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विश्व नदी दिवस, 27 सितम्बर 2015 पर विशेष
नदी और समाज के बीच कई हजारों साल पुराना मजबूत और आत्मीय किस्म का रिश्ता रहा है। अब तक का इतिहास देखें तो दुनिया की तमाम सभ्यताएँ नदियों के किनारे ही पली–बढ़ी और अतिश्योक्ति नहीं होगी कि नदियों के कारण ही सैकड़ों सालों तक उनका अपना अस्तित्व भी बना रहा।
शायद इस नजरिए से ही नदियों को मानव सभ्यता की माताओं का दर्जा दिया जाता रहा है। दुनिया की कोई भी प्राचीनतम सभ्यता रही हो, चाहे वह सिन्धु और गंगा की सभ्यता हो या दजला फरात की या नील की हो या ह्वांगहो की सभ्यता रही हो, वे इन नदियों की घाटियों में ही पनपी और आगे बढ़ी।
शायद नदियों के बिना किसी सभ्यता की कल्पना इसलिये भी सम्भव नहीं कि मनुष्य के लिये सबसे जरूरी पानी की आपूर्ति उसे नदी तटों या अन्य जलस्रोतों से ही करना पड़ता है। तब भी और आज भी समाज पर यही बात लागू होती है। मनुष्य वहीं बसा जहाँ उसके लिये बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिये जरूरी संसाधन पहले से मौजूद थे।
कालान्तर में नदियों की धाराएँ बदलती गईं और इसके किनारे बसी सभ्यताएँ भी उन्हीं बदलती धाराओं के साथ ही बदलती रही। यह बात सभ्यताओं के विकास क्रम से भी साबित होती है। पुराने रास्तों को बदलते हुए नदी की धारा जिधर–जिधर मुड़ती है, उधर–उधर ही वह सभ्यता के नए आयाम भी स्थापित करती चलती है।
यही वजह है कि मोहन जोदड़ो की नगर आधारित सभ्यता खत्म होती है तो शुरू होता है आर्यों की कृषि आधारित सभ्यता का नया दौर। इस तरह आज तक के सभ्यता विकास क्रम को भी दूसरी तरह से कहें तो यह नदियों का बनाया हुआ ही विकास क्रम रहा है।
मौर्य तथा गुप्त राजाओं की राजधानी पाटलिपुत्र 5वीं शताब्दी तक गंगा, गोगरा, गंडक, सोन और पुनपुन जैसी पाँच बड़ी नदियों के संगम पर स्थित होकर तब की प्रमुख राजनैतिक गतिविधियों का केन्द्रीय नगर रहा है। बाद के दिनों में आई किसी प्रलंयकारी बाढ़ ने पाटलिपुत्र का अस्तित्व ही मिटा दिया, हालांकि अब भी पटना से कई भग्नावशेष ऐसे मिलते हैं जो यह पुष्टि करते हैं कि कभी यहाँ पाटलिपुत्र जैसा नगर रहा होगा।
करीब एक हजार साल पहले तक पटना के पूर्व में सोन नदी मिलती रही है पर 1750 के बाद इसका संगम मनेर में होता रहा पर अब वहां से भी हटकर 10 मील दूर हो गया है। पटना शहर में सचिवालय के पास की खाइयाँ कभी सोन नदी की ही बनाई हुई हैं।
5वीं से 16वीं शताब्दी तक गंगा का डेल्टा गौड़ नामक नगर से शुरू होता था लेकिन बताते हैं 1575 में यहाँ दलदल हो गया और उसकी भयावह महामारी में पूरा शहर ही उजड़ गया। इसी तरह हुगली पहले कलकत्ता के दक्षिण पश्चिम से होकर बहती हुई समुद्र से मिलती थी लेकिन अब यह चौबीस परगना जिले से होकर बहती है।
अभी दो शताब्दी पहले तक ही बंगाल में गंगा नदी हुगली और भागीरथी दो धाराओं में बहती रही थी लेकिन अब हुगली गौण हो गई। इसकी जगह पूर्वी बंगाल की पद्मा नदी ने ले ली है। इसी तरह भागीरथी जो कभी सरस्वती के रास्ते पर हुगली नगर के पश्चिम में बहती थी और बंगाल की राजधानी और समुद्री व्यापार के केन्द्र नगर सप्तग्राम से गुजरती थी। इसका उपयोग जल मार्ग के रूप में भी होता रहा है पर अब सप्तग्राम का कोई अस्तित्व ही नहीं बचा है।
1800 ई. तक सिन्धु नदी की मुख्य धारा थार के रेगिस्तान से होकर गुजरती रही है लेकिन बाद में यह दो अलग–अलग धाराओं में बँट गई। 1819 के भूकम्प की वजह से इसकी मुख्य धारा खेदवाड़ी रुक गई और केकईवाड़ी मुख्य धारा बन गई। 1867 में यह भी रुक गई और मुख्य धारा 1900 में हजामड़ो हो गई।
