समुद्रीय वर्षावन या प्रवाल भित्तियाँ

Submitted by Shivendra on Mon, 04/13/2020 - 14:10

प्रवाल भित्तियाँ या मूंगे की चट्टानें (कोरल रीफ) समुद्र के भीतर स्थित प्रवाल जीवों द्वारा छोड़े गए कैल्शियम कार्बोनेट से बनी होती हैं।प्रवाल कठोर संरचना वाले चूना प्रधान जीव (सिलेन्ट्रेटा पोलिप्स) होते हैं। इन प्रवालों की कठोर सतह के अंदर सहजीवी संबंध से रंगीन शैवाल जूजैंथिली पाए जाते हैं। प्रवाल भित्तियों को विश्व के सागरीय जैव विविधता का उष्णस्थल  माना जाता है तथा इन्हें समुद्रीय वर्षावन भी कहा जाता है।

प्रायः बैरियर रीफ (प्रवाल-रोधिकाएँ) उष्णकटिबंधीय या उपोष्णकटिबंधीय समुद्रों में मिलती हैं, जहाँ तापमान 20-30 डिग्री सेल्सियस रहता है। ये शैल-भित्तियाँ समुद्र तट से थोड़ी दूर हटकर पाई जाती हैं, जिससे इनके बीच छिछले लैगून बन जाते हैं। प्रवाल कम गहराई पर पाए जाते हैं, क्योंकि अधिक गहराई पर सूर्य के प्रकाश व ऑक्सीजन की कमी होती है। प्रवालों के विकास के लिये स्वच्छ एवं अवसादरहित जल आवश्यक है, क्योंकि अवसादों के कारण प्रवालों का मुख बंद हो जाता है और वे मर जाते हैं। प्रवाल भितियों का निर्माण कोरल पॉलिप्स नामक जीवों के कैल्शियम कार्बोनेट से निर्मित अस्थि-पंजरों के अलावा, कार्बोनेट तलछट से भी होता है जो इन जीवों के ऊपर हजारों वर्षों से जमा हो रही है।

विश्व के सर्वाधिक प्रवाल हिंद-प्रशांत क्षेत्र में पाए जाते हैं। ये भूमध्य रेखा के 30 डिग्री तक के क्षेत्र में पाए जाते हैं। विश्व में पाए जाने वाले कुल प्रवाल का लगभग 30 % हिस्सा दक्षिण-पूर्वी एशिया क्षेत्र में पाया जाता है। यहाँ प्रवाल दक्षिणी फिलिपींस से पूर्वी इंडोनेशिया और पश्चिमी न्यू गिनी तक पाए जाते हैं। प्रशांत महासागर में स्थित माइक्रोनेशिया, वानुआतु, पापुआ न्यू गिनी में भी प्रवाल पाए जाते हैं। ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर स्थित ग्रेट बैरियर रीफ दुनिया की सबसे बड़ी और प्रमुख अवरोधक प्रवाल भित्ति है। भारतीय समुद्री क्षेत्र में मन्नार की खाड़ी, लक्षद्वीप और अंडमान निकोबार आदि द्वीप भी प्रवालों से निर्मित हैं। ये प्रवाल लाल सागर और फारस की खाड़ी में भी पाए जाते हैं। ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर स्थित ग्रेट बैरियर रीफ दुनिया की सबसे बड़ी और प्रमुख अवरोधक प्रवाल भित्ति है। यह ऑस्ट्रेलिया के क्वीन्सलैंड के उत्तर-पूर्वी तट में मरीन पार्क के समानांतर 1200 मील तक फैली हुई है। इसकी चौड़ाई 10 मील से 90 मील तक है। महाद्वीपीय तट से इसकी दूरी 10 से 150 मील दूर तक है।
 
समुद्री पर्यावरण में कोरल रीफ की हिस्सेदारी एक फीसदी से भी कम है। इसके बावजूद लगभग 25 फीसदी समुद्री जीवन इन्हीं कोरल रीफ पर निर्भर करता है। इन कोरल रीफ में मछलियों की तकरीबन 1,500 प्रजातियाँ, 411 तरह के सख्त मूंगे, 134 तरह की प्रजाति की शार्क एवं रेज (खास तरह की मछली) पाई जाती है। यहाँ समुद्री कछुए की सात ऐसी प्रजातियाँ और 30 तरह के समुद्री स्तनधारी जीव भी पाए जाते हैं, जो विलुप्त होने की कगार पर हैं। इसके साथ-साथ यहाँ तकरीबन 630 प्रजाति की शूलचर्मी जैसे स्टारफिश एवं समुद्री अर्चिन भी पाई जाती हैं। प्रवाल भित्तियाँ मूल रूप से तीन प्रकार की होती हैं, तटीय या झालरदार, अवरोधक तथा एटॉल। तटीय प्रवाल भित्तियाँ प्रवालों की ऐसी सरंचनाएँ होती हैं, जो समुद्र तल पर मुख्य भूमि के निकट के किनारों पर पाई जाती हैं। 

