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सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है। वह है नदी धर्म। गंगा को बचाने की कोशिश में लगे लोगों को पहले इस धर्म को मानना पड़ेगा।
हमारे समाज ने गंगा को मां माना और ठेठ संस्कृत से लेकर भोजपुरी तक में ढेर सारे श्लोक मंत्र, गीत, सरस, सरल साहित्य रचा। समाज ने अपना पूरा धर्म उसकी रक्षा में लगा दिया। इस धर्म ने यह भी ध्यान रखा कि हमारे धर्म, सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है। वह है नदी धर्म। नदी अपने उद्गम से मुहाने तक एक धर्म का, एक रास्ते का, एक घाटी का, एक बहाव का पालन करती है। हम नदी धर्म को अलग से इसलिए नहीं पहचान पाते क्योंकि अब तक हमारी परंपरा तो उसी नदी धर्म से अपना धर्म जोड़े रखती थी। पर फिर न जाने कब विकास नाम के एक नए धर्म का झंडा सबसे ऊपर लहराने लगा। बिलकुल अलग-अलग बातें हैं। प्रकृति का कैलेंडर और हमारे घर-दफ्तरों की दीवारों पर टंगे कैलेंडर/काल निर्णय/पंचाग को याद करें बिलकुल अलग-अलग बातें हैं। हमारे कैलेंडर/संवत्सर के पन्ने एक वर्ष में बारह बार पलट जाते हैं। पर प्रकृति का कैलेंडर कुछ हजार नहीं, लाख करोड़ वर्ष में एकाध पन्ना पलटता है। आज हम गंगा नदी पर बात करने यहां जमा हुए हैं तो हमें प्रकृति का, भूगोल का यह कैलेंडर भूलना नहीं चाहिए। पर करोड़ों बरस के इस कैलेंडर को याद रखने का यह मतलब नहीं कि हम हमारा आज का कर्तव्य भूल बैठें। वह तो सामने रहना ही चाहिए।
गंगा मैली हुई है। उसे साफ करना है। सफाई की अनेक योजनाएं पहले भी बनी हैं। कुछ अरब रुपए इसमें बह चुके हैं- बिना कोई परिणाम दिए। इसलिए केवल भावनाओं में बह कर हम फिर ऐसा कोई काम न करें कि इस बार भी अरबों रुपयों की योजनाएं बनें और गंगा जस की तस गंदी ही रह जाए।
बेटे-बेटियां जिद्दी हो सकते हैं। कुपुत्र-कुपुत्री हो सकते हैं पर अपने यहां प्राय: यही तो माना जाता है कि माता, कुमाता नहीं होती, तो जरा सोचें कि जिस गंगा मां के बेटे-बेटी उसे स्वच्छ बनाने कोई 30-40 बरस से प्रयत्न कर रहे हैं - वहां भी साफ क्यों नहीं होती। क्या इतनी जिद्दी है हमारी यह मां।
साधु-संत समाज, हर राजनैतिक दल, सामाजिक संस्थाएं, वैज्ञानिक समुदाय, गंगा प्राधिकरण और तो और विश्व बैंक जैसा बड़ा महाजन भी गंगा को तन-मन-धन से साफ करना चाहते हों और यह मां ऐसी कि साफ ही नहीं होती। तो शायद हमें थोड़ा रुक कर कुछ धीरज के साथ इस गुत्थी को समझना चाहिए।
अच्छा हो या बुरा हो-हर युग का एक विचार, एक झंडा होता है। उसका रंग इतना जादुई इतना चोखा होता है कि वह हर रंग के झंडों पर चढ़ जाता है। तिरंगा, लाल, दुरंगा और भगवा सब उसको नमस्कार करते हैं, उसका गान गाते हैं। उस युग के, उस दौर के करीब-करीब सभी मुखर लोग, मौन लोग भी उसे एक मजबूत विचार की तरह अपना लेते हैं। कुछ समझ कर, कुछ बिना समझे भी। तो इस युग को, पिछले कोई 60-70 बरस को विकास का युग माना जाता है। जिसे देखो उसे अपना यह देश पिछड़ा लगने लगा है और वह पूरी निष्ठा के साथ इसका विकास कर दिखाना चाहती है। विकास पुरुष जैसे विश्लेषण सभी समुदायों में बड़े अच्छे लगते हैं।
