सन 1858 की गर्मी और खदबदाते मल की दुर्गन्ध ने सारी हदें पार कर दी थीं। लंदन के लोगों के शरीर से निकला मल-मूत्र अब नदी के पानी तक सीमित नहीं था। उसकी हाजिरी बदबू के रूप में राजमहल और संसद तक लग रही थी। राज करने वाले इस मामले पर पर्दा नहीं डाल पा रहे थे। चूने में भीगा पर्दा तक काम नहीं कर रहा था। इस बदहवासी की वजह से संसद के सामने सीवर बनाने का विधेयक एकदम से लाया गया। 18 दिन के भीतर ही यह पारित भी हो गया और कानून बन गया।
दिल्ली का दुर्भाग्य है कि राष्ट्रपति भवन और संसद भवन यमुना नदी से दूर हैं। अगर ये लंदन में राजभवन और संसद भवन की तरह ही अपनी नदी के किनारे बने होते तो नदी में बहते मैले की दुर्गन्ध सरकार की नाक तक पहुँचती। शायद दिल्ली में भी वह हो पाता जो सन 1858 में लंदन में हुआ था।
उस साल इंग्लैंड में बहुत तेज गर्मी पड़ी थी। सूखे की वजह से टेम्स नदी में पानी कम था, मल-मूत्र बहुत ज्यादा था। सन 1596 में ईजाद हुआ फ्लश कमोड लंदन में अब चल पड़ा था। पानी से मैला बहाने की आदत लोगों में आ चुकी थी। शहर में रहने वालों का मल-मूत्र टेम्स नदी में ही बहाया जाता था। इसी नदी से पीने का पानी भी लिया जाता था। लंदन की टेम्स उन दिनों दुनिया की सबसे प्रदूषित नदी थी। मैल से अटी एक भूरी नाली जिसमें कोई मछली नहीं दिखती थी।
सन 1858 के सूखे और गर्मी में नदी में सड़ता शहर का मल-मूत्र खदबदाने लगा था। इससे जो बदबू उठी उसे आज भी ‘द ग्रेट स्टिंक’ के नाम से याद किया जाता है। लंदन में साँस लेना दूभर हो गया था। लोगों का घर से निकलना बन्द हो गया था। नदी के किनारे बने संसद भवन के भीतर हो रही कार्यवाही कई बार असहनीय बदबू की वजह से रोकनी पड़ी। खिड़कियों पर चूने में भिगोए पर्दे टाँगे गए दुर्गन्ध दूर करने के लिये। एक सांसद ने तो यह प्रस्ताव तक रखा कि संसद को नदी के पास से हटा कर कहीं और ले जाया जाये।
इस दौरान एक बार रानी विक्टोरिया और उनके पति एलबर्ट नदी के किनारे टहलने निकले, किन्तु सड़ते मैले की बदबू से भागकर एकदम वापस अपने महल के अन्दर पहुँच गए। एक बार रानी साहिबा को नदी में तैरते ढेर से कागज के टुकड़े दिखे। उन्होंने इसका कारण पूछा, तो उन्हें बताया गया कि ये वे पर्चे हैं जो लोगों को नदी में नहाने से मना करने के लिये छापे गए हैं। लेकिन सच कुछ और ही था। गुदा पोंछ कर फेंके हुए कागज के टुकड़े नदी में तैरते हुए दिख रहे थे। जवाब देने वालों को रानी को यह सच बताने में शर्म आ रही थी कि टेम्स नदी लंदन शहर का शौचालय बन चुकी है। उस समय लंदन विश्व का सबसे बड़ा, ताकतवर और आधुनिक शहर था। दुनिया भर में फैले एक ऐसे साम्राज्य की राजधानी जिस पर सूरज कभी अस्त नहीं होता था। इस ताकतवर साम्राज्य, उसकी संसद और उसकी रानी की नाक में ऐसा दम कैसे हुआ? इंग्लैंड और यूरोप के इतिहास में झाँकने से कुछ जवाब मिलते हैं।
मध्यकाल से ही यूरोप के शहरों में मल-मूत्र खुले में, हर कहीं पड़ा रहता था। उसके सड़ने की गन्ध शहरों के चरित्र में बसी हुई थी। बदबू से बचने के लिये कुलीन लोग अपने पास सुगन्धित चीजें जैसे सन्तरा और लौंग रखते थे। लोग घर के एक कोने में एक मर्तबान में मल त्यागते और उसे खाली कर देते थे सड़क पर, या घर के ही नीचे बने गड्ढे में जिसे ‘सेसपिट’ कहा जाता था। लंदन के आसपास के किसान पैसा दे कर इन गड्ढों को खाली करते थे और मल-मूत्र को अपने खेत में खाद की तरह इस्तेमाल करते थे। किसानों से हुई इस कमाई को मकान मालिक सेसपिट की देख-रेख में लगा देते थे।
आगे चलकर इस व्यवस्था पर बहुत जोर पड़ने लगा क्यों पानी की खपत बढ़ गई थी। कुएँ और हैण्डपम्प तो थे ही, लंदन के कुछ इलाकों में पाइप 17वीं शताब्दी से ही पहुँचने लगे थे। इस्तेमाल होने के बाद मैला पानी सेसपिट में पहुँच जाता था। इतने पानी की वजह से ये गड्ढे उफनने लगे, मैला पानी सड़कों पर बहकर आने लगा। सन 1800 के आसपास शहर में नालियाँ बनने लगीं। फ्लश वाले शौचालय का इस्तेमाल भी फैल रहा था। सेसपिट उन नालों में बहने लगे जो सीधे टेम्स नदी में खुलते थे। अब मैला सड़क पर बिखरने की बजाय नदी में विसर्जित होने लगा। जैसे-जैसे नदी दूषित होती गई। शहर में पानी की आपूर्ति करने वाली कम्पनियों ने लंदन से दूर, नदी के ऊपरी हिस्सों से पानी खींचना शुरू कर दिया। नदी में पानी कम, मैला ज्यादा रहने लगा। औद्योगिक क्रान्ति के इस दौर में शहरों की आबादी धुआँधार बढ़ रही थी।
सन 1800 से 1850 के बीच लंदन की आबादी दोगुनी हो गई। अब शहर में करीब दो लाख सेसपिट थे, जिनमें मल-मूत्र के साथ बहुत सा पानी भी रहता था। शहर के बढ़ने और फैलने की वजह से किसानों के लिये शहर से मल-मूत्र की ढुलाई महंगी हो गई थी। दुनिया भर से बढ़ते व्यापार की वजह से किसानों को खाद का एक बेहतर और सस्ता प्रकार मिल गया था। चिड़ियों की बीट से बनी खाद जो दक्षिण अमेरिका से आती थी, लेकिन इसकी बात किताब में आगे होगी। किसानों ने लंदन के सेसपिट खाली करना छोड़ दिया था। जो मल-मूत्र पहले खेतों में जाता था वह अब सड़कों पर बहने लगा था, जहाँ से बारिश का पानी उसे नदी तक धीरे-धीरे बहाकर ले जाता था।
यूरोप के दूसरे शहरों में भी सड़कों और नदियों के हाल ऐसे ही थे। पैदल चलते हुए मल-मूत्र में सन जाने का खतरा बना रहता था। इससे बचने के लिये सड़कों पर पत्थर भी रखे जाते थे। फ्रांस की राजधानी पेरिस में ऊँची एड़ी के जूतों का फैशन चल निकलने का भी एक कारण यही माना जाता है, महिलाओं में भी और पुरुषों में भी। ऐसे जूते पहनने से सड़क पर बिखरा मल कपड़ों पर चिपकता नहीं था। जिस समय यूरोपीय देश दुनिया भर पर राज कर रहे थे, दुनिया भर को लूट रहे थे, तब उनके शहर, सड़क और नदी नरक बने हुए थे। साधारण लोगों का जीवन कितना बुरा था यह चार्ल्स डिकंस और एमिल जोला जैसे लेखकों के उपन्यास बारीकी से दिखाते हैं। शरीर के विकार और नीचता के प्रति हास्य-व्यंग्य की यूरोपीय साहित्य में खास जगह रही है। पर इस दौर के सम्पन्न समाज के रहन-सहन और अशौच की कहानियाँ लोकप्रिय और सुगम साहित्य में नहीं आती हैं।
