1844 में नैनीताल में सात घर बन चुके थे या बन रहे थे। तीन घरों का काम शुरू होने वाला था। तालाब के दक्षिणी छोर अयारपाटा में अब तक सिर्फ एक घर बना था। कुछ जगहों पर घर बनाने के लिए निशान लगाए गए थे। कुछ लोग अपनी बीमारी से निजात पाने और कुछ लोग रोमांच के लिए नैनीताल में अपना घर बनाने को आतुर थे। तालाब के सिरहाने में पहाड़ी की ऊँचाई पर सूखाताल के पास शवों को रखने और दफनाने की जगह बनाई गई थी। यहाँ एक आउट हाउस बना था। इसी साल कोलकाता के बिशप डेनियल विल्सन अल्मोड़ा आए थे। उनके साथ पादरी भी थे। मार्च 1844 में अल्मोड़ा से लौटते समय बिशप और पादरी नैनीताल में रुके।
बिशप को बताया गया कि नैनीताल नाम की इस जगह को हाल ही में बसावट के लिए चुना गया है। कुमाऊँ के वरिष्ठ सहायक कमिश्नर जॉन हैलिट बैटन ने यहाँ चर्च बनाने के लिए इस स्थान को पहले ही चुन लिया था। बिशप को चर्च के लिए मिस्टर बैटन द्वारा चुनी इस जगह पर लाया गया। बिशप बहुत घने जंगल और झाड़ियों से गुजर कर बड़ी मुश्किल से इस स्थान पर पहुँच सके। उन्हें पहली नजर में यह जगह पसन्द आ गई। उन्होंने इस जगह को तत्काल अपने स्वामित्व में ले लिया। बिशप के आदेश पर कुमाऊँ के तत्कालीन कमिश्नर जी.टी.लुशिंगटन ने चर्च को जमीन दिलाने में सहायता की।
बिशप डेनियल विल्सन यहाँ पहले से बने एक छोटे से मिट्टी के कमरे में ठहरे। उस कमरे में खिड़कियाँ नहीं थी। हवा और रोशनी के लिए दरवाजे के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। इसी दौरान नैनीताल का मौसम बिगड़ गया। बिशप बीमार हो गए। इसके बावजूद उन्हें यह जगह जन्नत सी लगी। इसी वजह से उन्होंने इस चर्च को नाम दिया- सेंट जॉन्स इन द विल्डर्नेस चर्च। यानी जंगल के बीच ईश्वर का घर।
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