वापस गंगा पर लौटें। पौराणिक कथाएं और भौगोलिक तथ्य दोनों ही कुल मिलाकर यही बात बताते हैं कि गंगा अपौरुषेय है। इसे किसी एक पुरुष ने नहीं बनाया। अनेक संयोग बने और गंगा- अवतरण हुआ, जन्म नहीं। भूगोल, भूगर्भ शास्त्र बताता है कि इसका जन्म हिमालय के जन्म से जुड़ा है- कोई दो करोड़, तीस लाख बरस पुरानी हलचल से। इसके साथ एक बार फिर अपनी दीवारों पर टंगे कैलेंडर याद कर ले- अभी तक 2013 बरस हुए हैं।
इस विशाल समय अवधि का विस्तार अभी हम भूल जाएं, इतना ही देखें कि प्रकृति ने गंगा को सदानीरा बनाए रखने के लिए इसे अपनी कृपा का केवल एक प्रकार- यानि वर्षा भर से नहीं जोड़ा था। वर्षा तो चार मास होती है। बाकी आठ मास इसमें पानी लगातार कैसे बहे, कैसे रहे, इसके लिए प्रकृति ने उदारता का एक और रूप गंगा को भेंट किया था- नदी का संयोग हिमनद से करवाया। जल को हिम से मिलाया। तभी ये सदानीरा बन सकी। आज के इस बैठक का नाम गंगा शिखर सम्मेलन रखा गया है, इसलिए यह भी ध्यान दिला दूं कि प्रकृति ने गंगोत्री और गोमुख स्थान हिमालय में इतनी अधिक ऊंचाई पर, इतने ऊंचे शिखर पर रखा कि वहां कभी हिम पिघल कर समाप्त नहीं हो सके। जब वर्षा समाप्त हो जाए तो हिम, बर्फ पिघल-पिघल कर गंगा की धारा अविरल रहे।
तो हमारे समाज ने गंगा को मां माना और ठेठ संस्कृत से लेकर भोजपुरी तक में ढेर सारे श्लोक मंत्र, गीत, सरस, सरल साहित्य रचा। समाज ने अपना पूरा धर्म उसकी रक्षा में लगा दिया। इस धर्म ने यह भी ध्यान रखा कि हमारे धर्म, सनातन धर्म से भी पुराना एक और धर्म है। वह है नदी धर्म। नदी अपने उद्गम से मुहाने तक एक धर्म का, एक रास्ते का, एक घाटी का, एक बहाव का पालन करती है। हम नदी धर्म को अलग से इसलिए नहीं पहचान पाते क्योंकि अब तक हमारी परंपरा तो उसी नदी धर्म से अपना धर्म जोड़े रखती थी।
पर फिर न जाने कब विकास नाम के एक नए धर्म का झंडा सबसे ऊपर लहराने लगा। यह प्रसंग थोड़ा अप्रिय लगेगा पर यहां कहना ही पड़ेगा कि इस झंडे के नीचे हर नदी पर बड़े-बड़े बांध बनने लगे। एक नदी घाटी का पानी नदी धर्म के सारे अनुशासन तोड़ दूसरी घाटी में ले जाने की बड़ी-बड़ी योजनाओं पर नितांत भिन्न विचारों के राजनैतिक दलों में भी गजब की सर्वानुमति दिखने लगती है। अनेक राज्यों में बहने वाली भागीरथी, गंगा, नर्मदा इस झंडे के नीचे आते ही अचानक मां के बदले किसी न किसी राज्य की जीवन रेखा बन जाती हैं और फिर उसका इस राज्य में बन रहे बांधों को लेकर वातावरण में, समाज में इतना तनाव बढ़ जाता है कि फिर कोई संवाद, स्वस्थ बातचीत की गुंजाईश ही नहीं बच पाती। दो राज्यों में एक ही राजनीतिक दल की सत्ता हो तो भी बांध, पानी का बंटवारा ऐसे झगड़े पैदा करता है कि महाभारत भी छोटा पड़ जाए। सब बड़े लोग, सत्ता में आने वाला हर दल, हर नेतृत्व बांध से बंध जाता है। हरेक को नदी जोड़ना एक जरूरी काम लगने लगता है। वह यह भूल जाता है कि प्रकृति जरूरत पड़ने पर नदियां जोड़ती है। इसके लिए वह कुछ हजार-लाख बरस तपस्या करती है, तब जाकर गंगा-यमुना इलाहाबाद में मिलती हैं। कृतज्ञ समाज तब उस स्थान को तीर्थ मानता है। मुहने पर प्रकृति नदी को न जाने कितनी धाराओं में तोड़ भी देती है। बिना तोड़े नदी का संगम, मिलन सागर से हो नहीं सकता।