सन 1589 में एक जर्मन राजा ने अपने किले में सन्देश लगवा कर सीढ़ियों, गलियारों और अलमारी-कोठार में पेशाब या मलत्याग करना निषेध किया था। 17वीं शताब्दी में जब पेरिस के वरसाई महल का उद्घाटन किया गया तब वहाँ सुन्दर फव्वारे तो थे, पर शौचालय या सीवर की नालियाँ नहीं थीं। आभिजात्य वर्ग का मल-मूत्र महल में यहाँ-वहाँ पड़ा पाया जाता था। उस समय के यात्रियों के वृत्तांत बताते हैं कि महल की हवा मल-मूत्र की सड़ांध से युक्त रहती थी।
1880 के दशक में रोगाणुओं की खोज के बाद सफाई और शुचिता की धारणा तेजी से बदली। यह सिद्ध हो चुका था कि मनुष्य के शरीर का सीधा सम्बन्ध जलस्रोतों और शहर की रचना से है। स्वास्थ्य के लिये मल-मूत्र के निकास की जरूरत उजागर हो चुकी थी। यूरोप की सरकारें अब शहरों में सीवर और सफाई पर ढेर सारा धन खर्च करने के लिये तैयार थीं। इंग्लैंड में कई सरकारी आयोग और प्राधिकरण बने, कई कानून बनाए गए, बहुत सा धान खर्च हुआ। इसके पहले शौचालय और नालियाँ हर घर की अपनी जिम्मेदारी मानी जाती थीं।
शौच निपटने के लिये कुलीन लोग झाड़ियों में और बगीचों में बैठे नजर आते थे। महल की रूपरेखा में पेड़ और झाड़ियों को आड़ की तरह बनाया गया था, ताकि राजपरिवार के लोग मलत्याग करते हुए दिखे नहीं। रूस की राजधानी मॉस्को में क्रेमलिन महल की हालत भी कुछ ऐसी ही थी। वहाँ 19वीं शताब्दी में शौचालय बनाए गए, लेकिन स्वच्छता के लिये नहीं। डर यह था कि मल-मूत्र की सड़न से निकलने वाली गैस महल के गुंबज पर मढ़ा हुआ सोना न गला दे।
मल की दुर्गन्ध से एक और खतरा था। इस समय यूरोप में माना जाता था कि हैजे जैसी जानलेवा बीमारियाँ दूषित हवा से फैलती हैं। किसी ने यह कल्पना नहीं की थी कि ऐसी बीमारियाँ पानी के जरिए फैल सकती हैं। लंदन की सन 1858 की भयानक सड़ांध के कई साल पहले से कुछ लोग टेम्स के प्रदूषण पर चिन्ता जताते आ रहे थे, जिनमें खास नाम आता है वैज्ञानिक माइकल फैरेडे का। उनकी बात पर पहले कोई ध्यान नहीं देता था क्योंकि लंदन के लिये साफ पानी नदी के ऊपरी हिस्सों से आ जाता था। प्रदूषण से किसी का काम रुकता नहीं था, किसी का मुनाफा नहीं मारा जा रहा था। नदी का प्रदूषण दूर करने की कोई भी कोशिश किसी ने नहीं की। चिकित्सक जॉन स्नो कई बरस से कहते आ रहे थे कि हैजा फैलने का कारण पानी में है। उनकी बात सन 1854 में ही सिद्ध हो गई थी, पर यह बात इस किताब के छठवें खण्ड में होगी।
लेकिन सन 1858 की गर्मी और खदबदाते मल की दुर्गन्ध ने सारी हदें पार कर दी थीं। लंदन के लोगों के शरीर से निकला मल-मूत्र अब नदी के पानी तक सीमित नहीं था। उसकी हाजिरी बदबू के रूप में राजमहल और संसद तक लग रही थी। राज करने वाले इस मामले पर पर्दा नहीं डाल पा रहे थे। चूने में भीगा पर्दा तक काम नहीं कर रहा था। इस बदहवासी की वजह से संसद के सामने सीवर बनाने का विधेयक एकदम से लाया गया। 18 दिन के भीतर ही यह पारित भी हो गया और कानून बन गया।
इस योजना को बनाने वाले थे लंदन महानगर बोर्ड के मुख्य इंजीनियर जोसेफ बैजलगेट। पानी की आवक-जावक की उनकी समझ रेलवे में काम करने से बनी थी। उनका प्रस्ताव था टेम्स के समानान्तर चलती हुई नालियाँ बनाने का, जो शहर भर का मैला पानी सीधे नदी में डालने की बजाय शहर से बाहर ले जाएँ। शहर भर को इन सीवरों से जोड़ने की जरूरत भी थी। यह लंदन की शल्य चिकित्सा ही थी। सन 1866 तक शहर के ज्यादातर हिस्से सीवर की नालियों से जुड़ चुके थे। नालियाँ बनाने के लिये इतनी ईंटों की जरूरत पड़ी कि ईंट के दाम कई गुना बढ़ गए थे।
मजबूत गारा-चाहिए था, जिसके लिये कई तरह के परीक्षण किये गए। चूना-पत्थर को जलाकर उसके कैल्शियम से पोर्टलैंड सीमेंट बनाने के तरीके का आविष्कार भी इसी दौर में यहीं हुआ था। चुनाई के लिये इसी सीमेंट का इस्तेमाल हुआ। आज यह दुनिया भर में बनाई और इस्तेमाल की जाती है। हमारे यहाँ भी इसके विज्ञापन हर कहीं दिखते हैं। लंदन के सीवर बनने के कई असर हमारे चारों ओर फैले हुए हैं।
इसके बनने के बाद लंदन में हैजा फैलना बन्द हो गया। श्री जोजेफ की बनाई सीवर प्रणाली आज भी कारगर है। शहर उनके प्रति आज भी कृतज्ञ भाव रखता है और समय-समय पर उनकी कल्पनाशीलता और कर्मठता को श्रद्धांजलि देता है। उस समय यह प्रयास अनूठा और अभूतपूर्व था। लेकिन यह यूरोप का पहला आधुनिक सीवर नहीं था। जर्मनी के शहर हैमबर्ग का बड़ा हिस्सा सन 1842 में एक बड़ी आग में जल गया था। शहर को फिर से बनाने वालों ने जमीन के नीचे सीवर की नालियाँ बनाई थीं। हैजे की महामारी से त्रस्त यूरोप के शहरों का रुझान सीवर की तरफ बढ़ने लगा था, खासकर यह पता लगने के बाद कि बीमारी का स्रोत दूषित पानी में है।
1880 के दशक में रोगाणुओं की खोज के बाद सफाई और शुचिता की धारणा तेजी से बदली। यह सिद्ध हो चुका था कि मनुष्य के शरीर का सीधा सम्बन्ध जलस्रोतों और शहर की रचना से है। स्वास्थ्य के लिये मल-मूत्र के निकास की जरूरत उजागर हो चुकी थी। यूरोप की सरकारें अब शहरों में सीवर और सफाई पर ढेर सारा धन खर्च करने के लिये तैयार थीं। इंग्लैंड में कई सरकारी आयोग और प्राधिकरण बने, कई कानून बनाए गए, बहुत सा धान खर्च हुआ। इसके पहले शौचालय और नालियाँ हर घर की अपनी जिम्मेदारी मानी जाती थीं। इस दौर के बदलाव के बाद यूरोप में साफ-सफाई का जिम्मा सरकार और नगरपालिकाओं ने ले लिया। उनके लिये मल-मूत्र को मुहल्लों से दूर करने के लिये सबसे श्रेष्ठ और आधुनिक व्यवस्था उसे पानी से बहाकर सीवर के रास्ते बाहर निकालने की ही थी। इस समय यूरोप की छाप सारी दुनिया पर पड़ती थी। अमेरिका के शहरों में भी सीवर बनने लगे। यूरोप के साम्राज्य और उपनिवेश दुनिया भर में फैले हुए थे। इन उपनिवेशों में सीवर बनाने और मैले पानी की सफाई करने के लिये यूरोप की सरकारों ने बहुत रुचि नहीं दिखाई।
