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हम सम्वत, 05 सितम्बर 2011
सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा रोकने के लिए बने कानून को आज भले ही 18 साल हो गए हों, लेकिन फिर भी समाज में इस कानून का कोई असर नहीं दिखलाई देता। जहां मानव समाज आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है वहीं आज भी कुछ लोग मैला ढोने के लिए मजबूर हैं अगर वह इस मैला ढोने के काम को छोड़कर एक अच्छा जीवन जीना चाहे तो समाज उसे जीने नहीं देती है। इस कलंक के बारे में बताते जाहित खान।
गौरतलब है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने यह कदम मीडिया में आई उस खबर का संज्ञान लेते हुए उठाया, जिसमें बताया गया था कि कर्नाटक के कुछ हिस्सों में आज भी सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा जारी है। आयोग ने इस पूरे मामले को गंभीरता से लेते हुए कहा कि यदि यह खबर सही है तो यह मैला ढोने का काम कर रहे लोगों के मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन है। यह बात सच भी है। एक तरफ हमारी सरकारें मानवाधिकारों के संरक्षण की बात करती हैं, तो दूजी तरफ हमारा तथाकथित सभ्य समाज हैं, जहां आज भी मैला ढोने जैसा अमानवीय काम हो रहा है। कर्नाटक की ही बात करें, तो सूबे में सरकार ने इस प्रथा पर साल 1970 में पाबंदी लगा दी थी। फिर भी यहां तकरीबन 8 हजार लोग सिर पर मैला ढोने का काम करते हैं। कर्नाटक की बीजेपी सरकार दावा करती है कि सूबे में साल 1997 से इस बुराई के खात्मे और मैला ढोने वालों को वैकल्पिक रोजगार देने के वास्ते कानून है।
लेकिन अब सवाल यह उठता है कि जब सूबे में सफाई कामगारों के लिए वैकल्पिक रोजगार के वास्ते अलग से कानून है, तो वे इस घृणित कार्य करने को क्यों मजबूर हैं? क्यों आज भी वे सिर पर मैला ढोने के काम से अपने और अपने परिवार का जीवन गुजर-बसर कर रहे हैं? बहरहाल, इस सवाल का जबाव ज्यादा मुश्किल नहीं है। पहली बात, तमाम आधुनिकताओं के बाद भी समाज की मानसिकता नहीं बदल पाई है। इस काम में जुड़े लोगों को आज भी अछूत माना जाता है। यहां तक कि कई गांवों में उन्हें समाज के बीच रहने का अधिकार भी नहीं है। यदि सफाई कामगार इस कुप्रथा को छोड़ना भी चाहें, तो उन्हें किसी दूसरे काम पर नहीं रखा जाता। दूसरी बात, सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को खत्म करने के लिए केन्द्र सरकार ने जिस योजना पर सबसे ज्यादा एतबार जताया, उसका पूरे मुल्क में सही तरह से अमल में न आ पाना। मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए सरकार ने स्वरोजगार योजना यानी एसआरएमएस बड़े ही धूमधाम से शुरू की।
इस योजना के तहत मैला ढोने वालों को स्वरोजगार के लिए ऋण देना था। लेकिन सफाई कामगारों के प्रति सरकारों की उदासीनता कहिए या लापरवाही, इस योजना के लिए आवंटित 735.60 करोड़ रुपए में से 500 करोड़ रुपए आज तक खर्च नहीं हुए हैं और जो पैसा खर्च हुआ, उसमें भी धांधली और भ्रष्टाचार की खबरें सामने आई हैं। योजना के तहत सरकार ने 3 लाख 42 हजार 468 मैला ढोने वालों को ऋण दिए जाने का लक्ष्य रखा। लेकिन साल 2010 तक इस योजना में केवल 1 लाख 18 हजार 474 लोगों ने ही आवेदन किए। जिसमें से भी 40 हजार लोगों ने आवेदन भरने के बाद भी ऋण नहीं लिया। वजह! योजना में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और रिश्वत। योजना में भ्रष्टाचार और रिश्वत के चलते ज्यादातर लोग ऋण लेने से कतराते हैं। अपने पैरों पर खड़ा करने वाली, सरकार की इस महत्वाकांक्षी योजना पर मैला ढोने वालों को बिल्कुल भी यकीन नहीं।
योजना में गड़बड़ी और धांधली की तस्दीक एक रिपोर्ट भी करती है, जिसमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में इस योजना के असल क्रियान्वयन की पड़ताल की गई। राष्ट्रीय गरिमा अभियान नाम से हुए इस अध्ययन में जब मध्य प्रदेश में योजना के क्रियान्वयन की जमीनी हकीकत जानी गई तो कई हैरतअंगेज तथ्य सामने निकलकर आए। मसलन-सूबे में जिन लोगों को इस योजना का लाभ दिया गया उनमें से 79 फीसदी ने कभी मैला ढोने का काम किया ही नहीं था। ऋण पाने वालों में से 48 फीसद मर्द हैं। जबकि सच्चाई यह है कि सूबे में 98 फीसद मैला ढोने वाली औरते हैं। यही नहीं, पूरे सूबे में 3 फीसदी ऋण ऐसे लोगों को बांट दिया गया, जिनकी उम्र 18 साल से कम है। यानी, कायदे से तो वे इस योजना के लाभार्थी हो ही नहीं सकते। इस संगठन का अध्ययन यह साबित करता है कि सूबे में बड़े पैमाने पर ऋण बांटने में घोटाला हुआ है और 85 फीसदी मैला ढौने वाली महिलाओं को योजना का कोई फायदा नहीं मिला।
