जल मानव सहित सभी जीवधारियों के लिए प्रकृति का एक अनुपम उपहार है, जिसका कोई विकल्प नहीं है। जीवधारियों एवं वनस्पतियों को जीवित रखने तथा उनका विकास करने में जल की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। एक तरह से कहा जाए तो जल ही जीवन है। उपग्रहों द्वारा लिए गए नीले-हरे छायाचित्रों से ज्ञात हुआ है कि पृथ्वी पर जल की पर्याप्त मात्रा है।
अनुमान है कि पृथ्वी पर 1.4 बिलियन घन मीटर जल उपलब्ध है, लेकिन इस जलराशि का केवल तीन प्रतिशत जल ही मानव-जाति की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक है। वास्तव में पृथ्वी पर पाए जाने वाले ताजे जल का तीन – चौथाई भाग आर्कटिक और अंटार्कटिक क्षेत्रों की हिमानियों में निक्षेपित है। विश्व में कुल ताजे जल संसाधन के केवल 0.36 प्रतिशत तक ही मानव की पहुंच है।
पृथ्वी पर जल हमें तीन रूपों में प्राप्य है- ठोस (हिम), द्रव (जल) एवं गैस (वाष्प)। ग्लोब के समस्त जल का 97.3 प्रतिशत महासागरों में निहित है, जो खारा है। अनुमान है कि सभी सागरों और महासागरों में 1370.323 x 10 पर घात 6 घन मीटर जल अवस्थित है तथा समुद्रों की औसत गहराई 3795 मीटर है। इन महासागरों में प्रशांत महासागर सबसे गहरा और बड़ा है।
मनुष्य जल का कई तरह से उपयोग करता है। इनमें से कुछ प्रमुख उपयोग हम इस तरह करते हैं। घरेलू कार्यों में जल का उपयोग ‘प्राथमिक उपयोग’ कहलाता है। यह पीने, खाना पकाने, नहाने व घरों की सफाई करने में प्रयुक्त होता है। मात्र जीवित रहने के लिए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति को 2-3 लीटर जल पर्याप्त है। अमेरिकी अनुसंधानकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि विश्व में 250 मिलियन व्यक्ति जल की निम्न गुणवत्ता या अपर्याप्त जलापूर्ति के कारण बीमारियों से ग्रस्त रहते हैं। अफ्रीका व एशिया में प्रति वर्ष लगभग 25 हजार व्यक्ति ट्रेकोमा, मियादी बुखार, हैजा आंतों की विभिन्न बीमारियों से मौत के शिकार होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा एकत्रित आंकड़ों से पता चलता है कि इनमें लगभग 80 प्रतिशत मौतें दूषित जल के कारण ही होती हैं।
औद्योगिक क्रियाकलापों में जल का प्रयोग उसका ‘गौण उपयोग’ कहलाता है। वैसे भी कल-कारखानों के संचालन में जल की विशेष भूमिका होती है। भाप से चलने वाली मशीनों में वाष्प निर्माण के लिए, रासायनिक विलयनों को तैयार करने में, वस्त्रों की रंगाई, छपाई व धुलाई करने में, एयरकंडीशनिंग व कूलिंग करने में जल का औद्योगिक उपयोग होता है। आइसक्रीम व बर्फ के निर्माण में तथा शीतल पेय पदार्थों में भी कच्चे माल के रूप में जल का उपयोग किया जाता है।
लोहा, इस्पात उद्योग में धातु को ठंडा करने, कोयला उद्योग में कोयले की धुलाई तथा चमड़ा उद्योग में खाल को धोने, रंगने एवं रासायनिक उद्योगों में क्षारों और अम्लों के निर्माण में जल का औद्योगिक उपयोग अधिक महत्वपूर्ण है। शुद्ध जल की उपलब्धता उद्योगों के स्थायीकरण पर भी प्रभाव डालती है। इसी कारण ऊनी व सूती वस्त्र उद्योग, कागज-लुगदी, चमड़ा, शराब, रसायन और औषध निर्माण उद्योग मीठे जलस्रोतों के निकट ही स्थापित किए जाते हैं।
