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एककोशिकीय शैवाल पादपप्लवक महासागरीय खाद्य शृंखला का आधार बनाते हैं और महासागरीय सतह पर पाये जाने वाले छोटे-छोटे साइनोबैक्टीरिया और कोकोलिओथोफोर्स प्रकाश-संश्लेषण के माध्यम से कार्बन डाइऑक्साइड और जल को उच्च-ऊर्जा यौगिकों में बदलते हैं। इसके साथ ही डायेटम्स और डायनोफ्लेजिलेट्स जैसे बड़े पादपप्लवक भी प्रकाश संश्लेषण करते हैं और अपने आस-पास के मिलने वाले पोषक तत्वों का प्रयोग करते हैं। ये पादपप्लवक छोटे समुद्री जीवों या प्राणिप्लवकों द्वारा खाये जाते हैं और इनको सागर की बड़ी मछलियाँ और अन्य समुद्री प्राणी खाते हैं। भूमण्डलीय तापन, जलवायु परिवर्तन और सभी तरह के प्रदूषणों से विश्व का हर व्यक्ति भलीभाँति परिचित हो चुका है। ये तीनों ही शब्द अपनी परिभाषाओं में आम जनता तक पहुँच चुके हैं। विश्वस्तर पर होने वाले पर्यावरण सम्मेलनों में इन विषयों पर क्या विचार-विमर्श हो रहे हैं और क्या निर्णय लिये गए हैं, इन सभी के प्रति जागरुकता में बेहद वृद्धि हुई है। भारतीयों में भी वैश्विक पर्यावरण के प्रति जागरुकता के स्पष्ट दर्शन होने लगे हैं।
विशेष रूप से युवावर्ग इसके प्रति सचेत हुआ है, यह एक सुखद पहलू कहा जा सकता है। भारत में चल रहे स्वच्छ भारत अभियान की भी इसमें कहीं-न-कहीं प्रेरक भूमिका बन रही है। जर्मनी के एक समुद्री अनुसन्धान संस्थान हेल्महोल्ट्ज सेंटर फॉर पोलर एंड मेरीन रिसर्च द्वारा किये गए एक शोध से स्पष्ट हुआ है कि हमारे भारत के मुम्बई, केरल और अंडमान एवं निकोबार के समुद्री तट विश्व के सबसे प्रदूषित समुद्री तटों में से एक बन गए हैं।
इस तरह के शोधों से भी भारतवासी काफी सचेत होने लगे हैं। यूँ भी भारतीय वैदिक संस्कृति में प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण स्वस्थ और स्थायी सम्बन्धों की व्याख्या मिलती है। हाल ही में 10 अप्रैल 2017 को केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम में अपनी तरह की बिल्कुल विरली समुद्र सभा समुद्र के अन्दर आयोजित की गई। समुद्री प्रदूषण और भूमण्डलीय तापन के प्रभावों को लेकर जागरुकता लाने के उद्देश्य से वाटर स्पोर्ट्स कम्पनी ब्लू ओसियन सफारी द्वारा अरब सागर में 6 मीटर अन्दर आयोजित इस अद्भुत मीटिंग में केरल की पाँच कॉरपोरेट कम्पनियों के सीईओ और टॉप एक्जक्यूटिव ने हिस्सा लिया था।
यह अनोखी सागर सभा पूरे बीस मिनट तक चली थी। इस सभा के निष्कर्ष स्वरूप एक बात स्पष्ट रूप से कही गई कि स्वच्छ भारत मिशन के साथ-साथ हमें समुद्री प्रदूषण को भी खत्म करने का संकल्प लेना चाहिए। इसी तरह 27 मार्च 2017 को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) द्वारा पर्यावरण सम्बन्धी विभिन्न मुद्दों पर विचारों के आदान-प्रदान हेतु नई दिल्ली में आयोजित ‘विश्व पर्यावरण सम्मेलन’ में भी उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के युक्तिसंगत और उत्तरदायित्वपूर्ण प्रबन्धन पर विशेष जोर दिया गया।
भारत के साथ-साथ विश्वस्तर पर नजर दौड़ाएँ तो जागरुकता की कमी वहाँ भी नहीं दिखती है, क्योंकि पूरी दुनिया यह बात अच्छी तरह से समझने लगी है कि प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन हमारे वर्तमान पर बुरी तरह असर डाल रहे हैं। यदि अभी भी नहीं सम्भले, तो इनके गम्भीर दुष्परिणाम निश्चित रूप से हमारी भावी पीढ़ियों को भुगतने पड़ेंगे। इस तरह सभी ने बढ़ते प्रदूषणों, भूमण्डलीय तापन और जलवायु परिवर्तन को प्रमुख वैश्विक चुनौतियों के रूप में स्वीकार कर लिया है।