कुल मिलाकर, सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा रोकने के लिए बने कानून को आज भले ही 18 साल हो गए हों, लेकिन फिर भी समाज में इस कानून का कोई असर नहीं दिखलाई देता। मुल्क के कई हिस्सों में आज भी इस कुप्रथा का जारी रहना, यह बतलाता है कि महज कानूनी पाबंदी लगाने से ही यह अमानवीय प्रथा खत्म नहीं होगी, बल्कि इसके लिए समाज में और भी बड़े पैमाने पर बदलाव करने होंगे। खासतौर पर चुनौती समाज की मानसिकता को बदलने की है। क्योंकि, जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक चाहे जितने कानून और योजनाएं आ जाएं, मगर इस पर काबू नहीं पाया जा सकता। हमारी तरह सफाई कामगार भी इंसान हैं और उन्हें भी संविधान ने वही अधिकार दिए हैं, जो हमें। सिर पर मैला ढोना न सिर्फ मानवाधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि समूची इंसानियत पर भी एक धब्बा है। यह बुराई जड़ से खत्म हो, इसके लिए सरकार और समाज दोनों को ही अपनी-अपनी ओर से ईमानदारी भरे प्रयास करने होंगे। तभी जाकर यह कलंक मिटेगा।
जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक चाहे जितने कानून और योजनाएं आ जाएं, मगर इस पर काबू नहीं पाया जा सकता। हमारी तरह सफाई कामगार भी इंसान हैं और उन्हें भी संविधान ने वही अधिकार दिए हैं, जो हमें। सिर पर मैला ढोना न सिर्फ मानवाधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि समूची इंसानियत पर भी एक धब्बा है। यह बुराई जड़ से खत्म हो, इसके लिए सरकार और समाज दोनों को ही अपनी-अपनी ओर से ईमानदारी भरे प्रयास करने होंगे।
हमारा मुल्क जब आजाद हुआ तो पूरे समाज में ऊंच-नीच पर आधारित जातिवादी व्यवस्था लागू थी। ऊंची-नीची जातियों के बीच आपस में घोर असमानता, भेद-भाव और छुआछूत मौजूद थी। जाहिर है, इस भेदभाव और छुआछूत को समाज में जड़ से मिटाना सरकार का पहला काम था। सरकार ने यह काम किया भी। दलितों के प्रति अस्पृश्यता और छुआछूत रोकने के लिए सरकार ने अपनी ओर से कई कानून बनाए। दलितों का जीवन स्तर सुधारे और वे मुख्यधारा में आएं, इसके लिए सरकारों ने उन्हें शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के अलावा अनेकानेक योजनाएं बनाईं। लेकिन बावजूद इसके मुल्क के कई हिस्सों से आए-दिन यह खबरें आती रहती हैं कि सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा आज भी जारी है। इस अमानवीय कुप्रथा को रोकने के लिए कहने को सरकार साल 1993 में ही कानून बना चुकी है। लेकिन फिर भी यह घृणित प्रथा पूरी तरह से बंद नहीं हुई है। सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को लेकर हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कर्नाटक के मुख्य सचिव से जबाव-तलब किया। आयोग ने उनसे चार हफ्ते के भीतर यह बतलाने को कहा है कि सूबे के कितने जिलों में अभी भी यह अमानवीय कुप्रथा मौजूद है और उसके खात्मे के लिए सूबाई सरकार ने क्या कदम उठाए?गौरतलब है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने यह कदम मीडिया में आई उस खबर का संज्ञान लेते हुए उठाया, जिसमें बताया गया था कि कर्नाटक के कुछ हिस्सों में आज भी सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा जारी है। आयोग ने इस पूरे मामले को गंभीरता से लेते हुए कहा कि यदि यह खबर सही है तो यह मैला ढोने का काम कर रहे लोगों के मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन है। यह बात सच भी है। एक तरफ हमारी सरकारें मानवाधिकारों के संरक्षण की बात करती हैं, तो दूजी तरफ हमारा तथाकथित सभ्य समाज हैं, जहां आज भी मैला ढोने जैसा अमानवीय काम हो रहा है। कर्नाटक की ही बात करें, तो सूबे में सरकार ने इस प्रथा पर साल 1970 में पाबंदी लगा दी थी। फिर भी यहां तकरीबन 8 हजार लोग सिर पर मैला ढोने का काम करते हैं। कर्नाटक की बीजेपी सरकार दावा करती है कि सूबे में साल 1997 से इस बुराई के खात्मे और मैला ढोने वालों को वैकल्पिक रोजगार देने के वास्ते कानून है।