भारत में ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी बस्तियों को साफ रखने के लिये सीवर बनाए, उसके लिये जरूरत जितना धन भी लगाया। लेकिन भारतीय लोगों की बस्तियों में सीवर की नाली डालने से वह कतराती रही। दिल्ली में सीवर का इतिहास जानने वाले बताते हैं कि अंग्रेज अफसर तरह-तरह के बहाने बनाते थे ताकि भारतीयों की बस्ती में सीवर बनाने का खर्चा न करना पड़े। सन 1912 में दिल्ली के एक सरकारी दस्तावेज में पुरानी दिल्ली के एक स्वास्थ्य अधिकारी कहते हैं कि केवल धनी वर्ग के लोगों के घरों को सीवर की नाली से जोड़ना चाहिए, क्योंकि दूसरे लोग इसका खर्चा नहीं उठा सकते हैं। लेकिन सीवर से निकला मैला पानी किसानों को सिंचाई और खाद के लिये बेचा जाता था। इस कमाई में अंग्रेज शासन की खूब रुचि थी। मैला पानी दुनिया के कई देशों में किसानों को सिंचाई के लिये बेचा जाता था। यह शायद तब से हो रहा है जब से मैले पानी की नालियाँ बन रही हैं। कई जगह ऐसा आज भी होता है।
मैले पानी के निस्तार की प्रणाली आदि काल के शहरों में भी मिलती है, खासकर सिंधु घाटी सभ्यता के दौर में। प्राचीन ईरान और रोमन साम्राज्य के कुछ शहरों में भी सीवर की नालियाँ हुआ करती थीं। इन नालियों का मैला नदियों में बहाया जाता था। कोई आश्चर्य नहीं कि किसान तब भी इसका इस्तेमाल खाद और सिंचाई के लिये करते हों। पर इन शहरों की आबादी इतनी नहीं थी जितनी औद्योगिक क्रान्ति के समय यूरोपीय नगरों की थी। आबादी का ऐसा घनत्व तो था ही नहीं। फिर उस समय घर-घर में पानी पहुँचाने के पाइप नहीं थे। लोग कम थे, पानी के उपयोग भी कम थे, नालियों में मैला पानी भी कम ही रहा होगा, जबकि आज की तुलना में तब नदियों में पानी खूब था। इतने बहाव में मल-मूत्र घुल कर प्रकृति की भेंट चढ़ जाता होगा।
बरसाती नालों को सीवर बनाना सस्ता और सरल उपाय था। पता नहीं कितने शहरों ने ऐसा ही किया। मैले पानी और बरसाती पानी का अनुपात अगर ठीक हो तो मिली-जुली सीवर व्यवस्था बहुत बुरी नहीं होती है। जहाँ मैले पानी की मात्रा बहुत ज्यादा न हो वहाँ इसका लाभ भी होता है। बरसाती पानी में घुल कर दूषित पानी का मैल हल्का होता है। लेकिन अगर मैला पानी साफ करने के कारखाने नाली के आगे लगे हों तो मिले-जुले सीवर बहुत भारी पड़ते हैं। ऐसे कारखानों को जितना ज्यादा पानी मिलता है उतना ही समय और खर्चा बढ़ता है उसे साफ करने पर।
19वीं शताब्दी में यूरोपीय शहरों की आबादी बहुत बढ़ चुकी थी, बहुत घनी हो गई थी। पानी बेचने की कम्पनियाँ उभर आई थीं, पाइपों के जाल से जगह-जगह पानी पहुँचाया जाने लगा था। फ्लश के शौचालय बनने के बाद तो मैले पानी के उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती ही गई। यूरोप की कई नदियाँ गन्दे नालों में तब्दील हो गईं। लेकिन सीवर प्रणाली बनने के बाद नदियों को साफ करने पर ध्यान जाने लगा। 1880 के दशक से यूरोप और अमेरिका के शहरों ने मैले पानी के उपचार के कारखाने लगाने शुरू कर दिये। नदियों में मैला पानी सीधा डालने का विकल्प अब दिखने लगा था।
ज्यादातर पुराने शहर की सड़कें उधेड़कर, उनके नीचे सीवर की नालियाँ डाली गईं। 20वीं सदी के आदर्श शहर की संरचना में सीवर की नालियाँ और मैला पानी साफ करने के कारखाने निहित हो चुके थे। आज भी ऐसा ही है। किसी नए शहर की कल्पना भी नहीं की जा सकती उनके नीचे सीवर की नालियाँ बिछाए बिना। लेकिन इतने जतन और खर्चे के बावजूद इन शहरों का मैला पानी कभी-कभी नदियों में सीधा पहुँच जाता है। जिन मुहानों और खाड़ियों के रास्ते ये नदियाँ समुद्र से मिलती हैं उनमें प्रदूषण बढ़े के किस्से सुनने में आते रहते हैं, खासकर तेज बारिश के बाद। इसका कारण पुराने शहरों की बनावट में है। जब इनमें सीवर डलने शुरू हुए तब वहाँ पहले से नालियाँ मौजूद थीं, लेकिन उनका काम था बरसाती पानी का निकास।
मैले पानी के लिये अलग नालियाँ डालने का खर्चा दोगुना होता। किफायती तरीका यही था मौजूदा नालियों में ही मैला पानी चलाने वाले सीवर डाल दिये जाएँ। अंग्रेजी में ऐसी मिली-जुली नाली ‘कम्बाइंड सीवर’ कही जाती है। इनमें मैला पानी बरसाती पानी में मिलकर उसे भी दूषित कर देता है। मैले पानी की मात्रा बढ़ जाती है, और उसे साफ करने का खर्चा भी बढ़ता है। इसका एक और परिणाम निकला। छोटी और बरसाती नदियाँ नाले बनकर रह गईं।
लंदन में ऐसी ही एक नदी का नाम ‘फ्लीट’ हुआ करता था। इसका संगम होता था टेम्स नदी से। मध्यकाल के बाद तक इस नदी में नावें तैरती थीं। 17वीं सदी में इसमें मैला पानी बहने लगा था। सीवर बनने के बाद तो इसका ज्यादातर हिस्सा पाट दिया गया, या उसे भूमिगत नाले में बदल दिया गया। ऊपर जो सड़क बनी उसे ‘फ्लीट स्ट्रीट’ का नाम मिला। आगे चलकर इस पर तमाम अखबारों और प्रकाशनों के दफ्तर खुले और फिर यह नाम पत्रकारिता का पर्यायवाची ही बन गया।
नदियों को नाला बनाने की कड़ी में और पीछे जाएँ तो कोई 2,500 साल पहले रोम शहर में बनाए गए विशाल सीवर ‘क्लोआका मैक्सिमा’ की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। यहाँ एक छोटी सी नदी बहती थी, जो एक दलदल को टाइबर नदी से जोड़ती थी। दलदल को पाट कर प्राचीन रोम का एक हिस्सा बनाया गया। पानी की धारा को पक्का कर यह विशाल नाला बनाया गया। इसमें रोम का मैला पानी बहने लगा। आज भी यह नाला रोम का मलबा और बरसाती पानी टाइबर नदी तक पहुँचता है।