चट्टानों के टुकड़ों, मृत प्रवालों और मिट्टी से निर्मित होती हैं।  जीवित प्रवाल बाहरी किनारों एवं ढलानों पर पाए जाते हैं।  उन स्थलों पर पाई जाती हैं, जहाँ तापमान 20 डिग्री सेल्सियस से अधिक, लवणता 35 प्रतिशत और पंकिलता न्यून होती हैं। भारत में ये मन्नार की खाड़ी तथा अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में पाई जाती हैं। अवरोधक प्रवाल भित्तियाँ किनारे से दूर पाई जाती हैं।  इनके तथा किनारे के बीच सैकड़ों किलोमीटर चैड़ा लैगून होता है।  बाहरी वृद्धि केंद्रों पर सबसे अधिक प्रवाल भित्तियाँ पायी जाती हैं। संसार की सबसे बड़ी अवरोधक प्रवाल भित्ति ऑस्ट्रेलियाई ‘ग्रेट बैरियर रीफ’ इसी प्रकार की प्रवाल भित्तियाँ हैं। एटॉल, किसी लैगून के चारों ओर प्रवाल भित्तियों की एक पट्टी से निर्मित होता है। ये भित्तियाँ उथले लैगूनों के किनारों पर अवस्थित होती हैं।

जैसा हम सभी जानते हैं कि प्रवाल भित्तियाँ विश्व का दूसरा सबसे समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र होती है। यह न केवल अनेक प्रकार के जीवों एवं वनस्पतियों का आश्रय स्थल होती है, बल्कि इनका इस्तेमाल औषधियों में भी होता है। बहुत-सी दर्दरोधी दवाओं के साथ-साथ, इनका इस्तेमाल मधुमेह, बवासीर और मूत्र रोगों के उपचार में भी किया जाता है। कई अन्य उपयोगी पदार्थों, जैसे- छन्नक, फर्शी, पेंसिल, टाइल, श्रृंगार आदि में भी इनका प्रयोग किया जाता है। 1348,000 वर्ग किलोमीटर में फैले ऑस्ट्रेलियाई ‘ग्रेट बैरियर रीफ’ पर तकरीबन 64 हजार नौकरियाँ निर्भर करती हैं। दुनिया भर से ग्रेट बैरियर रीफ को देखने आने वाले पर्यटकों की वजह से ऑस्ट्रेलिया को हर साल 6.4 अरब डॉलर (करीब 42 हजार करोड़ रुपए) की आय होती है।
प्रवाल द्वीप जैव विविधता के दृष्टिकोण से काफी महत्त्वपूर्ण होते हैं। लेकिन वर्तमान में इन्हें जलवायु परिवर्तन, उष्णकटिबंधीय चक्रवात, स्टार फिश सहित अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। जैसा कि हम जानते हैं कि महासागरों में कार्बन डाइऑक्साइड के विलयन की बढ़ती मात्रा महासागरों की अम्लीयता में वृद्धि कर देती है जिससे प्रवालों की मृत्यु हो जाती है। प्रवाल खनन, अपरदन आदि को रोकने हेतु बनाई गई रोधिका, स्पीडबोट के द्वारा होने वाले गाद निक्षेपण से भी प्रवालों को नुकसान पहुँचता है।

