रोटी के लिये मलमूत्र की सफाई

Submitted by editorial on Mon, 10/01/2018 - 13:45
Source
द हिन्दू, 30 सितम्बर 2018

राजस्थान के बेहनारा गाँव में सूखा शौचालय साफ करती मुन्नीराजस्थान के बेहनारा गाँव में सूखा शौचालय साफ करती मुन्नी (फोटो साभार - द हिन्दू)राजस्थान का एक गाँव जो पेपर पर खुले में शौच से मुक्त घोषित हो चुका है, लेकिन स्वच्छ भारत मिशन के चार साल बाद भी रोटी के लिये मलमूत्र की सफाई करने को मजबूर हैं।

गाँव की संकरी गली, जहाँ नालियों का जाल बिछा है। उन नालियों से मलमूत्र के अंश बाहर झाँक रहे हैं जो ऊँची जाति वाले लोगों के घरों में बने शौचालयों से निकले हैं।

सांता देवी अपनी साड़ी के कोने से मुँह ढँकती हैं और फावड़े एवं झाड़ू की सहायता से लोहे से बने डब्बे में सुबह के कोटे की गन्दगी डालने लगती हैं। गन्दगी को मोहल्ले के पास ही स्थित कचरा स्थल में फेंकने के बाद वापस आकर घरों से रोटी इकठ्ठा करती हैं जो उसकी मेहनत का एकमात्र पारिश्रमिक है।

पिछले 60 वर्षों से सांता देवी के जीवन के हर सुबह की शुरुआत इसी तरह से होती है। राजस्थान के भरतपुर जिले के बेहनारा गाँव में विनिमय प्रणाली पर आधारित स्वच्छता यही है।

इस तथ्य के बावजूद कि एक साल पूर्व ही केन्द्र सरकार के ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत सभी शुष्क शौचालयों को हटाए जाने के साथ सांता देवी के गाँव और पूरे ग्रामीण राजस्थान को खुले में शौच मुक्त घोषित किया जा चुका है, शायद की कोई बदलाव हुआ है। मैला ढोना, प्रोहिबिशन ऑफ एम्प्लॉयमेंट ऐज मैन्युअल स्केवेंजिंग एंड रिहैबिलिटेशन एक्ट 2013 (prohibition of employment as manual scavengers and rehabilitation act 2013) के तहत अपराध है।

इसके लिये पैसे नहीं

“मेरी बहन मुन्नी, उसका पति और मैं- हम मैला ढोने का काम हर दिन करते हैं। इसे करने में हमें पाँच से छह घंटे लगते हैं और बदबू से भरे हम घर लौटते हैं” 65 साल की दादी बताती हैं। वह कहती हैं कि साफ-सफाई से जुड़े दूसरे कामों के लिये थोड़ा पैसा मिलता है लेकिन मैला साफ करने के बदले केवल एक रोटी मिलती है।

इस बस्ती में मेहतर समुदाय के पाँच परिवार हैं जिन पर परम्परागत रूप से अगड़ी जाति के लोगों द्वारा मैला साफ करने के लिये दबाव डाला जाता रहा है। 250 घरों के इस मोहल्ले में जाट और जाटव परिवारों के भेद है।

सांता देवी और उसके परिवार के लोग कहते हैं कि 10 जाट परिवारों के घर से उन्हें शुष्क शौचालयों से सीधे मल निकलना पड़ता है साथ ही अगड़ी जाति वाले लोगों की गलियों में बने गटरों से रोज मलमूत्र निकलना पड़ता है। सांता और मुन्नी के बेटे यह काम कभी-कभी ही करते हैं लेकिन वे भी पैसा रोज मजदूरी करके ही कमाते हैं। उन्हें पैसा कमाने के लिये शौचालयों, सेप्टिक टैंकों, ठोस अपशिष्ट के साथ ही शवों को भी हटाना पड़ता है।

मुन्नी का बेटा मुकेश कहता है कि लोग उन्हें दूसरा काम नहीं करने देते। वे उन्हें गन्दा कहते हैं। अगर वे कुछ बेचना भी चाहें तो लोग उनसे नहीं खरीदेंगे। वह बताता है कि लोग उन्हें गाँव के मन्दिर में पूजा तक नहीं करने देते।

मुन्नी को आशा है कि उसके नाती-पोते शिक्षित होकर इस चक्र को तोड़ेंगे। चौथी कक्षा में पढ़ने वाला उसका पोता संगम कहता है, “वह बड़ा होकर पुलिस वाला बनना चाहता है ताकि वह दुश्मन से लड़ सके”।

संगम के मेहतर समुदाय से होने के कारण शिक्षक उसे कक्षा में अन्य बच्चों से सबसे अलग, पीछे बैठाते हैं। वह कहता है कि बच्चे उसके साथ न खेलते हैं और न खाते हैं। अगर गलती से हम उन्हें छू देते हैं तो वे चिल्लाकर हमें नाम से बुलाते हैं”।

स्कूल के शौचालय की सफाई अमूमन संगम के दादा करते हैं। यदि किसी दिन वे सफाई नहीं कर पाये तो यह आशा की जाती है कि संगम और उसका भाई सागर यह काम करे।

“हम समझते हैं कि स्वच्छ भारत ने वास्तव में इन जातिगत बाधाओं को तोड़ दिया है।” द हिन्दू से बात करते हुए स्वच्छता सचिव परमेश्वरन अय्यर ने एक सप्ताह पूर्व जब स्वच्छ भारत अभियान अन्तिम वर्ष में प्रवेश करने वाला है कहा। उन्होंने यह भी पुष्टि की कि यदि एक गाँव या राज्य को खुले में शौचमुक्त घोषित किया जा चुका है तो इसका मतलब है कि सभी घरों में स्वच्छ शौचालयों की पहुँच है और सभी शुष्क शौचालय हटाए या स्वच्छ शौचालयों में बदले जा चुके हैं। उन्होंने यह भी बताया कि शुष्क शौचालयों से मैला ढोने के यदि कोई भी उदहारण सामने आते हैं तो वह भूल हो सकती है।

सरकार की एक अन्य शाखा यह पता लगाने के लिये कि इस समस्या का फैलाव कितना है आँकड़े जुटाने की प्रक्रिया में है। सामाजिक न्याय मंत्रालय द्वारा गठित एक अंतर मत्रिमण्डलीय टास्क फोर्स ने राष्ट्रीय गरिमा अभियान नामक स्वयंसेवी संस्था के सहयोग से 160 जिलों में 50,000 मैला ढोने वालों का पंजीकरण किया है। राष्ट्रीय गरिमा अभियान, सर्वे करने हेतु मंत्रालय का साझेदार है।

इस सर्वे के सत्यापन की प्रक्रिया अभी जारी है। लेकिन राष्ट्रीय गरिमा अभियान के कर्मियों का कहना है कि खासकर उन जिलों में जो खुले में शौच मुक्त घोषित किये जा चुके हैं उनमें मैला ढोने वालों की उपस्थिति को नकारने के लिये अफसर उन पर दबाव बना रहे हैं।

अप्रैल 2018 में सर्वे टीम द्वारा आयोजित किये गए एक कैम्प में बेहनारा मेहतर बस्ती सांता और उसके बेटों के साथ कुल 10 लोग पंजीकरण के लिये गए थे। उनके नाम सर्वे की सूची में दर्ज हैं लेकिन सत्यापन के साथ वाले कॉलम में जिले के अफसरों ने वही पुराना मुहावरा “मैला” दर्ज किया है।

अंग्रेजी में पढ़ने के लिये लिंक देखें।

अनुवाद: राकेश रंजन

 

 

 

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