बरसाती नालों को सीवर बनाना सस्ता और सरल उपाय था। पता नहीं कितने शहरों ने ऐसा ही किया। मैले पानी और बरसाती पानी का अनुपात अगर ठीक हो तो मिली-जुली सीवर व्यवस्था बहुत बुरी नहीं होती है। जहाँ मैले पानी की मात्रा बहुत ज्यादा न हो वहाँ इसका लाभ भी होता है। बरसाती पानी में घुल कर दूषित पानी का मैल हल्का होता है। लेकिन अगर मैला पानी साफ करने के कारखाने नाली के आगे लगे हों तो मिले-जुले सीवर बहुत भारी पड़ते हैं। ऐसे कारखानों को जितना ज्यादा पानी मिलता है उतना ही समय और खर्चा बढ़ता है उसे साफ करने पर।
जैसे किसी टंकी में एक निश्चित मात्रा में ही पानी भरा जा सकता है, ठीक वैसे ही इन कारखानों में एक निश्चित मात्रा में ही मैला पानी साफ हो सकता है। मात्रा बढ़ने से जैसे टंकी बहने लगती है वैसे ही ये कारखाने भी मैला पानी बिना साफ किये नदी में डालने लगते हैं। अधिक बारिश होने पर ये कारखाने बेकार हो जाते हैं। नए बसे हुए शहरों में इस समस्या से बचने के लिये सीवर की नाली और बरसाती पानी के निकास की नाली अलग रखी जाती हैं। सन 1950 के बाद बसाए हुए अमेरिकी शहरों में यह अन्तर रखा गया है। लेकिन पुराने शहरों में तो मिली-जुली नालियाँ ही हैं। लंदन के सीवर ऐसे ही हैं, अमेरिका के न्यूयॉर्क और नई दिल्ली के भी। इनके पुराने सीवर उखाड़ कर नई नालियाँ डालना असम्भव है। ये शहर हर साल हजारों करोड़ लीटर मैला पानी बरसात के पानी के साथ मिलाकर नदियों, खाड़ियों और समुद्र में फेंक देते हैं।
सबसे ताकतवर माने गए देश अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डी.सी. को ही लीजिए। यहाँ सीवर सबसे पहले सन 1890 में बने थे। इस पुराने इलाके में राष्ट्रपति निवास ‘व्हाइट हाउस’ भी आता है और संसद की पीठ ‘कैपिटल हिल’ भी। यहाँ खुदाई करके पुराने सीवर उखाड़ना और नए सिरे से नालियाँ बिछाना असम्भव है। ऐसा करें तो यह अमेरिका जैसे देश के लिये भी बहुत मंहगा पड़ेगा। सन 2011 में केवल चार मुहल्लों के सीवर अलग करने का खर्च एक करोड़ डॉलर निकला। इसके बाद सीवर अलग करने की योजना छोड़ दी गई।
नए और पुराने इलाके के सीवर की नालियाँ मैला पानी साफ करने वाले एक ही कारखाने में जाती हैं। जब बारिश होती है तो नए इलाकों का बरसाती पानी अलग नालियों से शहर के बगल से बहने वाली दो नदियों में बह जाता है। पुराने इलाके का बरसाती पानी मैले पानी में मिलकर, सीवर से होता हुआ, उपचार के कारखाने तक पहुँचता है। इतना मैला पानी साफ करने की क्षमता वहाँ है ही नहीं, हालांकि इसे दुनिया भर में अपनी तरह का सबसे आधुनिक और बड़ा संयंत्र कहा जाता है।
अमेरिका की पर्यावरण संरक्षण एजेंसी न जाने कब से वाशिंगटन शहर की सरकार को नोटिस-पर-नोटिस भेजती रही है। शहर के मैले पानी से चेसापीक खाड़ी का प्रदूषण हो रहा है। इसका बुरा असर पड़ा है नीले केकड़े पर, जिसकी खास अहमियत है यहाँ के मछलीपालन उद्योग के लिये। यह केकड़ा यहाँ के भोजन का अभिन्न हिस्सा तो रहा ही है, इसका व्यापार यहाँ की अर्थव्यवस्था में बड़ी जगह रखता है। मछुआरे दुखी हैं। उनकी माँग है कि शहर का मैला पानी नदियों और खाड़ी में न डाला जाये।
मछुआरों को नजरअन्दाज करना राजनेताओं के लिये कठिन है, लेकिन प्रदूषण घटाने का अपार खर्च सरकार नहीं कर पा रही है। इस खर्च को उन घरों पर भी नहीं डाला जा सकता जिनका मैला पानी सीवर में आता है, क्योंकि फिर कई लोग अपना पानी का बिल चुका नहीं पाएँगे। इसलिये सरकार ने एक जुगाड़ व्यवस्था के अन्तर्गत विशाल टैंक बनाने शुरू किये हैं। बरसाती पानी में मिलकर जब मैले पानी की मात्रा साफ करने की क्षमता से बढ़ जाएगी तब धीरे-धीरे साफ करने के लिये उसे इन टंकियों में डालकर रखा जाएगा। लेकिन इन टंकियों को बनने में कितने साल लगेंगे। कोई कह नहीं सकता। मिले-जुले सीवर का समाधान दुनिया के सबसे ताकतवर देश की राजधानी के पास भी नहीं है।
लंदन, न्यूयॉर्क और मिलान व्यापार और संस्कृति के गढ़ माने जाते हैं, लेकिन मैले पानी के निस्तार में ये शहर कहीं से भी आदर्श नहीं कहे जा सकते। इनके अथक प्रयास भी इनके जलस्रोतों को मल-मूत्र से बचा नहीं पाते हैं। मैला पानी साफ करने के इन शहरों के प्रयास किसी गहरी सूझ-बूझ से नहीं निकले हैं। यह अचानक सामने आई समस्या का जुगाड़ू समाधान है। जैसे-तैसे काम चलाने के तरीके, जिनसे भविष्य में समस्याएँ बढ़ती ही हैं। हर देश, हर शहर एक सीवर मानसिकता से ग्रस्त है। सीवर का मैला पानी साफ करना इतना दूभर क्यों है? इस समस्या का निदान क्या है?
ऐसे उदाहरण दूसरे अमीर शहरों से भी मिलते हैं। इटली का शहर मिलान दुनिया भर में फैशन की राजधानी कहा जाता है और यूरोप के सबसे ताकतवर, आधुनिक उद्योगों का अड्डा भी। लेकिन शहर का मैला उसकी नदी लांब्रो में बिना साफ किये डाल दिया जाता रहा है। सन 2005 में मिलान शहर को मैला पानी साफ करने का कारखाना जबरन लगाना पड़ा, क्योंकि यूरोपीय यूनियन ने उसे भारी जुर्माने की धमकी दी थी। लेकिन यूरोपीय यूनियन की राजधानी ब्रसेल्स ने खुद अपना मैला पानी साफ करने का कारखाना सन 2003 में बनाना शुरू किया। उसके पहले ब्रसेल्स भी बिना साफ किये अपना मैला पानी जनी नामक नदी में ही बहा देता था, जो बेहद दूषित थी। सन 2012 का एक शोधपत्र बताता है कि नदी का प्रदूषण अभी भी बहुत थमा नहीं है।
ब्रसेल्स और वाशिंगटन में दुनिया भर के साधन, जानकारी और ज्ञान-विज्ञान है। संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय यूनियन आज दुनिया की सबसे बड़ी ताकतें हैं। लंदन, न्यूयॉर्क और मिलान व्यापार और संस्कृति के गढ़ माने जाते हैं, लेकिन मैले पानी के निस्तार में ये शहर कहीं से भी आदर्श नहीं कहे जा सकते। इनके अथक प्रयास भी इनके जलस्रोतों को मल-मूत्र से बचा नहीं पाते हैं। मैला पानी साफ करने के इन शहरों के प्रयास किसी गहरी सूझ-बूझ से नहीं निकले हैं। यह अचानक सामने आई समस्या का जुगाड़ू समाधान है। जैसे-तैसे काम चलाने के तरीके, जिनसे भविष्य में समस्याएँ बढ़ती ही हैं। हर देश, हर शहर एक सीवर मानसिकता से ग्रस्त है। सीवर का मैला पानी साफ करना इतना दूभर क्यों है? इस समस्या का निदान क्या है?
