, पक्षी, पेड़-पौधे, जंगल, नदी, पहाड़, कुएँ, तालाब, हवा, शोरगुल, चाँद, सूरज तथा आकाश आदि सभी कुछ पर्यावरण के दायरे में आता है।

अतः यह मानना कि केवल प्रकृति अर्थात जल, जंगल, पहाड़ और ज़मीन ही पर्यावरण है यह अधूरी समझ है। मनुष्य प्रकृति का एक घटक होने के कारण पर्यावरण का ही एक हिस्सा है, उससे अलग उसकी कोई सत्ता नहीं।

धर्म : जीवन के सुचारु निर्वाह के लिये व्यक्ति को उपरोक्त पर्यावरण यानी व्यक्ति, समाज एवं प्रकृति तथा दैवी शक्ति (परमेश्वर) के प्रति तथा सबके साथ पारस्परिक सम्बन्धों में जो स्वस्थ सन्तुलन बनाने का काम है, वही धर्म है।

प्रकृति के हर घटक का एक धर्म होता है जैसे पानी का धर्म शीतलता, प्यास बुझाने वाला, धरती को नम बनाने तथा उसमें या शरीर में पैदा होने वाले जहरीले तत्त्वों को अपने में घोलकर बाहर निकालने वाला आदि है।

अग्नि का धर्म अपनी गर्मी के माध्यम से ठंडक को दूर करने वाला, जल को सोखकर उसे वाष्प में बदलने वाला, वस्तुओं को पकाने वाला एवं वातावरण को शुद्ध करने वाला आदि है। इसी तरह प्रकृति के सभी घटकों वायु, धरती, जंगल, पहाड़, पेड़-पौधे, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र आदि को उनके विशेष धर्मों से समझा जा सकता है।

मनुष्य प्रकृति का महत्त्वपूर्ण घटक है जिसका धर्म सद्भाव के साथ पारस्परिक रक्षा करते हुए सन्तुलन बनाए रखने का है। प्रकृति ने उसे बुद्धि, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ सौंपकर एक सक्षम घटक बनाया है।

जंगली पशुओं को अपनी सुरक्षा के लिये सींग, दाँत तथा नाखून आदि दिये पर मनुष्य को ऐसा कुछ अंग न देकर उसे एक शान्तिप्रिय, सद्भावपूर्ण तथा सबके साथ सन्तुलन बना कर पारस्परिक सुरक्षा का दायित्त्व दिया है।

इसी को पूरा करने के लिये मनुष्य ने आपस में मिलकर समाज बनाया, सघन बस्तियाँ, गाँव तथा नगर आदि बसाए तथा सामाजिक व्यवस्थाएँ तथा कर्तव्य निर्धारित हुए।

इस बात का दुःख है कि धर्म की आज जो समझ है वह केवल विश्वास (मान्यता) अथवा सम्प्रदाय के दायरे में आती है। सामान्य तौर पर व्यक्ति अपने वर्ग की मान्यताओं तथा सम्प्रदाय को धर्म मान कर आपस में अपने सम्बन्धों को तनावपूर्ण बनाता रहता है और इस प्रक्रिया में वास्तविक धर्म की अवहेलना करता रहता है।

धर्म केवल आरती या पूजा करने में नहीं है, न ही केवल नमाज अदा करने या प्रार्थना करने में है। ये सब कुछ तो परमेश्वर की शक्ति के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के माध्यम हैं।

धर्म तो सभी के साथ कैसे सम्बन्ध रखें जैसे आसपास के वातावरण को स्वस्थ रखते हुए, सबके प्रति प्रेम व्यवहार एवं सद्भाव निभाते हुए, प्रकृति या किसी प्राणी को किसी भी प्रकार का नुकसान न पहुँचाते हुए, सदैव परमपिता परमेश्वर का ध्यान करते सादगी भरा जीवनयापन करने में है।

विकास : मनुष्य समाज में मानवीय गुणों का समावेश तथा ऊपर बताए अनुसार धर्म की समुचित व्यवस्था को ही विकास कहा जाएगा। विकसित अवस्था में सन्तुलित जीवन, सबको ज्ञान, सभी घटकों के प्रति परस्पर सम्मान, सबको सुख तथा सबकी सुरक्षा सुनिश्चित होना अनिवार्य है।

बाहरी दिखावे की वस्तुएँ, सड़क, भवन, मशीनरी, सुविधाओं का निर्माण या फैलाव इन सबको मानवीय विकास मानना एक अधूरी समझ का परिणाम है जो समाज तथा शासन व्यवस्था सभी को बरगलाता है।

यदि मनुष्य के समाज में पारस्परिक भाईचारा, सद्भाव, प्रेम, विश्वास तथा सम्मान का ही अभाव हो तो सड़क, भवन, बाजार, रेल, हवाईजहाज, अस्पताल, विद्यालय तथा व्यवस्था को विकास का नाम देना क्या पूरी तरह भ्रामक नहीं है?

पर्यावरण, धर्म तथा विकास इन तीन शब्दों की उपरोक्त समझ के आधार पर यह स्पष्ट है कि ये तीनों आपस में अभिन्न हैं, ये एक दूसरे के पूरक तथा सहयोगी हैं अतः किसी एक के मूल्य पर दूसरे को बढ़ावा देने की बात करने का कोई अर्थ ही नहीं है।

हमें सम्प्रदायों की सीमा को समझना होगा। किसी भी मान्यता को मानना अनुचित नहीं है पर मान्यताओं एवं कर्मकाण्डों को ही धर्म मान लेना, मानवीय सम्बन्धों को तनावपूर्ण करते हुए, प्रकृति तथा आसपास रहने वाले पशु-पक्षी, वनस्पति तथा समाज के लोगों को नुकसान पहुँचाते हुए, जंगल, पहाड़, नदी, कुओं तथा तालाबों को नष्ट करते हुए जो भी कार्य किया जाएगा वह विकास नहीं है, यह ध्यान रखना होगा।

मानवीय व्यवस्था में सभी के कर्तव्य परस्पर पूरकता में निहित होते हैं। समाज की व्यवस्था सबकी भलाई और परस्पर एक दूसरे के साथ सहयोग एवं सुरक्षा के लिये ही हुई है परस्पर एक दूसरे से लड़ने-झगड़ने के लिये नहीं। अब यह हमें ही तय करना होगा कि हम देवता बनें या दानव।

डॉ. भारतेन्दु प्रकाश आईआईटी में प्राध्यापक रहे हैं। देशज विज्ञान के क्षेत्र में भी आपने कार्य किया है। वर्तमान में जैविक खेती की पुर्नस्थापना हेतु कार्यरत है।