जल का अधिकतम प्रयोग 80 प्रतिशत तक कृषि क्षेत्र में सिंचाई के रूप में होता है। जहां पर्याप्त वर्षा नहीं होती, वहां सिंचाई के लिए जल की अधिक आवश्यकता पड़ती है। नगरों में जलापूर्ति का 85 प्रतिशत भाग उद्योगों द्वारा उपयोग में लाया जाता है। एक ओर कारखानों के संचालन में जहां जल का प्रयोग किया जाता है, वहीं दूसरी ओर औद्योगिक अपशिष्टों को बहाने तथा सीवर प्रणाली को चालू रखने में जल का भारी उपयोग होता है। यही कारण है कि सीवर में जल का बढ़ता उपयोग जल प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत बन गया है। परिणामतः औद्योगिक नगरों के छोरों पर बहने वाली नदियां, नदी कम गंदा नाला अधिक लगती हैं।
आज जल के भारी दुरुपयोग से जल की गुणवत्ता में काफी गिरावट आई है। यद्यपि जल में स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता होती है, परंतु जब मानवजनित स्रोतों से उत्पन्न प्रदूषकों का जल में स्वयं शुद्धि की क्षमता से अधिक जमाव हो जाता है तो वह जल प्रदूषित हो जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल के प्रदूषण को परिभाषित करते हुए एक स्थान पर स्पष्ट लिखा है, ‘प्राकृतिक या अन्य स्रोतों से उत्पन्न अवांछित बाह्य पदार्थों के कारण जल दूषित हो जाता है तथा उसकी विषाक्तता व सामान्य स्तर से कम ऑक्सीजन के कारण जीवों के लिए घातक एवं संक्रामक रोग फैलाने में सहायक होता है।’
आज समस्त जल राशि चाहे वह सतही हो या भूमिगत किसी-न-किसी रूप में प्रदूषणयुक्त है। इस प्रकार प्रदूषित जल का प्रभाव समस्त भौतिक व मानवीय पर्यावरण पर पड़ रहा है, जिसके प्रभाव घोर नुकसानदायक हैं। जल प्रदूषण से सर्वाधिक आहत मनुष्य एवं सूक्ष्मजीव होते हैं। प्रदूषित जल का सेवन करने से हैजा, तपेदिक, पीलिया, अतिसार, मियादी बुखार, टायफाइड, पेचिश, आंत्रशोध, मलेरिया, फाईलेरिया, पोलियो, इंसेफेलाइटिस, डेंगू जैसे घातक रोग न केवल पनपते हैं, बल्कि मृत्यु का कारण भी बनते हैं। ऐस्बेस्ट्स के रेशों से युक्त जल के प्रयोग से फेफड़ों का कैंसर तथा पेट के अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। विश्व में जल के दुरुपयोग की स्थिति बड़ी ही भयावह है। परिणामस्वरूप जल के स्रोत अनेक कार्यों के लिए अनुपयुक्त हो गए हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका की ईरी झील में प्रतिवर्ष हजारों टन प्रदूषक तत्व विसर्जित किए जाते हैं। इसमें फास्फेट के प्रवेश से झील में पनपी लाईकेन की वृद्धि रुक गई है और अनेक मूल्यवान मछलियों की जाति ही नष्ट हो गई है। कनाडा में तीव्र जन-विरोध एवं वैधानिक नियम-कानूनों के उपरांत भी औद्योगिक इकाइयां नदियों में विषाक्त औद्योगिक अपशिष्टों का विसर्जन करती हैं। ओंटारियो और क्यूबिक प्रांतों की नदियों व खाड़ियों के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि इन जलीय स्रोतों में मिलने वाली मछलियों के खाने से अनेक घातक बीमारियां उत्पन्न हुई हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के लगभग 2.5 करोड़ व्यक्ति जो जल पीते हैं, उसकी आधिकारिक मानकों के अनुसार गुणवत्ता ठीक नहीं है।