इसका एक जवाब यूरोप के प्रसिद्ध दार्शनिक और अर्थशास्त्री कार्ल मार्क्स ने सन 1867 में दिया, अपनी किताब ‘कैपिटल’ में। वे लन्दन के उसी सोहो नामक इलाके में रहते थे जिसमें सन 1854 में एक पानी के पम्प से हैजा फैला था। उनकी बेटी फ्रांसिस्का हैजे से मारी गई थी। वे नहीं जानते थे कि हैजा मल से दूषित पानी पीने से होता है। लेकिन सीवर की एक बड़ी खोट उन्हें तभी दिख गई थी जब लंदन में सीवर बनने शुरू हुए थे। उन्होंने लिखा, “उपभोग से निकला मैला खेती में बहुत महत्त्व रखता है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था इसकी भव्य बर्बादी करती है। मिसाल के तौर पर लंदन में 45 लाख लोगों के मल-मूत्र का कोई और इस्तेमाल नहीं है उसे टेम्स नदी में डालने के सिवा और वह भी भारी खर्च के बाद।”
दूसरी विचारधाराओं के लोगों ने भी ऐसे विचार रखे हैं। अमेरिका की दक्षिणपंथी मानी गई रिपब्लिकन पार्टी के विख्यात राष्ट्रपति टेड रोजेवेल्ट सन 1990 में एक व्यापारियों के समूह से मिले। उन्होंने कुछ ऐसा कहा, “सभ्य लोगों को अपने मैले पानी के निस्तार का कोई बेहतर तरीका आना चाहिए बजाय उसे पीने के पानी में डालने के।” मार्क्सवादियों ने कार्ल मार्क्स की बात का जितना पालन किया उतना ही दक्षिणपंथियों ने टेड रोजवेल्ट की बात को समझा। दुनिया भर में साम्यवादी सरकारों ने भी मल-मूत्र पानी में बहाकर जलस्रोतों को दूषित किया है और पूँजीवादी सरकारों ने भी। दोनों विचारधाराओं के मूल्य सीवर मानसिकता में बहते हुए मिल सकते हैं।
आज भी सीवर तंत्र की चार सबसे बड़ी कमियाँ वही हैं जो कार्ल मार्क्स और टेड रोजवेल्ट के समय में थीं। इनसे शुद्ध पानी की घोर बर्बादी होती है, बहुत सा धन और दूसरे संसाधन लगते हैं, जलस्रोत दूषित होते हैं और जमीन की उर्वरता मिटती है। यहाँ पर हम केवल पानी और खर्चे की बात करेंगे। जलस्रोतों और खेती की जमीन की बात किताब में आगे चलकर होगी।
सीवर में जो बहता है उसमें 99.9 प्रतिशत पानी होता है। शुद्ध, पीने लायक पानी। शौचालय में जो पानी फ्लश में इस्तेमाल होता है वह भी उसी पाइप से आता है जिससे पीने का पानी आता है, हालांकि फ्लश में शुद्ध पानी की कोई आवश्यकता नहीं होती। दोनों के लिये अलग-अलग पाइप लगाने की लागत बहुत ज्यादा पड़ती है। हमारी नई अर्थव्यवस्था में पाइप महंगा होता है, पानी सस्ता। वास्तव में इस शुद्ध पानी का बहुत छोटा हिस्सा पीने और भोजन पकाने के काम आता है। बड़ा हिस्सा तो सफाई, नहाने-धोने और मैला फ्लश करने में लगता है।
इस पानी की ठीक कीमत पता लगती है किसी गरीब बस्ती में, तब जब आप घड़ा लेकर इन्तजार कर रहे हों नगर निगम के नलकूप में पानी आने का, या किसी पानी के टैंकर का। आमतौर पर नगरपालिकाएँ औने-पौने दाम पर पानी मुहैया कराती हैं, इसे पीने लायक बनाने की लागत तक नहीं वसूलती हैं। यह सरकारी खैरात है। लेकिन यह उदारता केवल उन्हें मिलती है जिनके घर तक नगर निगम का पाइप आता हो। यानी साधन-सम्पन्न लोगों को, जो एक जंजीर खींचकर या एक ढेकली घुमा कर या एक बटन दबाकर इस सस्ते पानी के द्वारा अपने शरीर से निकला मल-मूत्र नजर से गायब कर देते हैं। इसके बाद उनका मैला पानी किसी और की समस्या बन जाता है।
मैला पानी साफ करना महंगा इसलिये पड़ता है क्योंकि उसमें घुला 0.1 प्रतिशत मैल हमें 99.9 प्रतिशत पानी से अलग करना होता है। पीने के पानी की कीमत के अलावा शौचालय, नालियाँ और सीवर बिछाने का खर्च आता है। फिर शहर की बस्तियाँ किसी ढाल के हिसाब से नहीं बसाई जातीं। इसलिये मैला पानी जमीन की ढाल के विपरीत चलाने के लिये उसे बिजली की मोटरों से पम्प करना पड़ता है। इससे बिजली का खर्च तो आता ही है, मोटरों और सीवर की नालियों को बनाने और फिर उनके रखरखाव पर भी ढेर धन लगता है। इन सब खर्चों के बाद मैला पानी या तो नदियों और तालाबों में डालकर ठीक वैसे ही भुला दिया जाता है जैसे लोग फ्लश करके अपने मल-मूत्र को भुला देते हैं, या उसे मैला पानी साफ करने के कारखाने में, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट में भेज देते हैं।
मैला पानी साफ करने के तरीके पिछले सौ साल में बहुत ज्यादा बदले नहीं हैं, चाहे इस दौर में विज्ञान ने कितनी भी तरक्की की हो। इसकी विधि अनाज या मसाले सुखाने से मिलती है। पहले जाली लगाकर मोटा कचरा अलग किया जाता है। फिर मैले पानी को खड़ा छोड़कर मैल के कणों को नीचे बैठाया जाता है। इसके बाद खुली और चौड़ी टंकियों में रखकर बिजली के विशाल पंखों से मैले पानी में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाई जाती है, ताकि सूरज की रोशनी में बैक्टीरिया फले-फूले और मल-मूत्र के कणों को हजम कर जाये। अन्त में इस पानी में चूना या क्लोरीन जैसे किसी रसायन को डाला जाता है, ताकि बचे हुए, रोगाणु मर जाएँ। मैला पानी साफ करने वाले लगभग सारे ही बड़े कारखाने इन्हीं सिद्धान्तों पर चलते हैं। इन कारखानों में मैले पानी को एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक भेजने के लिये बिजली या डीजल से चलने वाली विशाल मोटरें चाहिए होती हैं।
एक और पद्धति है, लेकिन वह काम तभी करती है जब मैले पानी की मात्रा कम हो। इसमें मैले पानी को एक बन्द जगह पर सूरज की रोशनी और हवा से बचाकर रखा जाता है। ऐसा करने से इसमें वे बैक्टीरिया फलते-फूलते हैं जिन्हें जीने के लिये ऑक्सीजन-रहित वातावरण चाहिए होता है। लेकिन इन्हें काम करने के लिये समय चाहिए होता है, जिसका मतलब है कि बन्द खाने में मैला पानी खड़ा रखना पड़ता है। अगर मैला पानी ज्यादा हो तो यह पद्धति काम नहीं करती। बड़ी मात्रा में मैले पानी का संस्कार तो खुले में ही होता है, ऑक्सीजन के साथ, सूरज की रोशनी में।