दोनों ध्रुवों आर्कटिक और अंटार्कटिक सहित हिमालय जैसे विश्व के अन्य अनेक हिमनदों के निरन्तर पिघलाव और बढ़ते समुद्र संस्तरों और इनके कारण निरन्तर बढ़ रहीं प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्तियों ने विश्व वैज्ञानिकों को भी गम्भीर चिन्ता में डाल रखा है। यही कारण है कि एक ओर जहाँ विश्व राष्ट्रों की सरकारें राजनीतिक स्तर पर अन्तरराष्ट्रीय पेरिस समझौते के अन्तर्गत संकल्पबद्ध होकर विश्व तापमान को दो डिग्री सेंटिग्रेड से कम रखने के लिये अपने-अपने कार्बन उत्सर्जनों में भारी कमी लाने के प्रयासों में जुटी हैं, तो वहीं वैज्ञानिक भी लगातार इन विषयों के कारणों और समाधानों को खोजने में लगे हुए हैं।
इसी सन्दर्भ में पिछले कुछ वर्षों से वैज्ञानिकों का ध्यान अरब सागर में होने वाली एक आवर्ती घटना की ओर अधिक लगा हुआ है, जिसमें यह माना जाता है कि उष्णकटिबन्धीय जल की एक अतिभीतरी सतह में ऑक्सीजन की काफी कमी और फॉस्फेट की प्रचुरता के कारण बड़े पैमाने पर मछलियाँ मर जाती हैं।
सन 2003 में पहली बार एक महासागरीय वैज्ञानिक और रिमोट सेंसिंग विशेषज्ञ जोकोम गोज ने अरब सागर में मिलने वाले ग्रीष्मकालीन शैवालपुंजों के उपग्रहीय चित्रों पर किये जा रहे अपने शोधों के दौरान अरब सागर में एक अजीब शैवालपुंज के पाये जाने की पुष्टि की थी। इसके पहले इस पुंज में पाये गए नोक्टिलुका स्चिंटिलन्स नामक शैवाल को अरब सागर में कभी नहीं देखा गया था। तब से लेकर आज तक यह शैवालपुंज अरबसागर में वैज्ञानिकों की खोज का रोचक विषय बनता जा रहा है।
आमतौर पर एककोशिकीय शैवाल पादपप्लवक महासागरीय खाद्य शृंखला का आधार बनाते हैं और महासागरीय सतह पर पाये जाने वाले छोटे-छोटे साइनोबैक्टीरिया और कोकोलिओथोफोर्स प्रकाश-संश्लेषण के माध्यम से कार्बन डाइऑक्साइड और जल को उच्च-ऊर्जा यौगिकों में बदलते हैं। इसके साथ ही डायेटम्स और डायनोफ्लेजिलेट्स जैसे बड़े पादपप्लवक भी प्रकाश संश्लेषण करते हैं और अपने आस-पास के मिलने वाले पोषक तत्वों का प्रयोग करते हैं। ये पादपप्लवक छोटे समुद्री जीवों या प्राणिप्लवकों द्वारा खाये जाते हैं और इनको सागर की बड़ी मछलियाँ और अन्य समुद्री प्राणी खाते हैं। इस तरह यह सागरीय समुद्री खाद्य शृंखला सदियों से चली आ रही है।
वैसे तो गर्मियों में समुद्रों में साधारण शैवाल गायब हो जाते हैं, लेकिन विशाल शैवालपुंजों की वृद्धि को रोक पाना मुमकिन नहीं हो पा रहा है। क्योंकि आजकल मत्स्यपालन और विषाक्त पदार्थों व प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन ने शैवालपुंजों की वृद्धि में बहुत अधिक सहायता की है। विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) के सहयोग से अमीरात वाइल्डलाइफ सोसायटी द्वारा प्रकाशित एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि समुद्री शैवाल पुंजों की बढ़ोत्तरी के लिये जलवायु परिवर्तन जिम्मेदार हो सकता है और अप्रत्यक्ष रूप से यह समुद्री जीव सम्पदा को प्रभावित भी कर सकता है।
शैवालपुंजों की कुछ प्रजातियाँ चिन्ता का विषय बनती जा रही हैं क्योंकि उनमें न्यूरोटॉक्सिन पैदा होते हैं। इन शैवालपुंजों में वृद्धि के दौरान उच्च कोशिका सान्द्रता पर पहुँचने पर, इन विषाक्त पदार्थों के समुद्री जीवन पर गम्भीर जैविक प्रभाव पड़ सकते हैं। ऐसे समुद्री शैवालपुंजों को हानिकारक शैवालपुंज या एचएबी कहते हैं।
यही कारण है कि जब से अरबसागर के शैवालपुंज में मिलने वाले शैवाल नोक्टिलुका की खोज हुई है, यह माना जा रहा है कि अब इसकी यहाँ की खाद्य शृंखला में महत्त्वपूर्ण परन्तु नकारात्मक भूमिका बनती जा रही है। नोक्टिलुका एक प्रकार का सूक्ष्मजीव है, या छोटे पौधे जैसा जीव होता है। इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये रात में चमकते हैं।
वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों से यह सिद्ध किया है कि पृथ्वी पर पाई जाने वाली कुल ऑक्सीजन की मात्रा के आधे उत्पादन के लिये पूरी दुनिया के पादपप्लवक जिम्मेदार होते हैं। ये पादपप्लवक वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करते हैं और इनके मरने पर ये समुद्र की गहराई में समा जाते हैं। सालाना, ये पादपप्लवक दुनिया के समस्त जंगलों की तुलना में 20 प्रतिशत अधिक कार्बन अवशोषित करते हैं।