अधिकाँश एटॉल बाह्य जाति प्रवेश, परमाणु बम परीक्षण आदि मानवीय गतिविधियों से विरूपित हो गए हैं। औद्योगिक संकुलों से निष्कासित होने वाला जल इनके लिये संकट का कारक बन गया है। इसके अतिरिक्त तेल रिसाव, मत्स्य, पर्यटन आदि से भी प्रवाल द्वीपों को नुकसान पहुँचता है।
जब तापमान, प्रकाश या पोषण में किसी भी परिवर्तन के कारण प्रवालों पर तनाव बढ़ता है तो वे अपने ऊतकों में निवास करने वाले सहजीवी शैवाल जूजैंथिली को निष्कासित कर देते हैं, जिस कारण प्रवाल सफेद रंग में परिवर्तित हो जाते हैं। इस घटना को कोरल ब्लीचिंग या प्रवाल विरंजन कहते हैं। बार-बार होने वाले विरंजन, जलवायु परिवर्तन की वजह से आने वाले चक्रवातों और अब महासागर अम्लीकरण, जो प्रवाल-निर्माण को धीमा करने के अलावा तलछट विघटन का कारण बनता है, के कारण लक्षद्वीप में प्रवालों को एक साथ तीन-तीन बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है।
काँटों के ताज वाली स्टारफिश (क्राउन ऑफ थॉर्नस या कोट्स) कोरल पॉलिप पर पलती है और उन्हें खाते हुए प्रवाल भित्ति को नष्ट करती है। मूंगा कवर के खत्म होने का एक अहम् कारण स्टारफिश होती है। पिछले 40 वर्षो में इसने प्रवाल भित्ति को बहुत अधिक नुकसान पहुँचाया है। कोरल को उष्णकटिबंधीय चक्रवातों, तेज हवाओं, शक्तिशाली समुद्री लहरों और समुद्र में छितराए मलबे से नुकसान पहुँचता है। पिछले सात वर्षो में ग्रेट बैरियर रीफ को छह बड़े चक्रवातों ने नुकसान पहुँचाया है।

हिंद महासागर, प्रशांत महासागर और कैरिबियाई महासागर में कोरल ब्लीचिंग की घटनाएँ सामान्य रूप से घटित होती रही हैं, परंतु वर्तमान समय में ग्लोबल वार्मिंग के कारण लगातार समुद्र के बढ़ते तापमान व अल-नीनो के कारण प्रवाल या मूंगे का बढ़े पैमाने पर क्षय हो रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्री-जल का ताप बढ़ने से प्रवाल भित्ति का विनाश होने लगता है। वर्तमान में लगभग एक-तिहाई प्रवाल भित्तियों का अस्तित्व ताप वृद्धि के कारण संकट में पड़ गया है। तापमान में बदलाव से प्रवाल आसानी से प्रभावित हो जाते हैं। तापमान के दबाव, यहाँ तक कि 1-2 डिग्री सेल्सियस बढ़ोतरी से ही प्रवाल और शैवाल के बीच संतुलन गड़बड़ा जाता है और शैवाल अलग होकर बिखरने लगते हैं। इस बिखराव से मूंगे का रंग और चमक फीकी पड़ जाती है और वे निर्जीव से दिखने लगते हैं। ब्लीचिंग से प्रवाल कमजोर पड़ जाते हैं और इनमें इनके अस्तित्व को बचाए रखने के लिये ऊर्जा भी नहीं बचती। इस कारण लगातार ब्लीचिंग से इनमें खुद ही सुधार होने की संभावनाएँ कम बचती हैं। इसके अतिरिक्त अति-मत्स्यन  (over fishing) जैसे स्थानीय कारक भी प्रवालों को प्रभावित करते हैं।

महासागरीय अम्लीकरण को समुद्री जल की pH में होने वाली निरंतर कमी के रूप में परिभाषित किया जाता है। महासागरों में प्रवेश करने के बाद कार्बन डाइऑक्साइड जल के साथ संयुक्त होकर कार्बोनिक अम्ल का निर्माण करती है, जिससे महासागर की अम्लता बढ़ जाती है और समुद्र के पानी की pH कम हो जाती है। महासागरीय अम्लीकरण प्रवाल जीवों को उनके कठोर कंकाल को निर्मित करने से रोकता है। ऐसा महासागरों द्वारा मानव-जनित कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की अधिक मात्रा को अवशोषित करने से होता है।

ऑस्ट्रेलिया में दक्षिणी क्रॉस विश्वविद्यालय सहित कई संस्थानों के वैज्ञानिकों ने प्रशांत और अटलांटिक महासागरों के पाँच प्रवालों में 57 स्थानों पर तलछट विघटन के उपेक्षित पहलू का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि अम्लीकरण और तलछट विघटन के बीच संबंध प्रवाल गठन और अम्लीकरण की तुलना में अधिक मजबूत है। उनके अनुमानों के मुताबिक 2050 तक प्रवाल तलछट घुलने शुरू हो जाएंगे और 2080 तक इनके निर्माण की तुलना में इनके घुलने की दर अधिक होगी। यह अध्ययन दर्शाता है कि महासागरीय अम्लीकरण की वजह से कोरल रीफ सिस्टम बढ़ने की बजाय कम हो रहा है। भारत में भी कई जगहों पर प्रवाल भित्तियाँ पाई जाती हैं। भारत में प्रवाल भितियाँ 3,062 वर्ग किमी. क्षेत्रफल में विस्तृत हैं। कई प्रवाल प्रजातियों को बाघों के समान ही वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची-I में शामिल कर संरक्षण प्रदान किया गया है। एक तरफ जहाँ प्रवाल भितियाँ मछलियों की प्रजातियों की विविधता को बनाए रखने में सहायता करती हैं, वहीं उन पर स्थानीय समुदाय अपनी आजीविका के लिये निर्भर रहते हैं।

