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गोरखपुर एनवायरन्मेंटल एक्शन ग्रुप, 2011
भूमिहीन आदिवासियों को कभी भी समाज की मुख्य धारा में नहीं जोड़ा गया, बावजूद इसके उन्होंने अपनी उन्नति के रास्ते खुद तलाशे और परती की भूमि को सामूहिकता के आधार पर सुधार कर खेती प्रारम्भ की।
गरीबी समाज से कटने का दर्द और आर्थिक-सामाजिक वंचनाओं की पीड़ा आदिवासियों से बेहतर भला कौन समझ सकता है। आदिवासियों को कभी भी समाज की मुख्य धारा में शामिल नहीं किया गया। समाज के लिए बनी सुविधाएँ इन्हें नहीं दी गईं, पर बेगारी कराने सस्ते दरों पर मज़दूरों की उपलब्धता के समय इन्हें अवश्य याद किया गया। अपनी इन्हीं स्थितियों से दो-चार होते आदिवासी परिवारों ने एकजुट होकर अपनी उन्नति का रास्ता स्वयं तलाशने का काम किया और परती की ज़मीन को सामूहिक तौर पर उर्वर बनाने एवं उस पर खेती करने का कार्य करना प्रारम्भ किया। साथ ही खेती से जुड़ी अन्य व्यवस्थाओं पर भी अपनी नजर दौड़ानी शुरू की।
जनपद सोनभद्र विकास खंड दुद्धी के ग्राम पंचायत बोम में रहने वाले आदिवासियों ने कुछ ऐसी ही सोच बनाई और उसे कार्यरूप में परिणति दी। इस ग्राम पंचायत में कुल 391 परिवार हैं। जिनमें से 233 परिवार उच्च वर्ग के हैं। शेष 158 परिवार आदिवासियों के पास हैं। ये परिवार भूमिहीनों की श्रेणी में आते हैं, क्योंकि किसी भी परिवार के पास दो बिस्वा से अधिक ज़मीन नहीं है। ये आदिवासी परिवार गांव को मिलने वाली मूलभूत सुविधाओं से महरूम होने के साथ ही साल के 9-10 महीने पलायन का दंश झेलते हैं। इन्हीं स्थितियों से उबरने हेतु इन्होंने सामूहिक खेती की रणनीति बनाई।
1 अगस्त, 1995 को एक जैसी परिस्थितियों वाले ये 158 परिवार एक जगह पर एकत्रित हुए और परिस्थितियों एवं उससे निपटने हेतु समाधान क्या हो सकते हैं, इस विषय पर चर्चा की गई। इस चर्चा की अगुवाई श्रीमती कलावती देवी ने किया। सभी ने माना कि खेती करके हम अपनी आर्थिक स्थिति को बेहतर बना सकते हैं, परंतु मात्र एक बिस्वा या दो बिस्वा पर खेती करने से स्थिति में कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं आने वाला है। तब कलावती देवी, मनबोधी, बिहारी आदि ने एक प्रस्ताव रखा कि यदि हम लोग सामूहिक खेती करें तो लाभ का प्रतिशत बेहतर होगा। इसके लिए धारा-20 के अंतर्गत खाली, परती पड़ी ज़मीन का उपयोग किया जा सकता है।
इस विचार का सभी ने स्वागत करते हुए सर्वसम्मति से समर्थन किया। तत्पश्चात् सामूहिक खेती की रणनीति तैयार की गई।
150 एकड़ के क्षेत्रफल वाली 1 किमी. लंबी व 600 मीटर चौड़ी धारा-20 की ज़मीन को खेती योग्य बनाने के लिए सभी आदिवासी परिवारों से लोगों ने प्रयास करना शुरू किया, जिसके तहत् उसे नियमित रूप से जोतना, कोड़ना प्रारम्भ कर दिया गया। लगातार एक साल तक सामूहिक रूप से श्रमदान व अंशदान करने के पश्चात् यह ज़मीन खेती योग्य हुई। शुरू के वर्षों में इन परिवारों ने इस पर सिर्फ खरीफ सीजन में ही खेती प्रारम्भ की। पुनः खेती के अन्य उपादानों का विकास करते हुए लोगों ने रबी की खेती भी प्रारम्भ की। इन लोगों द्वारा की जा रही खेती का फसली मौसम के हिसाब से फसल विवरण निम्नवत् है-