इस कारण यह कहा जाता है कि पादपप्लवकों की वृद्धि में होने वाला एक छोटा सा परिवर्तन भी वैश्विक कार्बन चक्र को व्यापक स्तर पर प्रभावित कर सकता है। अतः ऐसा समझा जा रहा है कि पिछले कुछ वर्षों में बढ़ रहे भूमण्डलीय तापन और वैश्विक जलवायु परिवर्तन के लिये उत्तरदायी वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाइऑक्साइड इन समुद्री पादपप्लवकों की वृद्धि में लाभदायक साबित हो रही है। लेकिन समुद्रों में निरन्तर इनकी वृद्धि और फैलाव से समुद्री जीवन के लिये खतरा भी उतना ही बढ़ता जा रहा है।
इसी तरह के खतरे की आशंका अरब सागर में प्रतिवर्ष बढ़ते जा रहे शैवाल नोक्टिलुका के पुंज को लेकर भी जताई जाने लगी है। लोगों द्वारा इनको 'समुद्री भूत' और 'नीले आँसू (ब्लू टियर्स)' जैसे शब्दों की संज्ञाएँ दी जाने लगी हैं। नोक्टिलुका शैवाल पुंज की वृद्धि पूरे अरबसागर के पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर रही है। समुद्र वैज्ञानिकों का कहना है कि पहले ये शैवाल धीरे-धीरे बढ़ते थे और इनकी वृद्धि में दशकों लग जाते थे, लेकिन अब देखते-ही-देखते यह काफी बढ़ते जा रहे हैं।
उपग्रह प्रौद्योगिकी ने वैज्ञानिकों को हाल ही के दशकों में इन शैवाल पुंजों और समुद्री प्रदूषण के मध्य सम्बन्धों को समझने के लिये काफी हद तक सक्षम बना दिया है, लेकिन फिर भी अभी कितने प्रश्न अनुत्तरित बने हुए हैं। लेकिन यह सुनिश्चित हो गया है कि हमारी पृथ्वी बदल रही है और यह बदलाव फिलहाल जिस दिशा में हो रहा है उसे बिल्कुल भी सकारात्मक नहीं कहा जा सकता है।
अरब सागर में पश्चिम में ओमान के किनारे से लेकर पूर्व में भारत और पाकिस्तान तक फैलता जा रहा विशाल नोक्टिलुका शैवाल पुंज भी समुद्री प्रदूषण का कारण बनता जा रहा है। ये शैवाल पुंज न केवल दुर्गन्ध फैला रहे हैं बल्कि भयानक भी लगते हैं, जिससे स्थानीय समुद्र तटों पर पर्यटकों की संख्या कम होने लगी है। इनसे निकलने वाली अमोनिया आसपास के समुद्रीजीवों के लिये घातक हो सकती है।
अरबसागर के किनारे बसे लगभग 120 मिलियन लोगों के लिये भी यह परोक्ष रूप से हानिकारक साबित हो सकता है। नासा के उपग्रह चित्र दिखाते हैं कि अरब सागर में मैक्सिको के आकार के शैवाल पुंज साल में दो बार बनते हैं। कोलम्बिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के अनुसार समुद्रों में हाइपोक्सिया या ऑक्सीजन की कमी वाले क्षेत्रों में डाइनोफ्लेजिलेटों का मिलना आम बात हो गई है।
2009 से 2012 के बीच तीन वर्षों तक अरबसागर में शैवालपुंज की वृद्धि पर लगातार किये गए शोधों से स्पष्ट होता है कि उत्तरी अरब सागर में मानवजनित गतिविधियों ने नाइट्रोजन और फॉस्फोरस बहुल प्रदूषकों द्वारा ऑक्सीजन का स्तर कम कर दिया है, जिससे वहाँ एक विशाल मृत क्षेत्र बन गया है। ये मानवजनित विषाक्त परिस्थितियाँ जहाँ बहुत से समुद्री जीवों के लिये खतरनाक हो सकती हैं, वहीं नोक्टिलुका शैवाल पुंज के लिये बेहद उपयुक्त साबित हो रही हैं। यही कारण है कि तीस साल पहले अरबसागर में समुद्री खाद्य शृंखला का प्रतिनिधित्व करने वाले डाएटम्स का स्थान अब इन नोक्टिलुका शैवाल पुंजों ने ले लिया है।
भूमण्डलीय तापन से गरम हो रहे समुद्री गर्म जल में विषाक्त शैवाल खूब फलफूल रहे हैं। फिर ये शैवाल भी प्रकाश संश्लेषण हेतु सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करते हैं, इससे भी समुद्रजल गर्म हो जाता है। इस तरह कहीं-न-कहीं मानव जनित समुद्री प्रदूषण का सम्बन्ध शैवालपुंजों के कारण होते जा रहे प्राकृतिक समुद्री प्रदूषण से संयुग्मित होता जा रहा है। लेकिन हर हाल में प्रदूषित तो समुद्र ही हो रहा है।