हाल ही में वैश्विक एनव्रानमेंट परफार्मेंस इन्डेक्स 2022 (Environment Performance Index 2022) जारी हुआ है। इस इन्डेक्स के अनुसार दुनिया के 180 देशों की सूची में भारत का स्थान 180 है। यह जानकारी भारत में पर्यावरण इन दिनों की हकीकत पेश करती है। यह स्थिति ठीक नहीं है। उल्लेखनीय है कि पर्यावरण का दायरा बहुत व्यापक होता है। धरती पर मौजूद हर घटक उससे सीघे-सीधे या अप्रत्यक्ष तरीके से जुडा होता है और प्रभावित होता है। उससे असहयोग का अर्थ है भारत के सतत विकास के लक्ष्य के मार्ग में अवरोध अर्थात भूख मिटाती खेती पर लगातार बढ़ता संकट, पैर पसारता मरुस्थलीकरण, बढ़ता पलायन, सेहत पर लगातार बढ़ता संकट, नदियाँ तथा अन्य जल स्रोतों की बढ़ती अविश्वसनीयता, प्रदूषित हवा, बिरल होते जंगल, अनुपचारित अपशिष्टों की बढ़ती मात्रा और समुद्री तटों का बढ़ता कटाव। दूसरे शब्दों में जीवन के निरापद अस्तित्व पर बढ़ती चुनौतियाँ। इन चुनौतियों की झलकियाँ को उत्तर भारत में चल रही हालिया हीट वेव, असम की विनाशकारी बाढ़, गेहूँ के उत्पादन में कमी इत्यादि द्वारा समझा जा सकता है।
सभी जानते हैं कि आज से लगभग 50 साल पहले स्टाकहोम सम्मेलन में हुए विमर्श के बाद ही सारी दुनिया में पर्यावरण और सतत विकास की समझ विकसित हुई थी। उसके पीछे प्रेरणा थी - कार्सन की प्रसिद्ध पुस्तक साईलेन्ट स्प्रिंग जिसने प्रकृति में घुलते जहर की सच्चाई से दुनिया को परिचित किया था। यह वह समय था जब विकसित कहे जाने वाले पश्चिमी देश, वातावरण में घुले जहर और संसाधनों के प्रदूषण के दंश को झेल रहे थे।
हाल ही में मिनिस्ट्री आफ एनव्रानमेंट एन्ड फारेस्ट (Ministry of Environment and Forest, MoEF) ने वाइल्ड लाईफ इंस्टीट्यूट आफ इंडिया (Wildlife Institute of India ) को निर्देशित किया है कि वे, मंत्रालय की स्वीकृति के बिना कोई भी अध्ययन हाथ में नहीं लें। मिनिस्ट्री आफ एनव्रानमेंट एन्ड फारेस्ट ने अपने 8 जून 2022 के पत्र में एनव्रानमेंट परफार्मेंस इन्डेक्स 2022 की रिपोर्ट को सिरे से खारिज करते हुए कहा है कि उक्त रिपोर्ट अटकलों और अवैज्ञानिक विधियों पर आधारित होने के कारण अस्वीकार्य है। भारत की टिप्पणी पर एनव्रानमेंट परफार्मेंस इन्डेक्स 2022 की रिपोर्ट को तैयार करने वाली वैश्विक संस्था ने असहमत होते हुए भारत को अवगत कराया है कि उनकी उक्त रिपोर्ट विभिन्न देशों की पर्यावरण की हालिया हालत पर आधारित है। उस रिपोर्ट का आधार पुराने उत्सर्जन या नीतिगत आश्वासन नहीं है। मौजूदा लेख का यह हिस्सा भारत के पर्यावरण इन दिनों की कहानी को सांकेतिक तौर पर बयां करता है।
अब कुछ बात करें देश के टिकाऊ विकास के लक्ष्यों (Sustainable Development Goals. SDG) और उनकी हकीकत की। भारत ने टिकाऊ विकास के लक्ष्यों (SDG) को हासिल करने के लिए 295 इंडीकेटर निर्घारित किए है पर वह केवल 115 अर्थात 39 प्रतिशत इंडीकेटरों की ही मानीटरिंग करता है। उल्लेखनीय है कि यह मानीटरिंग भी नियमित नहीं है। कुछ अनियमित मानीटरिंग मामलों में 10 साल तक पुराने आंकड़ों का इस्तेमाल होता है। डाउन टू अर्थ के जून 2022 के अंक में प्रकाशित विवरण बताता है कि एसडीजी-8 के अन्तर्गत 41 संकेतकों की पहचान की गई है जो समग्र आर्थिक और उत्पादक रोजगार की तस्वीर पेश करते हैं। भारत इनमें से केवल 9 संकेतकों को मापता है। वह पंजीकृत सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम उद्योग जैसे महत्वपूर्ण संकेतकों की उपेक्षा करता है। उपेक्षित उदाहरणों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है पर एक बात स्पष्ट है कि इस स्थिति के कारण हम पर्यावरण इन दिनों की वास्तविकता से काफी हद तक अनजान रहते हैं। इस स्थिति में सुधार होना चाहिए।