सूरज से बड़ा रोगाणुनाशक कोई नहीं है। उसकी ऊष्मा और रोशनी उन अनगिनत जीवाणुओं को पालती है जो हमारे पेट से मल के साथ निकलते हैं। अगर इन्हें उथला, खड़ा पानी भी मिल जाये तो माहौल कुछ वैसा ही हो जाता है जैसा कि हमारे पेट में होता है। कुछ कारखानों में खास किस्म के बैक्टीरिया डाले भी जाते हैं जो पानी से मैल को तेजी से खाते हैं। इस दावत को छकने से जीवाणुओं का वजन बढ़ जाता है, और मैल के साथ वे टंकी के तल पर जाकर कीचड़ के रूप में बैठ जाते हैं। इसे अंग्रेजी में ‘एक्टीवेटेड स्लज’ कहते हैं।
सूरज से बड़ा रोगाणुनाशक कोई नहीं है। उसकी ऊष्मा और रोशनी उन अनगिनत जीवाणुओं को पालती है जो हमारे पेट से मल के साथ निकलते हैं। अगर इन्हें उथला, खड़ा पानी भी मिल जाये तो माहौल कुछ वैसा ही हो जाता है जैसा कि हमारे पेट में होता है। कुछ कारखानों में खास किस्म के बैक्टीरिया डाले भी जाते हैं जो पानी से मैल को तेजी से खाते हैं। इस दावत को छकने से जीवाणुओं का वजन बढ़ जाता है, और मैल के साथ वे टंकी के तल पर जाकर कीचड़ के रूप में बैठ जाते हैं। इसे अंग्रेजी में ‘एक्टीवेटेड स्लज’ कहते हैं।
नीचे बैठ जाने के बाद कीचड़ को पानी से अलग करना होता है। ऊपर का हल्का हो चुका पानी बाहर निकाल लिया जाता है और नीचे से कीचड़ और गाद को हटाने के लिये बिजली से चलने वाली विशाल झाड़ू चलती है। इस कीचड़ को सुखाकर खाद के रूप में नीलाम भी किया जाता है और कहीं तो ऐसे ही पड़त की जमीन पर फेंक दिया जाता है। इस तरह मैले को कीचड़ के रूप में अलग करने के लिये मैले पानी को उथली टंकियों में फैलाना पड़ता है। इसके लिये बहुत सी जमीन की जरूरत होती है। शहरों में जमीन पानी से भी महंगी होती है। बिजली का खर्च भी मैले पानी कि सफाई को खर्चीला बनाता है। एक तो इन कारखानों में ताकतवर मोटरों से पानी चलाना होता है, और फिर विशाल पंखे लगातार चलाने होते हैं मैले पानी में प्राणवायु की मात्रा बढ़ाने के लिये।
ऑक्सीजन की यह जरूरत रसायनशास्त्र से समझ आती है। हर पदार्थ की दो में से एक ही रासायनिक अवस्था हो सकती हैः स्थिर या प्रतिक्रियात्मक। मैले पानी का रासायनिक स्वभाव बहुत चंचल होता है, नमकीन होने की बजाय इसमें तेजाबी खटास ज्यादा होती है। यही वजह है कि मैले पानी की नालियाँ चाहे कितनी भी पक्की हों, पाइप चाहे जितने मजबूत हों, तेजाबी मैला उसे गलाता है और उसके रख-रखाव का खर्चा बढ़ाता है। हर चंचल पदार्थ स्थिर होने के लिये प्रतिक्रिया करता है।
ऑक्सीजन मिलने से मैला पानी स्थिर और सन्तुलित हो जाता है, बदबू कम होती है।
साधारण परिस्थिति में भी पानी में ऑक्सीजन बहुत कम घुल पाती है। मैले पानी में तो इसकी घोर कमी पड़ती है। इसीलिये पानी में प्रदूषण नापने के लिये सबसे व्यापक तरीका है उसमें प्राणवायु की मात्रा आँकना। अगर प्राणवायु न मिले तो मैल नाइट्रोजन जैसी गैस से प्रतिक्रिया करके सड़ने वाले बदबूदार रूप में चला जाता है। कुछ इसी तरह का रसायन हमारे पेट में होता है। अगर जीवाणुओं को ठीक रासायनिक माहौल मिल जाये तो भोजन ठीक से पचता है। न मिले तो पचने की बजाय भोजन हमारी आँतों में सड़ता है, जिससे मल और पाद में बदबू आती है।
खुले में मैल को पचाकर भोजन बनाने वाले बैक्टीरिया को ऑक्सीजन की जरूरत होती है। दही जमाने वाले बैक्टीरिया भी ऐसे ही होते हैं। इसलिये दूध को खूब फेंटने से, बिलोने से दही बेहतर जमता है। इसी सिद्धान्त के आधार पर कारखानों में विशाल पंखे मैले पानी को बिलोते हैं, ताकि प्राणवायु उसमें घुल सके। इन भीमकाय मथानियों को चलाने के लिये ढेर सी बिजली लगती है। इतने उपचार के बाद भी यह पानी मनुष्य के सीधे इस्तेमाल के लायक नहीं बनता। इसमें रोगाणु बचने की शंका रहती है। इस्तेमाल के लायक बनाने के लिये इसमें रोगाणुओं को मारने के लिये क्लोरीन जैसे रसायन भी डाले जा सकते हैं। जिन शहरों में मैले पानी और बरसाती पानी के निकास के लिये अलग नालियाँ होती हैं और जो इतना धन-बिजली-जमीन लगाकर मैले पानी को साफ करते हैं, उनके जलस्रोतों का प्रदूषण कम होता है। लेकिन होता फिर भी है क्योंकि सीवर के पानी में केवल शौचालयों से निकला मल-मूत्र भर नहीं होता।
सीवर की नाली हमारे जीवन का आईना है। हम जो कुछ इस्तेमाल करते हैं वह यहाँ पहुँचता है। पुरानी सभ्यताओं को समझने के लिये पुरातत्वशास्त्री उनके कचरे का विश्लेषण करते हैं। आजकल रोग विश्लेषक ही नहीं, नशीली दवाओं का व्यापार रोकने वाले भी सीवर के मैले पानी का अन्वेषण करने लगे हैं। नालियों का पानी बताता है कि नशीले पदार्थ किस इलाके में इस समय इस्तेमाल किये जा रहे हैं।
होटलों की रसोई में भोजन तलने के बाद बचा हुआ तेल, गाड़ियों के इंजन से निकला खराब मोटर तेल, फटे-पुराने कपड़े, शिशुओं के पोतड़े, शरीर पर इस्तेमाल होने वाले भाँति-भाँति के सौन्दर्य प्रसाधन, घरों की दीवारों पर लगा रंग, कई तरह के प्लास्टिक, पोंछे का पानी, नाना प्रकार के कागज… ऐसी सभी चीजें सीवर में पहुँचती हैं। यहाँ एंटीबायोटिक साबुन, शौचालय साफ करने वाले फिनाएल जैसे रसायन, और कपड़े धोने के डिटरजेंट भी होते हैं, जो पानी में पनपने वाले जीवों को नुकसान पहुँचाते हैं। ये उन जीवों को भी मारते हैं जो मैला साफ करने में हमारे सहायक होते हैं।
किसी मैले पानी के कारखाने को अगर आप देखने जाएँ, तो आपको वे सारे विज्ञापन याद आएँगे जिनके माध्यम से कई तरह की उपभोग की चीजें बेची जाती हैं। विज्ञापनों में यह नहीं बताया जाता है कि इन वस्तुओं की नियति क्या होगी। खासकर बारिश के बाद तो हर तरह का कचरा सीवर में पहुँच जाता है। बहुत सी जगह उद्योगों का मैला पानी भी अवैध तरीके से सीवरों में ही ढुलता है। इनमें कई तरह के जहर होते हैं जिनसे होने वाली हानि का हमारी नगरपालिकाओं का अन्दाज भी नहीं होता है, साफ करना तो दूर की बात है।
