विश्व आर्द्रभूमि दिवस, 2 फरवरी 2016 पर विशेष
वेटलैंड पर विश्व समुदाय का पहला ध्यान करीब 45 साल पहले रामसर सम्मेलन के बहाने ही आया। आज भी दुनिया भर में वेटलैंड को सुरक्षित, संरक्षित करने के लिये इन्हें रामसर सूची में ही शामिल किया जाता है।
1971 में पहली बार यहीं इन्हें चिन्हित कर संरक्षित करने की पहल की गई थी। फिलहाल दुनिया के करीब 170 देश इसके भागीदार हैं और दुनिया भर के करीब 2100 से ज्यादा वेटलैंड इसकी सूची में दर्ज हैं।
वेटलैंड हमारी प्रकृति और पर्यावरण के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। ये एक तरह से हमारे जलीय चक्र का ही अभिन्न हिस्सा हैं और नदियों या जलाशयों की तरह ही भूजल भण्डारों को रिचार्ज करने का काम तो करता ही है, साथ में जैव विविधता और कई जीव–जन्तुओं तथा पेड़–पौधों के लिये प्राकृतिक आवास भी होता है। इतना ही नहीं यह मेहमान बनकर आने वाले विदेशी पंछियों के लिये आसरा भी होता है, जहाँ वे कुछ ख़ास महीनों में आते हैं।
ये वेटलैंड हमारे अच्छे पर्यावरण के लिये जरूरी हैं। पर बीते कुछ सालों में बढ़ते अतिक्रमण और अन्य कारणों से इनके डूब क्षेत्र में खासी कमी आई है। इससे पर्यावरणविद खासे चिन्तित हैं। हालांकि इन्हें बचाने और संरक्षित करने के लिये भारत सरकार ने भी 1985-86 में राष्ट्रीय आर्द्रभूमि संरक्षण योजना भी बनाई थी लेकिन ज़मीनी तौर पर यह ज्यादा अमल में नहीं आ सकी।
इन्हें बचाने और इनकी उपयोगिता और महत्त्व जन–जन तक पहुँचाने के लिये हर साल 2 फरवरी को वेटलैंड दिवस मनाया जाता है। हमारे लिये वेटलैंड का महत्त्व इसलिये भी ज्यादा है कि बीते दस सालों में भारत के करीब 38 फीसदी वेटलैंड क्षेत्र तबाह हो चुके हैं। यह एक बड़ा संकट है।
अकेले भारत में ही 26 वेटलैंड को रामसर सूची में चिन्हित कर दर्ज किया गया है। इनमें सबसे ज्यादा चार वेटलैंड या आर्द्रभूमि जम्मू-कश्मीर में हैं। सूची के मुताबिक ओड़िशा की चिल्का झील को सबसे पहले 1981 में शामिल किया गया था।
अब तक शामिल किये गए वेटलैंड क्षेत्र में चिल्का झील सर्वाधिक क्षेत्रफल की है। इसके अलावा राजस्थान में केवलादेव पक्षी अभयारण्य को भी 1981 में, पंजाब की हरिके झील को, मणिपुर की लोकटक झील को, राजस्थान की साम्भर झील को तथा जम्मू कश्मीर की वुलर झील को एक साथ 1990 में, केरल के अस्तामुड़ी वेटलैंड, उड़ीसा के भितरकनिका मैंग्रोव, मध्य प्रदेश के भोज वेटलैंड, आसाम के दीपोर बील, पश्चिम बंगाल के पूर्वी कोलकाता वेटलैंड, पंजाब के कांजी वेटलैंड और रोपड़ वेटलैंड, आन्ध्र प्रदेश के कोलेरू वेटलैंड, तमिलनाडु के पॉइंट केलिमर, हिमाचल प्रदेश के पौंग बाँध, केरल के सस्थामकोट्टा झील, जम्मू कश्मीर के त्सोमोरिरी वेटलैंड, केरल के वेम्बाद कोल वेटलैंड को वर्ष 2002 में रामसर सूची में शामिल किया गया।
इसी प्रकार हिमाचल के चन्द्रताल और रेणुका वेटलैंड, जम्मू कश्मीर के होकेड़ा वेटलैंड और सुरिनसर– मानसर झील, त्रिपुरा की रुद्रसागर झील तथा उत्तर प्रदेश की गंगा नदी में ब्रिज घाट से नरौरा स्क्वेयर तक के क्षेत्र को वर्ष 2005 में एवं गुजरात के नाल सरोवर पक्षी अभयारण्य को 2012 में इस सूची में सम्मिलित किया गया है।
दरअसल ईरान के एक शहर रामसर में 2 फरवरी 1971 को एक सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें दुनिया के कई देशों ने भागीदारी की थी। यहाँ पहुँचने वाले देशों ने एक सर्वमान्य सन्धि पर हस्ताक्षर किये हैं और यह सन्धि उन पर लागू होती है। इसे 21 दिसम्बर 1975 को लागू किया गया। इसके सचिवालय का मुख्यालय स्वीटजरलैंड के ग्लैंड में है और यहाँ इसकी स्टैंडिंग कमेटी तथा वैज्ञानिक दल भी हैं।
बर्ड लाइफ इंटरनेशनल, इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ़ नेचर, द इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट, वेटलैंड इंटरनेशनल तथा WWF इंटरनेशनल आदि इसकी सहयोगी संस्थाओं के रूप में इन्हें विशेषज्ञता युक्त तकनीकी सलाह और मार्गदर्शन मुहैया कराते हैं।