वर्षा आधारित खेती करने में होने वाली कठिनाईयों, पानी की मात्रा कम होने पर घटते उत्पादन को देखते हुए इन्होंने यह निश्चय किया कि पानी को रोकने का उपाय किया जाए।
इसके तहत् प्रति वर्ष मई-जून के माह में समुदाय के लोगों ने जगह-जगह पर चौड़ा व गहरा गड्ढा तैयार किये। इस प्रकार से पानी रोकने हेतु कुल 40 गड्ढा तैयार कर लिया गया है। एक गड्ढा तैयार करने में 10 से 12 व्यक्ति लगे। इन गड्ढों की लम्बाई, चौड़ाई क्रमशः 30-50 फीट, 10-20 फीट तथा गहराई 30-40 फीट है।
सामूहिक सहयोग से एक बंधी का निर्माण किया गया। 50 फीट लम्बे, 20 फीट चौड़े तथा 40 फीट गहरे इस बंधी का निर्माण हो जाने से रबी सीजन में चना, मटर, जौ, गेहूं की सिंचाई हेतु पानी की उपलब्धता आसान हो गई है। इस बंधी के निर्माण से जितना पानी एकत्र होता है, उससे 55 एकड़ भूमि की सिंचाई संभव हो गई है।
ये आदिवासी सामूहिक रूप से अपने हल-बैल व श्रम को लगाकर खेती करने का कार्य करते हैं। जो भी उत्पादन होता है, उसे एक जगह एकत्र करते हैं। अन्न की कटाई से लेकर मड़ाई कार्य करने तक में सभी की सामूहिक भागीदारी रहती है। पुनः उत्पादित अनाज की तौल की जाती है। उसमें से 50 किग्रा. से लेकर 2 कुंतल तक का बँटवारा आदिवासी परिवारों के बीच होता है।
बँटवारे का यह नियम किये गये कार्य एवं उत्पादन के आधार पर निश्चित होता है। साथ ही परिवार के आकार को भी आधार बनाते हैं। बचे अन्न को बाजार में बेच दिया जाता है। बिक्री करने के पश्चात् जो राशि मिलती है, वह भी आपस में बराबर भागों में बांट ली जाती है।
इन आदिवासियों ने स्वयं के प्रयास से एक कोष बनाया हुआ है, जिसमें प्रत्येक परिवार 10 रु. प्रतिमाह चंदे के तौर पर जमा करता है। इस कोष का उपयोग सामूहिक रूप से आए किसी भी खर्च को करने के लिए किया जाता है।
सामूहिक खेती से निम्न लाभ प्रत्यक्ष तौर पर दिखते हैं –
पहले जहां ये आदिवासी समूह एक भी फसल के लिए मोहताज रहते थे। अब वे दोनों फसली सीजन में कई फसले ले पा रहे हैं।
इनके परिवार का जीवन-स्तर उन्नत हो गया है।
परिवार को पलायित नहीं होना पड़ता है। पहले जहां 9 माह गांव से बाहर रहकर मजदूरी करना पड़ता था, अब वो स्थिति या तो एकदम खत्म हो गई है या फिर अवधि घटकर एक से दो माह ही रह गई है।
सामूहिकता का भावना सुदृढ़ हुई है।
हालांकि इस काम को करने में इन आदिवासियों को बहुत सी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा-
धारा-20 की ज़मीन पर कब्ज़ा करने के दौरान वन विभाग द्वारा इन आदिवासियों का अत्यधिक उत्पीड़न किया गया, परंतु इन्होंने हार नहीं मानी और बचाव के लिए अपने साथ परंपरागत धनुष व तीर हमेशा लिये रहते थे। इनकी एकजुटता के आगे वन विभाग को हार माननी पड़ी।
बंधी निर्माण को अवैध घोषित करते हुए वन विभाग द्वारा अगुआई कर रही श्रीमती कलावती, मनबोधी, बिहारी के ऊपर केस कर दिया गया। पर इन लोगों ने अपनी सामूहिक भावना का परिचय देते हुए उससे निपटने में सफलता पाई।
