पुरी में मिले लुप्त हो चुकी नदी के निशान

Submitted by editorial on Thu, 08/09/2018 - 16:10
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इंडिया साइंस वायर, 09 अगस्त, 2018

नदी मानचित्र पुरी (फोटो साभार : इंडिया साइंस वायर)नदी मानचित्र पुरी (फोटो साभार : इंडिया साइंस वायर) नई दिल्ली: भारतीय वैज्ञानिकों के ताजा अध्ययन में ओडिशा के पुरी शहर में पानी के एक पुराने प्रवाह मार्ग के निशान मिले हैं, जिसके बारे में शोधकर्ताओं का मानना है कि ये निशान लुप्त हो चुकी सारदा नदी के हो सकते हैं, जिसका उल्लेख ऐतिहासिक ग्रन्थों में मिलता है।

उपग्रह चित्रों, भूगर्भशास्त्र, ग्राउंड पेनिट्रेटिंग राडार (जीपीआर) के उपयोग से किये गए अध्ययन में वैज्ञानिकों को पानी के घटकों का अस्तित्व होने के संकेत मिले हैं। इन संकेतों में वनस्पति पट्टी, लहरों से जुड़े चिन्ह और ऐसी स्थलाकृति शामिल है, जिसके बारे में वैज्ञानिकों का मानना है कि यह नदी घाटी हो सकती है।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), खड़गपुर के शोधकर्ताओं द्वारा किये गए इस अध्ययन में शामिल प्रमुख शोधकर्ता डॉ. विलियम कुमार मोहंती ने इंडिया साइंस वायर को बताया, “लुप्त हो चुके जल प्रवाह मार्ग में जहाँ पानी उपलब्ध होता है, वहाँ वनस्पतियों के बढ़ने की प्रवृत्ति होती है, जो इस अध्ययन में देखने को मिली है। इसी तरह विखंडित जल निकाय, जलीय वनस्पतियों से ढकी दलदली भूमि, कम उम्र की वर्तमान तलछट के नीचे दबी नदी घाटी और स्थलीय अवसाद या गड्ढों का भी पता चला है। समय के साथ नदी घाटी तलछट से भर जाती है, लेकिन पूरा प्रवाह मार्ग तलछट से भर नहीं पाता और कहीं-कहीं स्थलीय अवसाद या गड्ढे छूट जाते हैं। ये सभी विशेषताएँ किसी पुराने जल प्रवाह मार्ग की मौजूदगी का संकेत करती हैं।”

वैज्ञानिकों के अनुसार, इन तमाम तथ्यों को एकीकृत रूप में देखा जाए तो जगन्नाथ और गुड़िचा मन्दिरों के बीच में लुप्त हो चुकी नदी के अस्तित्व का पता चलता है। इस तरह के पुराने जल प्रवाह तंत्रों का अध्ययन शिथिल तलछटों के भीतर ताजे पानी के क्षेत्रों का पता लगाने में मददगार हो सकता है। इससे तटीय क्षेत्रों में पीने के पानी की समस्या का समाधान खोजा जा सकता है। शहरी क्षेत्रों में बरसात के दौरान पानी के जमाव से निजात पाने के लिये भी इन पुराने जल प्रवाह मार्गों का उपयोग जल निकासी के लिये हो सकता है।

साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स रिवर्स एंड पीपुल्स के संयोजक हिमांशु ठक्कर, जो इस अध्ययन में शामिल नहीं थे, के मुताबिक “पुराने जल प्रवाह मार्गों का वैज्ञानिक अध्ययन कई मायनों में उपयोगी हो सकता है। इससे नदियों के विकास तथा नदियों पर आश्रित सभ्यताओं के विकास से सम्बन्धित जानकारियों के अलावा कई महत्त्वपूर्ण सबक सीखने को मिल सकते हैं, जिससे नदियों से सम्बन्धित विज्ञान के बारे में हमारी समझ बढ़ सकती है। नदियों के विलुप्त होने के पीछे कुछ विशिष्ट कारण या बदलाव जिम्मेदार रहे होंगे। लेकिन, उन कारणों और बदलावों को समझे बिना और उन्हें पलटे बिना नदियों को पुनर्जीवित करने के प्रयासों से समय और संसाधनों की बर्बादी ही होगी।”

आईआईटी, इंदौर से जुड़े एक अन्य वैज्ञानिक डॉ. मनीष गोयल, जो अध्ययन में शामिल नहीं थे, ने बताया, “इस अध्ययन में लुप्त हो चुकी नदियों को खोजने के वैज्ञानिक तरीकों की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है और बताया गया है कि ऐसे प्रयास पुराने जल प्रवाह मार्गों को पुनर्जीवित करने तथा पीने के पानी की समस्या को हल करने में मददगार हो सकते हैं। पुराने जल प्रवाह मार्ग की पहचान के जरिए संस्कृति के पौराणिक पहलू के संरक्षण के लिहाज से भी इस अध्ययन को महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है।”

शोधकर्ताओं की टीम में डॉ. मोहंती के अलावा शुभमॉय जेना, सैबल गुप्ता, चिराश्री श्रबणी रथ और प्रियदर्शी पटनायक शामिल थे। अध्ययन के नतीजे शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किये गए हैं।

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