अंडमान निकोबार, कच्छ की खाड़ी, मन्नार की खाड़ी, नेत्राणी और मालवा में प्रवाल भित्तियाँ पायी जाती हैं। लक्षद्वीप में ये चक्रवातों के लिये अवरोधक का कार्य कर तटीय कटाव की रोकथाम में भी सहायता करते हैं। लक्षद्वीप समूह के प्रवाल तंत्रों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि महासागरीय अम्लीकरण काफी चिंता का विषय है, क्योंकि हिंद महासागर में बहुत से प्रवाल पहले से ही नष्ट होने की अवस्था में हैं।  वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) की गणना के अनुसार, विश्व की समस्त प्रवाल भित्तियां करीब 800 अरब अमेरिकी डॉलर की पूंजी हैं और धरती पर लगभग 85 करोड़ लोग खाद्य सुरक्षा व आजीविका के लिए प्रवाल-आधारित इकोसिस्टम पर निर्भर हैं। लगभग 100 देश प्रवाल भित्ति में मौजूद जैव विविधिता के कारण मछली पालन, पर्यटन और तटीय सुरक्षा का लाभ पा रहे हैं। इन 100 देशों में से एक चौथाई के सकल घरेलू उत्पाद का 15 % पर्यटन पर निर्भर है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, प्रवाल भित्ति से दुनिया भर में तीन करोड़ अमेरिकी डॉलर का वार्षिक लाभ कमाया जाता है। इन्हें ब्लीचिंग और दूसरे कारणों से हो रहे नुकसान के चलते मछली उद्योग और पर्यटन को प्रतिवर्ष क्रमशर: 57 लाख और 96 लाख अमेरिकी डॉलर का घाटा उठाना पड़ रहा है। प्रवाल के वैश्विक स्तर पर क्षरण से सर्वाधिक आर्थिक नुकसान दक्षिण-पूर्वी एशिया, ऑस्ट्रेलिया और ओसियाना के द्वीपों को पहुंचने की आशंका है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रवाल भित्तियों के तीन करोड़ अमेरिकी डॉलर के योगदान का 60 प्रतिशत हिंद-प्रशांत कटिबंधीय क्षेत्र से होता है।

क्षय होने के बाद प्रवाल भित्ति का पुनर्जीवित होना संभव है, लेकिन लंबे समय तक इसके बचे रहने की गारंटी नहीं है। लगातार ब्लीचिंग की चपेट में आने की आशंका के साथ-साथ पुनर्जीवित होने और भित्ति निर्माण की क्षमता भी घट जाती है। इसके अलावा, क्षय हो चुके प्रवाल के रोगों से ग्रसित होने और अन्य जीवों द्वारा खाए जाने की संभावना बढ़ जाती है। प्रवाल का खतरा जितना दिखता है उससे भी कहीं अधिक हो सकता है।  प्रवाल द्वीप के विनाश को रोकने हेतु उपायों  में तापमान वृद्धि को पूर्व औद्योगिक काल से 2°C तक सीमित करना, प्रवाल द्वीपों के पारिस्थितिकी तंत्र की वहन क्षमता के अनुकूल ही पर्यटन व मत्स्यन को बढ़ावा देना, प्रवालों पर आजीविका के वैकल्पिक साधनों को विकसित किया जाना सम्मिलित हैं। प्रवाल द्वीपों के विभिन्न हितधारकों और NGO आदि के संयुक्त प्रबंधन जैसे दृष्टिकोण के माध्यम से प्रवाल द्वीप की रक्षा की जा सकती है। रासायनिक रूप से उन्नत उर्वरकों, कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों के उपयोग को न्यून करना चाहिये। खतरनाक औद्योगिक अपशिष्टों को जल स्रोतों में प्रवाहित करने से पहले उन्हें उपचारित करना चाहिये। जहाँ तक संभव हो, जल प्रदूषण से बचना चाहिये। रसायनों एवं तेलों को जल में नहीं बहाना चाहिये। अति मत्स्यन पर रोक लगानी चाहिये, क्योंकि इससे प्राणी प्लवक में कमी आती है और परिणामतः कोरल भुखमरी का शिकार होते हैं।


लेखक

डाॅ. दीपक कोहली, उपसचिव

वन एवं वन्य जीव विभाग, उत्तर प्रदेश