तो नदी में से साफ पानी जगह-जगह बांध, नहर बना कर निकालते जाएं-सिंचाई, बिजली बनाने और उद्योग चलाने के लिए, विकास करने के लिए। अब बचा पानी तेजी से बढ़ते बड़े शहरों, राजधानियों के लिए बड़ी-बड़ी पाईप लाईन में डाल कर चुराते जाएं। यह भी नहीं भूलें कि अभी 30-40 बरस पहले तक इन सभी शहरों में अनगिनत छोटे-बड़े तालाब हुआ करते थे। ये तालाब चौमासे की वर्षा को अपने में संभालते थे और शहरी क्षेत्र की बाढ़ को रोकते थे और वहां का भूजल उठाते थे। यह ऊंचा उठा भूजल फिर आने वाले आठ महीने शहरों की प्यास बुझाता था। अब इन सब जगहों पर ज़मीन की कीमत आसमान छू रही है। बिल्डर-नेता-अधिकारी मिलजुल कर पूरे देश के सारे तालाब मिटा रहे हैं। महाराष्ट्र में अभी कल तक 50 वर्षों का सबसे बुरा अकाल था और आज उसी महाराष्ट्र के पुणे, मुम्बई में एक ही दिन की वर्षा में बाढ़ आ गई है। इंद्र का एक सुंदर पुराना नाम, एक पर्यायवाची शब्द है पुरंदर- पुरों को, किलों को, शहरों को तोड़ने वाला। यानि यदि हमारे शहर इंद्र से मित्रता कर उसका पानी रोकना नहीं जानते तो फिर वह पानी बाढ़ की तरह हमारे शहरों को नष्ट करेगा ही। यह पानी बह गया तो फिर गर्मी में अकाल भी आएगा ही।
वापस गंगा लौटें। दो दिन से उत्तराखंड की बाढ़ की, गंगा की बाढ़ की टीवी पर चल रही खबरों को याद करें। नदी के धर्म को भूल कर हमने अपने अहम के प्रदर्शन के लिए बनाए तरह-तरह के भद्दे मंदिर, धर्मशालाएं बनाई, नदी का धर्म सोचे बिना। इस सप्ताह की बाढ़ मूर्तियां- सब कुछ गंगा अपने साथ बहा ले गई।
तो नदी से सारा पानी विकास के नाम पर निकालते रहे, ज़मीन की कीमत के नाम पर तालाब मिटाते जाएं और फिर सारे शहरों, खेतों की सारी गंदगी, जहर नदी में मिलाते जाएं और फिर सोचें कि अब कोई नई योजना बनाकर हम नदी भी साफकर लेंगे। नदी ही नहीं बची। गंदा नाला बनी नदी साफ होने से रही। भरूच में जाकर देखिए रसायन उद्योग विकास के नाम पर नर्मदा को किस तरह बर्बाद किया है। नदियां ऐसे साफ नहीं होंगी। हम हर बार निराश ही होंगे।
तो आशा नहीं बची? नहीं ऐसा नहीं। आशा है पर तब जब हम फिर से नदी धर्म ठीक से समझ सकें। विकास की हमारी आज जो इच्छा है उसकी ठीक जांच कर सकें। बिना कटुता के। गंगा को, हिमालय को कोई चुपचाप षड्यंत्र करके नहीं मार रहा। ये तो सब हमारे ही लोग हैं। विकास, जीडीपी, नदी जोड़ो, बड़े बांध सब कुछ हो रहा है- या तो यह पक्ष करता है या तो वह पक्ष। विकास के इस झंडे के तले पक्ष-विपक्ष का भेद समाप्त हो जाता है। मराठी में एक सुंदर कहावत है: रावणा तोंडी रामायण। रावण खुद बखान कर रहा है रामायण की कथा। हम ऐसे रावण न बनें।
पिछले दिनों दिल्ली में गंगा पर आयोजित एक सम्मेलन में की गई बात-चीत का एक अंश।
पुस्तकः महासागर से मिलने की शिक्षा | |
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