वास्तव में, स्थायी विकास और पर्यावरण एक दूसरें के पूरक हैं। उल्लेखनीय है कि पर्यावरण के तालमेल पर आधारित पम्परागत खेती ने 5000 साल से भी अधिक अवधि के इतिहास से जाहिर है कि उसने आजीविका को सम्बल प्रदान किया था और मिट्टी के उपजाऊपन को बरकरार रख देश को सोने की चिडिया का दर्जा दिलाया था। इसलिए यह उल्लेख प्रासंगिक है कि पर्यावरणी घटकों की अनदेखी कर की जाने वाली मौजूदा खेती को अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा ताकि धरती की पुरानी उर्वरकता को बहाल किया जा सके और परम्परागत खेती को लेकर लोगों के दिमाग में पैठी भ्रान्तियों को समाप्त किया जा सके। इस बिन्दु पर यह कहना प्रासंगिक है कि पानी की सर्वकालिक और सर्वभौमिक उपलब्धता को अविश्वसनीय बनाने में रासायनिक खेती की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह टिकाऊ विकास की राह में बहुत बडा रोडा है। अतः उक्त बदलाव आवश्यक है। इस क्रम में अब कुछ बात ऊर्जा की।
पर्यावरण को खराब करने के मामले में कोयला, पेट्रोलियम और पनबिजली की बहुत बडी भूमिका होने के बावजूद सुरक्षित ऊर्जा के उत्पादन के लक्ष्य नाकाफी लगते हैं। वहीं एटामिक एनर्जी उत्पादन में अलग तरह का खतरा है। उससे बचना चाहिए। गौरतलब है कि कोयला, पेट्रोलियम और पनबिजली की मदद ऊर्जा उत्पादन की तकनीकों का जमाना बीत चुका है। यदि हम सुरक्षित ऊर्जा के उत्पादन की मदद से अगले पांच साल में आत्मनिर्भरता हासिल कर सके तो यह बहुत बडी उपलब्धि होगी और पर्यावरण प्रदूषण में उल्लेखनीय कमी आवेगी। प्रदूषित हवा के कारण होने वाली बीमारियों का प्रकोप कम होगा।
भारत की नदियाँ नानमानसून प्रवाह की कमी और उनके पानी में धात्विक प्रदूषकों की बढ़ती मात्रा से जूझ रही हैं। डाउन टू अर्थ (जून 2022) में छपी खबर के अनुसार भारत में नदियों के पानी की गुणवत्ता की मानीटरिंग करने वाले दो-तिहाई स्टेशनों पर नदियों के पानी के नमूनों में लेड, आयरन, निकेल, कैडमियम, आर्सेनिक, क्रोमियम और कापर जैसी धातुयें मिली हैं। जबकि 117 नदियों तथा उनकी सहायक नदियों के गुणवत्ता जांच करने वाले एक-चौथाई स्टेशनों की जांच में जल नमूनों में दो या दो से अधिक जहरीली धातुओं की उपस्थिति मिली है। गंगा के 33 निगरानी स्टेशनों 10 स्टेशनों ऐसे हैं जहाँ लेड, आयरन, निकेल, कैडमियम और आर्सेनिक की उच्च मात्रा मिली है। अगस्त 2018 से दिसम्बर 2.20 तक एक़ किए 764 नदियों के पानी में से 688 नदियों के पानी में भारी धातु की मात्रा उच्च है।
देश के 21 राज्यों में स्थित 588 जल गुणवत्ता निगरानी स्टेशनों में 239 स्टेशनों में टोटल कोलीफार्म और 88 स्टेशनों में जैव रसायनिक आक्सीजन मांग (बीओडी) उच्च मात्रा में मिली है। उक्त हकीकत से पता चलता है कि औद्योगिक इकाईओं, खेती और घरों के अपशिष्टों का उपचार बेहद खराब तरीके से किया जाता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार भारत 72 प्रतिशत सीवेज को बिना उपचार किए नदी-नालों में छोड देता है वही 10 राज्य ऐसे हैं जो सीवेज का बिलकुल भी उपचार नहीं करते।
स्थिति कितनी भी चिन्ताजनक क्यों न हो, हर समस्या का इलाज है। प्रदूषण को कम करने के लिए देश के अधिकांश भाग में पर्याप्त पानी बरसता है। कोयले, फासिल फ्यूल और पनबिजली के विकल्प के तौर सौर ऊर्जा के लिए माकूल अवसर हैं। वैश्विक पटल पर प्रदूषण घटाने विषयक हमारी प्रतिबद्धता जगजाहिर है। अतः आवश्यकता केवल उठ खडे होने की है।