नदियाँ हमारे जन जीवन से किस तरह हजारों साल से न केवल जुड़ी हुई हैं बल्कि वे मानव सभ्यताओं की जननी के रूप में जानी भी जाती रही हैं। बीते हजारों सालों में कितनी ही नदियों ने कितने ही नगरों और कस्बों को बसाया और उजाड़ा भी। नदियों का अपना सहज विकास क्रम है और सहज प्रकृति लेकिन यह भी उतना ही सही और जरूरी है कि हम नदी और उसके परम्परागत प्राकृतिक परिवेश से किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं करें। इन सौ सालों में इस एक नदी ने इसके किनारे के कितने शहरों और कस्बों को उजाड़ा होगा, यह सहज हो सोचा जा सकता है। मोहन जोदड़ो सिन्धु की सहायक नदी से 5 किमी तथा हड़प्पा सिन्धु की दूसरी सहायक नदी रावी से करीब 10 किमी दूर है लेकिन हो सकता है तब ये दोनों ही नगर इन नदियों के किनारे पर ही बसे रहे हों और कालान्तर में इन नदियों की भयावह बाढ़ ने ही इन्हें उजाड़ दिया हो।
इसी तरह हमारे यहाँ इतिहास में मुलतान का बड़ा नाम आता है तो मुलतान 1245 ई. तक जेहलम (विवस्ता), चेनाब (चन्द्रभागा या असिक्नी) और रावी (इरावती या परुष्णी) नदियों के संगम पर बसा हुआ था। मुलतान से 18 किमी दक्षिण की ओर इन नदियों का पानी व्यास में मिलता था लेकिन 14वीं शताब्दी के आखिर तक चेनाब ने अपना रास्ता बदल लिया और दक्षिण की जगह मुलतान के पश्चिम में बहने लगी।
गंगा की धाराओं में भी कई–कई बार बदलाव हुए। 18वीं शताब्दी की शुरुआत तक कोसी नदी पूर्णिया से होकर बहती थी लेकिन बाद में यह 50 मील पश्चिम में हटकर बहने लगी। पहले यह मनिहारी घाट पर गंगा से मिलती थी लेकिन अब वहाँ से 20 मील पश्चिम में आगे मिलती है। डेढ़ शताब्दी पहले तक गंगा की सहायक नदी तीस्ता हुआ करती थी लेकिन 1787 की बाढ़ के बाद यह अब ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी बन गई है। बीते दिनों ब्रह्मपुत्र नदी ने भी अपनी राह बदल दी है।
नदियों की बदलती धाराओं में सरस्वती नदी की बड़ी रोचक दास्तान है। वैदिक साहित्य में यह गंगा और सिन्धु के साथ आती है पर अब राजस्थान के एक इलाके में छोटी सी नदी हाकरा या सोतार के नाम से जानी जाती है। स्थानीय लोग अब भी इसे सरस्वती ही मानते हैं। बीकानेर में अब भी इसके भग्नावशेष और छोटे– बड़े टीले देखे जा सकते हैं। सर ओरेन स्टाइन ने सरस्वती को मोहन जोदड़ो या उसके कुछ बाद का माना है।
सरस्वती के बारे में बताया जाता है कि वह बड़ी ही जिवन्त नदी हुआ करती थी और करीब 18 हजार वर्ग किमी में ज़मीन को हरियाली का बाना पहनाते हुए बहती थी। उसके किनारों पर और आसपास बड़ी तादाद में लोग खेती किया करते थे और जब तक सरस्वती अस्तित्व में रही, उसने राजस्थान को एक उर्वर प्रदेश रखने में कोई कमी नहीं की लेकिन करीब दो–तीन हजार साल पहले जैसे–जैसे नदी सूखती गई, राजस्थान की समस्या बढ़ती गई।
सरस्वती के बारे में यहाँ तक बताया जाता है कि ईसा से करीब तीन हजार साल पहले यानी महाभारत काल के समय ही इस नदी का सूखना प्रारम्भ हो चुका था। ईसा के 300 साल बाद सिकंदर के आक्रमण और नौवीं शताब्दी में अरबों के आक्रमण के समय सरस्वती का जल मार्ग कायम था।
टॉड ने अपनी किताब एनल्स ऑफ़ राजस्थान में स्पष्ट किया है कि घाघर या हाकरा बीकानेर में सबसे पहले 1044 ई में सूखी। यूनानी और अरबी साहित्य में 1200 ई. तक पंजाब में सतलज नदी का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। 13वीं शताब्दी की शुरुआत में यह अपना दक्षिणी रास्ता छोड़कर पश्चिम में व्यास नदी से आ मिली। 13वीं शताब्दी के मध्य में एक भयावह अकाल के दौरान इस इलाके से बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए। इन्हीं दिनों सतलज से दूर होकर सरस्वती भी लुप्त हो गई।
इस तरह हम देखते हैं कि नदियाँ हमारे जन जीवन से किस तरह हजारों साल से न केवल बावस्ता है बल्कि वे मानव सभ्यताओं की जननी के रूप में जानी भी जाती रही हैं। बीते हजारों सालों में कितनी ही नदियों ने कितने ही नगरों और कस्बों को बसाया और उजाड़ा भी।
नदियों का अपना सहज विकास क्रम है और सहज प्रकृति लेकिन यह भी उतना ही सही और जरूरी है कि हम नदी और उसके परम्परागत प्राकृतिक परिवेश से किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं करें। बीते कुछ सालों में हमने नदी के पर्यावरण को बिगाड़ा है, यदि समय रहते हमने अपनी गलतियाँ नहीं सुधारीं तो नदियाँ अपना रास्ता खुद बनाने में भी सक्षम है।