लेकिन अब सवाल यह उठता है कि जब सूबे में सफाई कामगारों के लिए वैकल्पिक रोजगार के वास्ते अलग से कानून है, तो वे इस घृणित कार्य करने को क्यों मजबूर हैं? क्यों आज भी वे सिर पर मैला ढोने के काम से अपने और अपने परिवार का जीवन गुजर-बसर कर रहे हैं? बहरहाल, इस सवाल का जबाव ज्यादा मुश्किल नहीं है। पहली बात, तमाम आधुनिकताओं के बाद भी समाज की मानसिकता नहीं बदल पाई है। इस काम में जुड़े लोगों को आज भी अछूत माना जाता है। यहां तक कि कई गांवों में उन्हें समाज के बीच रहने का अधिकार भी नहीं है। यदि सफाई कामगार इस कुप्रथा को छोड़ना भी चाहें, तो उन्हें किसी दूसरे काम पर नहीं रखा जाता। दूसरी बात, सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को खत्म करने के लिए केन्द्र सरकार ने जिस योजना पर सबसे ज्यादा एतबार जताया, उसका पूरे मुल्क में सही तरह से अमल में न आ पाना। मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए सरकार ने स्वरोजगार योजना यानी एसआरएमएस बड़े ही धूमधाम से शुरू की।
इस योजना के तहत मैला ढोने वालों को स्वरोजगार के लिए ऋण देना था। लेकिन सफाई कामगारों के प्रति सरकारों की उदासीनता कहिए या लापरवाही, इस योजना के लिए आवंटित 735.60 करोड़ रुपए में से 500 करोड़ रुपए आज तक खर्च नहीं हुए हैं और जो पैसा खर्च हुआ, उसमें भी धांधली और भ्रष्टाचार की खबरें सामने आई हैं। योजना के तहत सरकार ने 3 लाख 42 हजार 468 मैला ढोने वालों को ऋण दिए जाने का लक्ष्य रखा। लेकिन साल 2010 तक इस योजना में केवल 1 लाख 18 हजार 474 लोगों ने ही आवेदन किए। जिसमें से भी 40 हजार लोगों ने आवेदन भरने के बाद भी ऋण नहीं लिया। वजह! योजना में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और रिश्वत। योजना में भ्रष्टाचार और रिश्वत के चलते ज्यादातर लोग ऋण लेने से कतराते हैं। अपने पैरों पर खड़ा करने वाली, सरकार की इस महत्वाकांक्षी योजना पर मैला ढोने वालों को बिल्कुल भी यकीन नहीं।
योजना में गड़बड़ी और धांधली की तस्दीक एक रिपोर्ट भी करती है, जिसमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में इस योजना के असल क्रियान्वयन की पड़ताल की गई। राष्ट्रीय गरिमा अभियान नाम से हुए इस अध्ययन में जब मध्य प्रदेश में योजना के क्रियान्वयन की जमीनी हकीकत जानी गई तो कई हैरतअंगेज तथ्य सामने निकलकर आए। मसलन-सूबे में जिन लोगों को इस योजना का लाभ दिया गया उनमें से 79 फीसदी ने कभी मैला ढोने का काम किया ही नहीं था। ऋण पाने वालों में से 48 फीसद मर्द हैं। जबकि सच्चाई यह है कि सूबे में 98 फीसद मैला ढोने वाली औरते हैं। यही नहीं, पूरे सूबे में 3 फीसदी ऋण ऐसे लोगों को बांट दिया गया, जिनकी उम्र 18 साल से कम है। यानी, कायदे से तो वे इस योजना के लाभार्थी हो ही नहीं सकते। इस संगठन का अध्ययन यह साबित करता है कि सूबे में बड़े पैमाने पर ऋण बांटने में घोटाला हुआ है और 85 फीसदी मैला ढौने वाली महिलाओं को योजना का कोई फायदा नहीं मिला।
कुल मिलाकर, सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा रोकने के लिए बने कानून को आज भले ही 18 साल हो गए हों, लेकिन फिर भी समाज में इस कानून का कोई असर नहीं दिखलाई देता। मुल्क के कई हिस्सों में आज भी इस कुप्रथा का जारी रहना, यह बतलाता है कि महज कानूनी पाबंदी लगाने से ही यह अमानवीय प्रथा खत्म नहीं होगी, बल्कि इसके लिए समाज में और भी बड़े पैमाने पर बदलाव करने होंगे। खासतौर पर चुनौती समाज की मानसिकता को बदलने की है। क्योंकि, जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक चाहे जितने कानून और योजनाएं आ जाएं, मगर इस पर काबू नहीं पाया जा सकता। हमारी तरह सफाई कामगार भी इंसान हैं और उन्हें भी संविधान ने वही अधिकार दिए हैं, जो हमें। सिर पर मैला ढोना न सिर्फ मानवाधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि समूची इंसानियत पर भी एक धब्बा है। यह बुराई जड़ से खत्म हो, इसके लिए सरकार और समाज दोनों को ही अपनी-अपनी ओर से ईमानदारी भरे प्रयास करने होंगे। तभी जाकर यह कलंक मिटेगा।