ये जहर मैले पानी से निकले कीचड़ में भी पाये जाते हैं। इस कीचड़ को अंग्रेजी में ‘स्लज’ कहते हैं और इसका खाद्य के रूप में उपयोग होता है। यह बहुत विवादास्पद मसला है और दुनिया भर में इस कीचड़ के खेती में इस्तेमाल को लेकर कई तरह की आशंकाएँ हैं। जमीन और जीवों पर इसके असर के बारे में ठीक जानकारी अभी तक नहीं आई है। कुछ परीक्षणों में पता लगा है कि इस कीचड़ में मौजूद कई जहर टूट के घुल जाते हैं। फिर कुछ और परीक्षणों ने यह भी दिखाया है कि इनके इस्तेमाल से फसल में जहर की मात्रा बढ़ जाती है। इस कीचड़ में ऐसे रोगाणु भी होते हैं जो मिट्टी में इन्तजार करते हैं कि उन्हें ठीक सवारी मिल जाये तो किसी और शिकार को दबोचें।
इसके विपरीत साफ किये पानी से रोगाणु हटाना उतना मुश्किल नहीं है। इसके लिये पानी में क्लोरीन की गोलियाँ डाली जाती हैं। क्लोरीन खासा प्रतिक्रियाशील तत्व है और प्रकृति में स्वच्छंद अवस्था में पाया ही नहीं जाता। इसका एक स्थिर रूप हम रोज नमक के रूप में खाते हैं, जिसे वैज्ञानिक सोडियम क्लोराइड कहते हैं। लेकिन इसके कई जहरीले रूप भी हैं जो जीवित कोशिकाओं को साँस ही नहीं लेने देते। जीवाणुओं का, रोगाणुओं का दम घुट जाता है। पानी साफ हो जाता है।
अगर गलती से हम शुद्ध क्लोरीन सूँघ लें तो इसका असर सीधे हमारे फेफड़े पर होता है। यही कारण है कि दोनों ही विश्वयुद्धों में क्लोरीन को कई लाख सैनिकों को मारने के लिये हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया था। पानी में क्लोरीन हमारे लिये उतना जहरीला नहीं रहता जितना उसका रोगाणु मारने में फायदा होता है। इसीलिये पर्यावरण की सफाई पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं के विरोध के बावजूद वैज्ञानिकों ने हमेशा ही पानी साफ करने के लिये क्लोरीन के उपयोग का समर्थन किया है। लेकिन जहर तो यह है ही और कई वैज्ञानिक और स्वास्थ्य कार्यकर्ता मानते हैं कि हमें क्लोरीन के शिकंजे से छूटना चाहिए। वे क्लोरीन से बनने वाले कई जहरीले पदार्थों की ओर इशारा करते हैं और यह भी याद दिलाते हैं कि इन रसायनों का आगे चल कर क्या प्रभाव होगा, हमें पता नहीं है।
गलती से हम शुद्ध क्लोरीन सूँघ लें तो इसका असर सीधे हमारे फेफड़े पर होता है। यही कारण है कि दोनों ही विश्वयुद्धों में क्लोरीन को कई लाख सैनिकों को मारने के लिये हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया था। पानी में क्लोरीन हमारे लिये उतना जहरीला नहीं रहता जितना उसका रोगाणु मारने में फायदा होता है। इसीलिये पर्यावरण की सफाई पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं के विरोध के बावजूद वैज्ञानिकों ने हमेशा ही पानी साफ करने के लिये क्लोरीन के उपयोग का समर्थन किया है। लेकिन जहर तो यह है ही और कई वैज्ञानिक और स्वास्थ्य कार्यकर्ता मानते हैं कि हमें क्लोरीन के शिकंजे से छूटना चाहिए।
पता तो हमें यह भी नहीं है कि हमारे पेशाब के रास्ते जो दवाइयाँ नालियों में पहुँचती हैं उनका प्रभाव क्या होता है, खासकर एंटीबायोटिक दवाओं का। ये दवाएँ आँतों से शरीर में सोख ली जाती हैं और खून के जरिए शरीर के कोने-कोने तक जाती हैं। इनका बड़ा हिस्सा खून के साथ ही वापस भी आ जाता है। हमारे गुर्दे खून को साफ करते समय इन्हें निकालकर पेशाब के रास्ते बाहर कर देते हैं, जहाँ से ये सीवर की नालियों में पहुँच जाते हैं। फिर मनुष्य ही क्या, आजकल तो कुत्तों और मुर्गों से लेकर भैंस तक के आकार के पालतू पशुओं को एंटीबायोटिक दवाएँ दी जाती हैं। इनमें से अधिकतर को इन दवाओं की आवश्यकता होती भी नहीं है। बस, एहतियात के तौर पर ही ये दवाएँ दी जाती हैं। तरह-तरह के हार्मोन भी। यह सब नालियों में पहुँचते हैं।
शरीर से बाहर निकल कर ये दवाएँ हमारे मल से आये और पर्यावरण में स्वच्छंद पाये जाने वाले दूसरे जीवाणुओं से मिलती हैं। इन सबका समागम होता है मैले पानी का उपचार करने वाले कारखानों में। इतने सारे पानी में घुल जाने के कारण यहाँ पर दवाइयों में रोगाणुओं को मारने की ताकत नहीं बचती है। पर रोगाणु इनको करीब से देख-समझ लेते हैं, कुछ वैसे ही जैसे अखाड़े में पहलवान कुश्ती के गुर सीखते हैं। धीरे-धीरे रोगाणु इन दवाओं को सहने की शक्ति पैदाकर लेते हैं। मैला पानी साफ करने के लिये बने संयंत्र महाशक्तिशाली रोगाणु तैयार करने के कारखाने भी हैं।
यह ताकत एक रोगाणु से दूसरे को सीधे मिल सकती है, जिस तरह एक पहलवान दूसरे पहलवान को दाँव-पेंच समझाता है। बैक्टीरिया जैसे सरल जीव एक-दूसरे से आनुवंशिक पदार्थ का लेन-देन सीधे कर सकते हैं, जो हमारे जैसे जटिल और विशाल प्राणी नहीं कर सकते। ऐसा कर पाने की वजह से बैक्टीरिया का क्रमिक विकास बहुत तेजी से होता है। ऐसी परिस्थिति बन जाती है कि रोग न करने वाले जीवाणुओं से भी रोगाणुओं को फायदा मिलता है। करोड़ों खर्च करके ये दवाइयाँ इस ध्येय से बनाई जाती हैं कि ये रोगाणुओं को अचानक धर दबोचें, उन्हें चकित करके मार दें। लेकिन इन दवाओं के भेद का भांडा मैला साफ करने के कारखानों में तब फूट जाता है, जब रोगाणु बिना किसी तरह के शोध के इनसे निपटना सीख लेते हैं।
फ्लश कमोड की सुविधा से ही यह दुविधा निकली है। यह असम्भव है कि हर मनुष्य को फ्लश वाले शौचालय की सुविधा मिले, लेकिन आज आदर्श तो इसे ही माना जाता है। हर नई बस्ती में सीवर की नालियाँ इस उम्मीद में बिछाई जाती हैं कि उनमें बहने वाला मैला पानी साफ किया जाएगा। सरकारी नीतियों और दस्तावेजों में भी सीवर नालियों को पूर्व निश्चित माना जाता है।
हमारे शहरों पर ही नहीं, हमारी मानसिकता पर भी सीवर हावी हो चुके हैं। इसके दीर्घकालिक परिणामों का हमें ठीक अन्दाजा नहीं है, क्योंकि ये हमें दिखते नहीं हैं। हमारी नदियों और तालाबों को तो हम देख सकते हैं। फिर भी हम अपना व्यवहार बदल नहीं पाते। शुचिता के साधन के नाते सीवर व्यवस्था अपूर्ण और अधकचरी है, यह तो खुद सीवर चलाने वाले कहते हैं। मैला पानी साफ करने के कारखानों में काम करने वालों से बात करने से इस व्यवस्था की असहायता, अक्षमता स्पष्ट हो जाती है। फ्लश के शौचालय और सीवर की वजह से हमारा शरीर और हमारा मानस अपने जलस्रोतों से एकदम कट चुका है। हम सीवरों में ऐसे क्यों डूब गए?
