रेडलाइन में शुमार बटागुर प्रजाति के कछुओ से चंबल में ‘‘नई उम्मीद‘‘  

Submitted by Shivendra on Wed, 06/26/2019 - 11:11

चंबल सेंचुरी में दुर्लभ प्रजाति के कछुए।चंबल सेंचुरी में दुर्लभ प्रजाति के कछुए।

तीन राज्यों में फैली चंबल सेंचुरी वैसे तो दुर्लभ प्रजाति के सैकडों जलचरों को जीवनदान दे रही है। साथ ही यहां पर कछुओं के संरक्षण ने चंबल की सूरत को एक नया आयाम दे दिया है ।  इस दफा पांच हजार से ज्यादा कछुओं ने यहां जन्म लिया है। इनमें शेड्यूल-1 की श्रेणी में शुमार बटागुर (साल) और ढोंड प्रजाति के कछुए भी शामिल हैं। इस प्रजाति के कछुए सारी दुनिया में विलुप्तप्राय माने जाते है।
 

वाइल्ड लाइफ विशेषज्ञों की मानें तो चंबल में सर्वाधिक संकटग्रस्त माने जाने वाले घड़ियाल की तुलना में साल अधिक संकट में है। इसीलिए उसे क्रिटिकल एंडेंजर्ड कैटेगरी में रखा गया है।  पूरे देश में कछुओं की 28 प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से 14 केवल उत्तर प्रदेश में हैं, जिनमें से आठ चंबल में हैं। इनमें साल, ढोर, स्योतर, कटहावा, सुंदरी, कोरी पचेड़ा, पचेड़ा प्रमुख हैं। 

30 अंडे तक देती है मादा

चंबल सेंचुरी में फरवरी और मार्च में मादा कछुओं ने नदी के किनारे बालू में अंडे दिए थे। तब से चंबल सेंचुरी विभाग के अफसर इनकी निगरानी करने में जुटे हुए थे। मई माह के दूसरे पखवाड़े में अंडों की हैचिंग (अंडों को सेकने की प्रक्रिया) शुरू हुई। गढ़ायता, हरलालपुरा, पिनाहट, मऊ, मुकुटपुरा हैचरी क्षेत्र में नन्हें मेहमानों ने जन्म लिया और बालू पर सरकते हुए नदी में पहुंचना शुरू हो गए। पहले दौर में बटागुर प्रजाति और उसके बाद अन्य प्रजातियों की हैचिंग की गई। अच्छी बात ये है कि इस बार 5792 कछुए जन्मे, जबकि पिछले वर्ष यह संख्या मात्र 1824 पर सिमट गई थी। मादा कछुआ 30 अंडे तक देती है। सामान्यत वह रात में अंडे देती है। अंडे देने के बाद उसको मिट्टी तथा बालू से ढक देती है। विभिन्न प्रजातियों के अंडों से निकलने का समय भिन्न-भिन्न होता है। अंडे से निकलने में बच्चों को 60 से 120 दिन का समय लगता है।

चंबल ही एक मात्र है सहारा

चंबल सेंचुरी के डीएफओ आनंद कुमार ने बताया कि विभागीय टीम ने चंबल नदी पर सतर्कता बढ़ा दी है। जन्म लेने वाले कछुओं के मूवमेंट की निगरानी की जा रही है। चंबल नदी में सात प्रकार की दुर्लभ प्रजातियों के कछुओं का संरक्षण किया जा रहा है।  इस बार चंबल सेंचुरी में 300 घोंसले रखे थे। जिनमे सेंचुरी कर्मियो ने 6085 अंडों की गिनती की थी। हैचिंग के बाद 5792 शिशु कछुओं की गिनती की गई। पिछले साल 1824 कछुए ही जन्म ले सके थे । कभी गंगा-यमुना समेत सभी प्रमुख नदियों में पाया जाना वाला कछुआ साल अब केवल चंबल सेंचुरी में ही बचा है। शायद यही वजह है कि  सरकार ने इस विलुप्तप्राय कछुए को बचाने के लिए टर्टल सर्वाइवल एलाइंस से मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग (एमओयू) किया है। 

विशेषज्ञो का तर्क

सेंटर फॉर वाइल्ड लाइफ स्टडीज़ के वरिष्ठ वैज्ञानिक सलाहकार डॉ. शैलेंद्र सिंह बताते हैं साल (बटागुर कछुआ) क्रिटीकल एंडेंजर्ड प्रजातियों में शामिल है। विश्व में चंबल एकमात्र ऐसा स्थान है, जहां यह पाया जाता है। हम हर वर्ष दो से तीन हैचरी में उनके घोंसलों को बचाते हैं। हम उनके थोड़ा बड़ा होने तक उनकी देखरेख करते हैं, बाद में उन्हें नदी में छोड़ दिया जाता है, जहां उनका सर्वाइवल रेट अधिक होता है। दूसरी ओर समन्वयक भाष्कर दीक्षित बताते हैं कि बढ़ता प्रदूषण, नदी में अवैध खनन, नदी के किनारे होने वाली खेती इनके लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। चंबल सेंचुरी में जैकॉल से भी इन्हें खतरा रहता है। 

चंबल में हैं आठ प्रजातियां

टर्टल्स सर्वाइवल एलाइंस द्वारा चंबल सेंचुरी क्षेत्र में बनाए गए दो केंद्रों पर साल के कछुओं की हैचिंग कराई जाती है। इसके लिए वह नदी किनारे मादा कछुओं द्वारा अंडों को तलाशते हैं। इटावा के गढ़ायता कछुआ संरक्षण केंद्र और देवरी ईको केंद्र पर बाद में हैचिंग कराई जाती है। वाइल्ड लाइफ विशेषज्ञों की मानें तो चंबल में सर्वाधिक संकटग्रस्त माने जाने वाले घड़ियाल की तुलना में साल अधिक संकट में है। इसीलिए उसे क्रिटिकल एंडेंजर्ड कैटेगरी में रखा गया है।  पूरे देश में कछुओं की 28 प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से 14 केवल उत्तर प्रदेश में हैं, जिनमें से आठ चंबल में हैं। इनमें साल, ढोर, स्योतर, कटहावा, सुंदरी, कोरी पचेड़ा, पचेड़ा प्रमुख हैं।

 

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