लॉस ऐंजिल्स नगर में जो पेयजल की आपूर्ति की जाती है, उसमें पेट्रोलियम की गंध आती है। जापान के तट पर पारायुक्त मछलियों का सेवन करने से मिनामाता रोग उत्पन्न हो गया। यहीं एक ऐसा उदाहरण भी देखने में आया कि सन् 1940 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका की नियाग्रा काउंटी में दो रासायनिक इकाइयों ने लव नहर में औद्योगिक अपशिष्टों को विसर्जित करना प्रारंभ किया तो इससे इस नहर का जल इतना अधिक जहरीला हो गया कि सन् 1978 में न्यूयार्क राज्य के अधिकारियों द्वारा इस नहर क्षेत्र को ‘आपदा क्षेत्र’ घोषित करना पड़ा।
पश्चिमी यूरोप में राईन नदी, जिसका शाब्दिक अर्थ शुद्ध नदी है, आज सबसे अधिक प्रदूषित है, यह एक गंदे नाले की तरह प्रवाहित होती है। रूर बेसिन में, राईन वेर रूर नदियों के जल में नहाने व मात्र तैराकी करने से अनेक मौतें हुई हैं। हमारे देश में गंगा जैसी अनेक पवित्र नदियों में आज जिस तरह से गंदे नालों को मिलाकर उन्हें अपवित्र किया जा रहा है, उससे न केवल पीने के पानी का संकट गहराता जा रहा है बल्कि उस प्रदूषित जल से उपजे अनेक संकट आज हमारे सामने मुंह बाए खड़े हैं। सामाजिक और सरकारी स्तर पर यूं तो इन नदियों की सफाई के अनेक प्रायस हो रहे हैं, पर इसके परिणाम संतोषजनक नहीं है। आज देश की सभी नदियों के जल को शुद्ध और पेययुक्त बनाए रखने के लिए न केवल कठोर नियमों को बनाने, बल्कि उनके सख्ती से परिपालन की महती आवश्यकता है।
आज समस्त जल राशि चाहे वह सतही हो या भूमिगत किसी-न-किसी रूप में प्रदूषणयुक्त है। इस प्रकार प्रदूषित जल का प्रभाव समस्त भौतिक व मानवीय पर्यावरण पर पड़ रहा है, जिसके प्रभाव घोर नुकसानदायक हैं। जल प्रदूषण से सर्वाधिक आहत मनुष्य एवं सूक्ष्मजीव होते हैं। प्रदूषित जल का सेवन करने से हैजा, तपेदिक, पीलिया, अतिसार, मियादी बुखार, टायफाइड, पेचिश, आंत्रशोध, मलेरिया, फाईलेरिया, पोलियो, इंसेफेलाइटिस, डेंगू जैसे घातक रोग न केवल पनपते हैं, बल्कि मृत्यु का कारण भी बनते हैं। ऐस्बेस्ट्स के रेशों से युक्त जल के प्रयोग से फेफड़ों का कैंसर तथा पेट के अनेक रोग उत्पन्न होते हैं।
प्रदूषित जल से सिंचाई करने पर मिट्टी भी प्रदूषित हो जाती है, जिससे उसकी उर्वरता भी कम हो जाती है। क्षार व अम्लयुक्त जल से सिंचाई करने पर सूक्ष्म जीवाणु मर जाते हैं तथा मिट्टी में क्षारीयता बढ़ जाती है। नदियों, झीलों व तालाबों में जैविक व अजैविक पोषक तत्वों के सांद्रण में वृद्धि होने से पौधों की संख्या में नियंत्रण सीमा से अधिक वृद्धि हो जाती है। जल में विषाक्त रसायनों में धात्विक पदार्थों के सांद्रण में वृद्धि होने से पौधे एवं जीव-जंतु नष्ट हो जाते हैं। तेल के रिसाव तथा औद्योगिक अपशिष्टों के विसजर्न के कारण जलीय-जीव मर जाते हैं।