परिचय
गरीबी समाज से कटने का दर्द और आर्थिक-सामाजिक वंचनाओं की पीड़ा आदिवासियों से बेहतर भला कौन समझ सकता है। आदिवासियों को कभी भी समाज की मुख्य धारा में शामिल नहीं किया गया। समाज के लिए बनी सुविधाएँ इन्हें नहीं दी गईं, पर बेगारी कराने सस्ते दरों पर मज़दूरों की उपलब्धता के समय इन्हें अवश्य याद किया गया। अपनी इन्हीं स्थितियों से दो-चार होते आदिवासी परिवारों ने एकजुट होकर अपनी उन्नति का रास्ता स्वयं तलाशने का काम किया और परती की ज़मीन को सामूहिक तौर पर उर्वर बनाने एवं उस पर खेती करने का कार्य करना प्रारम्भ किया। साथ ही खेती से जुड़ी अन्य व्यवस्थाओं पर भी अपनी नजर दौड़ानी शुरू की।
जनपद सोनभद्र विकास खंड दुद्धी के ग्राम पंचायत बोम में रहने वाले आदिवासियों ने कुछ ऐसी ही सोच बनाई और उसे कार्यरूप में परिणति दी। इस ग्राम पंचायत में कुल 391 परिवार हैं। जिनमें से 233 परिवार उच्च वर्ग के हैं। शेष 158 परिवार आदिवासियों के पास हैं। ये परिवार भूमिहीनों की श्रेणी में आते हैं, क्योंकि किसी भी परिवार के पास दो बिस्वा से अधिक ज़मीन नहीं है। ये आदिवासी परिवार गांव को मिलने वाली मूलभूत सुविधाओं से महरूम होने के साथ ही साल के 9-10 महीने पलायन का दंश झेलते हैं। इन्हीं स्थितियों से उबरने हेतु इन्होंने सामूहिक खेती की रणनीति बनाई।
प्रक्रिया
1 अगस्त, 1995 को एक जैसी परिस्थितियों वाले ये 158 परिवार एक जगह पर एकत्रित हुए और परिस्थितियों एवं उससे निपटने हेतु समाधान क्या हो सकते हैं, इस विषय पर चर्चा की गई। इस चर्चा की अगुवाई श्रीमती कलावती देवी ने किया। सभी ने माना कि खेती करके हम अपनी आर्थिक स्थिति को बेहतर बना सकते हैं, परंतु मात्र एक बिस्वा या दो बिस्वा पर खेती करने से स्थिति में कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं आने वाला है। तब कलावती देवी, मनबोधी, बिहारी आदि ने एक प्रस्ताव रखा कि यदि हम लोग सामूहिक खेती करें तो लाभ का प्रतिशत बेहतर होगा। इसके लिए धारा-20 के अंतर्गत खाली, परती पड़ी ज़मीन का उपयोग किया जा सकता है।
इस विचार का सभी ने स्वागत करते हुए सर्वसम्मति से समर्थन किया। तत्पश्चात् सामूहिक खेती की रणनीति तैयार की गई।
सामूहिक खेती की रणनीति
150 एकड़ के क्षेत्रफल वाली 1 किमी. लंबी व 600 मीटर चौड़ी धारा-20 की ज़मीन को खेती योग्य बनाने के लिए सभी आदिवासी परिवारों से लोगों ने प्रयास करना शुरू किया, जिसके तहत् उसे नियमित रूप से जोतना, कोड़ना प्रारम्भ कर दिया गया। लगातार एक साल तक सामूहिक रूप से श्रमदान व अंशदान करने के पश्चात् यह ज़मीन खेती योग्य हुई। शुरू के वर्षों में इन परिवारों ने इस पर सिर्फ खरीफ सीजन में ही खेती प्रारम्भ की। पुनः खेती के अन्य उपादानों का विकास करते हुए लोगों ने रबी की खेती भी प्रारम्भ की। इन लोगों द्वारा की जा रही खेती का फसली मौसम के हिसाब से फसल विवरण निम्नवत् है-
सिंचाई साधनों की उपलब्धता