इसलिये क्योंकि फ्लश के शौचालयों से हमें कई तरह की आजादी मिली है, जो मन में आये वह करने का समय मिला है। हमें मलत्याग करने के लिये पैदल चलकर कहीं जाना नहीं पड़ता। एक जंजीर खींचकर या एक ढेकली घुमा कर हम अपने मल-मूत्र को किसी और की समस्या बनाने के लिये आजाद हैं। किसी नदी की समस्या, नदी की धारा में हमसे नीचे रहने वालों की समस्या, किसी तालाब की समस्या, किसी सीवर में गोता लगाने वाले कर्मचारी की समस्या, किसी नगरपालिका की समस्या…
नल में साफ पानी और चमचमाता हुआ शौचालय ही आज हमारे आदर्श हैं, जलस्रोतों का स्वच्छ और स्वस्थ होना महत्त्व नहीं रखता है। लोगों को पानी लेने कितना दूर जाना पड़ता है इसकी चिन्ता हर कोई करता है, घर-घर पानी पहुँचाने के लिये। यह नहीं कहा जाता कि जब हमें पानी तक जाना पड़ता था तब हमारे जलस्रोत साफ थे।
दिल्ली में एक समय योजना आयोग था, जो आज नीति आयोग में बदल दिया गया है। इसके भवन में दो शानदार शौचालय 35 लाख रुपए खर्च करके बने थे। यमुना में सड़ते मैल की बदबू योजना आयोग, नीति आयोग, उच्चतम न्यायालय, राष्ट्रपति भवन और संसद भवन में राज करने वालों की नाक तक नहीं पहुँचती।
उनके शौचालय चकाचक साफ हैं।
यह आलेख 'जल थल मल' से लिया गया है। किताब खरीदने के लिये यहाँ सम्पर्क करें
मूल्य - तीन सौ रुपए
प्रकाशक - गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान, 221 दीन दयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली 110002
TAGS |
sopan joshi book in hindi, sopan joshi blog in hindi, Jal thal Mal book in hindi, Jal thal Mal book by sopan joshi in hindi, sanitation meaning in hindi, sanitation meaning in telugu, sanitation meaning in tamil, sanitation synonyms in hindi, importance of sanitation in hindi, types of sanitation in hindi, sanitation meaning in urdu, sanitation definition in microbiology in hindi, sanitation definition in hindi, importance of sanitation, types of sanitation in hindi, health and sanitation essay in hindi, environmental sanitation in hindi, causes of sanitation in hindi, sanitation synonym in hindi, sanitation and hygiene in hindi, information about sanitation in hindi, swachh bharat abhiyan in hindi, swachh bharat abhiyan slogans in hindi, swachh bharat urban in hindi, swachh bharat abhiyan drawings in hindi, swachh bharat abhiyan website in hindi, swachh bharat abhiyan images in hindi, swachh bharat mission gramin in hindi, swachh bharat abhiyan urban in hindi, total sanitation campaign wiki in hindi, total sanitation campaign pdf in hindi, article on total sanitation campaign in hindi, total sanitation campaign guidelines in hindi, total sanitation campaign ppt in hindi, central rural sanitation programme in hindi, nirmal bharat abhiyan yojana in hindi, nirmal bharat abhiyan (nba) in hindi, total sanitation campaign in hindi, swachh bharat abhiyan gramin application form in hindi, swachh bharat abhiyan toilet online in hindi, swachh bharat mission gramin toilet in hindi, nirmal bharat abhiyan yojana in hindi, swachh bharat mission urban in hindi, swachh bharat mission toilet application form in hindi, swachh bharat mission in hindi, tsc login in hindi, nirmal bharat abhiyan in hindi, biodigester toilet systems, bio digester toilet cost in hindi, drdo bio digester price in hindi, drdo ficci biodigester in hindi, bio digester suppliers in hindi, drdo bio digester cost in hindi, bio digester tank in hindi, biodigester toilet cost in hindi, drdo bio toilets in hindi, bio toilets developed by drdo in hindi, drdo biodigester technology in hindi, bio digester toilet cost in hindi, drdo bio digester price in hindi, biodigester toilets in hindi, drdo ficci biodigester in hindi, bio digester suppliers in hindi, essay on sanitation and cleanliness in india in hindi, clean india essay in english, swachh bharat abhiyan essay in hindi, clean india green india essay in hindi, clean india essay for kids in hindi, swachh bharat abhiyan essay in english pdf in hindi, clean india essay in hindi in hindi, swachh bharat abhiyan essay in english 200 words, essay on swachh bharat in english in 200 words, clean india green india essay in hindi, clean india green india slogan in hindi, clean india green india drawings in hindi, clean india green india poem in hindi, clean india green india essay in hindi, clean india green india posters in hindi, clean india green india ppt in hindi, clean india essay in english, clean india green india in hindi, clean india essay in hindi, clean india slogans in hindi, clean india drawing in hindi, clean india green india in hindi, clean india green india wikipedia in hindi, swachh bharat abhiyan essay in hindi, swachh bharat abhiyan slogans in hindi, swachh bharat abhiyan website in hindi, clean india campaign in hindi, sansad adarsh gram yojana adopted villages in hindi, saansad adarsh gram yojana list of villages in hindi, sansad adarsh gram yojana adopted villages list in hindi, adarsh gram yojana village list in hindi, pradhan mantri sansad adarsh gram yojana in hindi, samagra awaas yojana in hindi, pradhan mantri adarsh gram yojana pdf in hindi, adarsh gram yojana maharashtra in hindi, adarsh gram yojana in hindi, essay on swachata in hindi, swachh bharat abhiyan essay in hindi pdf, essay on cleanliness in hindi, essay on sanitation in schools in hindi, essay on swachh bharat abhiyan in english, essay on cleanliness in hindi wikipedia, swachata abhiyan essay in gujarati language, swachh bharat abhiyan essay in hindi 500 words, nibandh on sanitation in hindi, swachata abhiyan in hindi, swachata abhiyan slogan in hindi, swachata abhiyan in marathi, swachata abhiyan in gujarati, swachata abhiyan in hindi wikipedia, swachata abhiyan essay in english, swachata abhiyan drawing in hindi, swachh bharat abhiyan in hindi essay, swachhta abhiyaan in hindi, Searches related to open defecation in hindi, open toilet in india in hindi, defecating in public law in hindi, defecating in public disorder in hindi, open air toilet in hindi, erecting inexpensive and effective latrines in hindi, progress on sanitation and drinking water: 2015 update and mdg assessment in hindi, india toilet problem in hindi, defaecation in hindi, open defecation in hindi, open defecation in india in hindi, manual scavenging act 2013 in hindi, manual scavenging banned in india in hindi, manual scavenging act 1993 in hindi, manual scavenging banned in india since in hindi, manual scavengers meaning in hindi, manual scavenging in india a case study in hindi, manual scavenging the hindu in hindi, manual scavenging quotes in hindi, Manual scavenging in hindi, manual scavenging in india in hindi, information about of open defecation in hindi, define community sanitation in hindi, community led total sanitation india in hindi, community led total sanitation pdf in hindi, community led total sanitation manual in hindi, community led total sanitation methodology in hindi, importance of community sanitation in hindi, what is community sanitation in hindi, community led total sanitation handbook in hindi, community led total sanitation campaign in hindi, community led total sanitation programme in hindi, community led total sanitation in hindi, clts training manual in hindi, community led total sanitation handbook in hindi, clts triggering tools in hindi, community led total sanitation manual in hindi, community led total sanitation approach in hindi, clts steps in hindi, clts approach steps in hindi, clts in hindi, community led total sanitation training in hindi, information about of community led total sanitation in hindi, essay on community led total sanitation in hindi, nibandh on community led total sanitation in hindi, drainage system in india in hindi, drainage system of india class 9 in hindi, drainage pattern of india in hindi, drainage system of india wikipedia in hindi, indian drainage system pdf in hindi, drainage system of india ppt in hindi, drainage system of india map in hindi, drainage system of india in hindi, drainage system of australia in hindi, largest drainage system in the world in hindi, best drainage system in india in hindi, city with best drainage system in hindi, drainage basin definition in hindi, drainage basin diagram in hindi, types of drainage system in hindi, drainage system pdf in hindi, drainage pattern in hindi, drainage system in the world in hindi, joseph bazalgette sewer system in hindi, london sewerage system in hindi, london sewers tour in hindi, london sewers map in hindi, london sewers elizabethan era in hindi, when was the first sewer system invented in hindi, london sewer monster in hindi, bazalgette pumping station in hindi, drainage system in london in hindi, advanced drainage systems headquarters in hindi, advanced drainage systems jobs in hindi, advanced drainage systems salary in hindi, advanced drainage systems stock in hindi, ads pipe suppliers in hindi, ads pipe prices in hindi, alcohol detection systems in hindi, apartment data services in hindi, drainage system in washington in hindi. |