रामसर एक ऐसी सन्धि या समझौता है जिसमें अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व के वेटलैंड को चिन्हित किया जाता है। इसके सूची में शामिल होने के बाद इसके संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इसके लिये ऐसे वेटलैंड का चयन किया जाता है जो ख़ासतौर पर जल प्रवाही हो, पशु–पक्षियों के प्राकृतिक आवास हों, जैव विविधता की अधिक सम्भावनाएँ हों तथा इसका विस्तृत क्षेत्र हो।
रामसर सूची में शामिल सदस्य देशों को उनकी वेटलैंड क्षेत्र को सहेजने के लिये समय–समय पर प्रोत्साहित किया जाता है तथा उनके संरक्षण के लिये तकनीकी सहयोग और इनके टिकाऊ और लगातार सदुपयोग करने के विभिन्न उपक्रम की जानकारी भी दी जाती है।
रामसर सूची में किसी भी वेटलैंड को जोड़े जाने के लिये कोई अलग से विशेष कानूनी प्रयासों की जरूरत नहीं पड़ती है। इसके लिये नौ मानदंड के बिन्दुओं पर विचार किया जाता है। इनमें प्रमुख हैं– पशु–पक्षियों के प्रवास और उनकी तादाद, दुर्लभ प्रजातियों के पक्षियों का प्रवास, जैव विविधता और पारिस्थितिकी की महत्ता।
इसके संरक्षण से सम्बन्धित सारी जिम्मेवारियाँ सम्बन्धित देश और प्रदेश सरकारों की ही होती हैं। यह सन्धि किसी भी रूप में किसी ख़ास तरह की बाध्यकारी नियन्त्रण नहीं लगाती है और न ही किसी देश पर कभी कोई दंडात्मक कार्रवाई करती है।
इसका उद्देश्य महज इतना होता है कि सम्बन्धित वेटलैंड के प्रति स्थानीय स्तर से लेकर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ध्यान खींचा जा सके। रामसर सूची में शामिल वेटलैंड क्षेत्र के विकास और संरक्षण कार्यों के लिये विभिन्न अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान धनराशि भी मुहैया कराते हैं।
इनमें आइएफ़सी, यूरोपीय इन्वेस्टमेंट बैंक, एडीबी, इबीआरबी और इंटरनेशनल अमेरिकन बैंक प्रमुख हैं। लेकिन इनके संरक्षण का असली दारोमदार तो स्थानीय समाज पर ही होता है। लिहाजा कोई भी कदम उठाने से पहले स्थानीय समाज को भी साथ जोड़ने तथा उन्हें वेटलैंड के पारिस्थितिकी महत्ता जताने की पहली जरूरत होती है। उनके सहयोगात्मक रवैये के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है।
रामसर सूची में शामिल वेटलैंड को जिस दस्तावेज में दर्ज किया जाता है, उसे मांट्रियोक्स रिकॉर्ड कहा जाता है। इसमें यदि कहीं किसी वेटलैंड क्षेत्र में पारिस्थितिकी परिवर्तन, प्रदूषण, अतिक्रमण या किसी तरह के किसी मानवीय हस्तक्षेप की वजह से वहाँ कोई ऐसी स्थिति बनती है जो वेटलैंड के पर्यावरण के लिये किसी भी तरह से उचित नहीं है तो इसकी सूचना रामसर सचिवालय को दी जाती है ताकि समय रहते समुचित कदम उठाए जा सकें। ऐसी स्थिति में तत्काल कदम उठाए जाते हैं और सम्बन्धित वेटलैंड की समस्या को सुधारने के लिये तकनीकी या अन्य तरह की सहायता की जाती है।
मांट्रियोक्स रिकॉर्ड में सम्मिलित वेटलैंड पर रामसर सचिवालय और इससे जुडी अन्य सहयोगी संस्थाएँ प्राथमिकता से कार्यवाही करती है। फिलहाल मांट्रियोक्स रिकॉर्ड में मात्र 59 ही वेटलैंड शामिल हैं। इनमें भारत की भी दो मणिपुर की लोकटक झील और राजस्थान की केवलादेव नेशनल पार्क शामिल हैं। पहले इसमें उड़ीसा की चिल्का झील भी शामिल थीं लेकिन बाद में उसे हटा लिया गया।
विश्व स्तर पर वेटलैंड को सहेजे जाने के लिये तमाम कोशिशें की जा रही हैं लेकिन हमारे यहाँ अब भी इनके संरक्षण को लेकर इच्छाशक्ति में कमी देखी जाती है। हमारे यहाँ कई प्रदेशों में इस तरह के महत्त्वपूर्ण वेटलैंड स्थित हैं। इनमें से कई चाहे रामसर सूची में शामिल नहीं हो लेकिन इससे उनका महत्त्व कम नहीं हो जाता।
आज हम देखते हैं कि जागरुकता के अभाव में पर्यावरणीय महत्त्व के इन वेटलैंड क्षेत्रों में अवैध गतिविधियाँ जैसे पक्षियों का शिकार, खनन, मछलियों का शिकार, प्रदूषण, कीटनाशक जैसे खतरनाक रसायनों का इस्तेमाल, ईंट भट्टों का धंधा और इन्हें समतल बनाकर खेती या अवैध निर्माण करके इन्हें नष्ट किया जा रहा है। ऐसा करके हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम कर रहे हैं।
जरूरत है कि इनके महत्त्व को देखते हुए सरकारें ही नहीं बल्कि स्थानीय समाज भी आगे आएँ और इन्हें बचाने के लिये विभिन्न तरीकें अपनाए जाएँ। इन्हें बचाने का मतलब है अपने पर्यावरण को बचाना। पर्यावरण से ही हमारा अस्तित्त्व है। यदि ये नहीं बचेंगे तो हमारा अस्तित्व भी खतरे में पड़ सकता है।