वर्षा आधारित खेती करने में होने वाली कठिनाईयों, पानी की मात्रा कम होने पर घटते उत्पादन को देखते हुए इन्होंने यह निश्चय किया कि पानी को रोकने का उपाय किया जाए।
इसके तहत् प्रति वर्ष मई-जून के माह में समुदाय के लोगों ने जगह-जगह पर चौड़ा व गहरा गड्ढा तैयार किये। इस प्रकार से पानी रोकने हेतु कुल 40 गड्ढा तैयार कर लिया गया है। एक गड्ढा तैयार करने में 10 से 12 व्यक्ति लगे। इन गड्ढों की लम्बाई, चौड़ाई क्रमशः 30-50 फीट, 10-20 फीट तथा गहराई 30-40 फीट है।
सामूहिक सहयोग से एक बंधी का निर्माण किया गया। 50 फीट लम्बे, 20 फीट चौड़े तथा 40 फीट गहरे इस बंधी का निर्माण हो जाने से रबी सीजन में चना, मटर, जौ, गेहूं की सिंचाई हेतु पानी की उपलब्धता आसान हो गई है। इस बंधी के निर्माण से जितना पानी एकत्र होता है, उससे 55 एकड़ भूमि की सिंचाई संभव हो गई है।
खेती कार्य व उत्पादन का बँटवारा
ये आदिवासी सामूहिक रूप से अपने हल-बैल व श्रम को लगाकर खेती करने का कार्य करते हैं। जो भी उत्पादन होता है, उसे एक जगह एकत्र करते हैं। अन्न की कटाई से लेकर मड़ाई कार्य करने तक में सभी की सामूहिक भागीदारी रहती है। पुनः उत्पादित अनाज की तौल की जाती है। उसमें से 50 किग्रा. से लेकर 2 कुंतल तक का बँटवारा आदिवासी परिवारों के बीच होता है।
बँटवारे का यह नियम किये गये कार्य एवं उत्पादन के आधार पर निश्चित होता है। साथ ही परिवार के आकार को भी आधार बनाते हैं। बचे अन्न को बाजार में बेच दिया जाता है। बिक्री करने के पश्चात् जो राशि मिलती है, वह भी आपस में बराबर भागों में बांट ली जाती है।
इन आदिवासियों ने स्वयं के प्रयास से एक कोष बनाया हुआ है, जिसमें प्रत्येक परिवार 10 रु. प्रतिमाह चंदे के तौर पर जमा करता है। इस कोष का उपयोग सामूहिक रूप से आए किसी भी खर्च को करने के लिए किया जाता है।
लाभ
सामूहिक खेती से निम्न लाभ प्रत्यक्ष तौर पर दिखते हैं –
पहले जहां ये आदिवासी समूह एक भी फसल के लिए मोहताज रहते थे। अब वे दोनों फसली सीजन में कई फसले ले पा रहे हैं।
इनके परिवार का जीवन-स्तर उन्नत हो गया है।
परिवार को पलायित नहीं होना पड़ता है। पहले जहां 9 माह गांव से बाहर रहकर मजदूरी करना पड़ता था, अब वो स्थिति या तो एकदम खत्म हो गई है या फिर अवधि घटकर एक से दो माह ही रह गई है।
सामूहिकता का भावना सुदृढ़ हुई है।
कठिनाईयां
हालांकि इस काम को करने में इन आदिवासियों को बहुत सी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा-
धारा-20 की ज़मीन पर कब्ज़ा करने के दौरान वन विभाग द्वारा इन आदिवासियों का अत्यधिक उत्पीड़न किया गया, परंतु इन्होंने हार नहीं मानी और बचाव के लिए अपने साथ परंपरागत धनुष व तीर हमेशा लिये रहते थे। इनकी एकजुटता के आगे वन विभाग को हार माननी पड़ी।
बंधी निर्माण को अवैध घोषित करते हुए वन विभाग द्वारा अगुआई कर रही श्रीमती कलावती, मनबोधी, बिहारी के ऊपर केस कर दिया गया। पर इन लोगों ने अपनी सामूहिक भावना का परिचय देते हुए उससे निपटने में सफलता पाई।