अक्टूबर-नवंबर, 1996 में दिल्ली में फैलने वाले डेंगू बुखार का प्रमुख कारण विशिष्ट प्रकार के मच्छरों का गंदे जल में पनपना ही था। इस प्रकार के बुखार से न केवल दिल्ली में 200 से अधिक मौतें हुई, बल्कि कई हजार रोगी अस्पताल में भर्ती किए गए। रेडियोधर्मी पदार्थों के जल में मिलने के कारण मनुष्य को ल्यूकनिया तथा कैंसर जैसे भयंकर रोगों से ग्रस्त देखा गया है। ऐसी भयावह परिस्थितियों में जल प्रदूषण की रोकथाम के लिए हर स्तर पर हर संभव प्रयास किए जाने आवश्यक हैं।
जल को प्रदूषित होने से बचाना हमारा प्राथमिक ध्येय होना चाहिए, क्योंकि जल स्वयं में अति महत्वपूर्ण तो है ही, इसके अभाव में मनुष्य और वनस्पति जगत् का जीवन भी सुरक्षित नहीं है। अतः बिना किसी प्रतीक्षा के हमें जल को प्रदूषित होने से न केवल बचाना होगा, बल्कि विश्वस्तर पर हमें ऐसे प्रयास करने होंगे जिनसे सभी को लाभ हो सके। जल प्रदूषण की रोकथाम के लिए निम्न उपाय आवश्यक तौर पर किए जा सकते हैं।
1. वाहित मल को स्वच्छ जल में विसर्जित करने से पूर्व उसे उपचारित किया जाना चाहिए। इस कार्य के लिए कैथोड रेट्यू तथा गंदगी का अवशोषण करने वाले उपकरणों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
2. उद्योगों के रसायन एवं गंदे अवशिष्टयुक्त जल को नदियों, सागरों, नहरों, झीलो आदि में सीधा न डाला जाए। साथ ही उद्योगों के ऐसे संयंत्र लगाने को कहा जाए, जिनसे वह गंदे जल को स्वच्छ करके ही बाहर निकाले।
3. सड़े-गले पदार्थ व कूड़ा-करकट को स्वच्छ जल के भंडार में विसर्जित नहीं किया जाना चाहिए।
4. शव को जलाने के लिए विद्युत शवदाह गृहों का निर्माण किया जाना चाहिए।
5. औद्योगिक अपशिष्टों के उपचार की व्यवस्था की जानी चाहिए। ऐसा न करने वाली औद्योगिक इकाइयों द्वारा वैधानिक नियमों का कड़ाई से पालन करवाने की योजना होनी चाहिए।
6. समुद्रों में परमाणु विस्फोट को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।
7. स्वच्छ जल के दुरुपयोग पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। जल-प्रदूषण रोकने के लिए सामान्य जनता में जागरुकता और चेतना पैदा की जानी चाहिए। इसमें सभी प्रकार के प्रचार माध्यमों द्वारा जल-संरक्षण के उपायों का व्यापक प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए।
8. जल में ऐसे जीव और वनस्पतियां विकसित की जाएं, जो जल को स्वच्छ रखने में सहायक हों।
9. प्रदूषित जल में विषाक्त रसायनों के निष्कर्षण की तकनीक पर बल दिया जाना चाहिए।
10. नदियों के जल ग्रहण क्षेत्रों में वृक्षारोपण को प्रोत्साहित करके जल प्रदूषण के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
11. विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जल की शुद्धता की रासायनिक जांच समय-समय पर कराते रहना चाहिए।
12. मल विसर्जन से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए ‘सुलभ इंटरनेशनल जैसी स्वयंसेवी संस्थाओं का सहयोग लेना चाहिए। सुलभ शौचालयों का निर्माण करने से निश्चित ही जल-प्रदूषण की मात्रा में कमी लाई जा सकती है।
जल-प्रदूषण की रोकथाम के लिए जल अधिनियम बनाया गया है, जिसके अंतर्गत जल प्रदूषित करने वालों के लिए दंड का प्रावधान है। केंद्र एवं राज्य स्तर पर जल-प्रदूषण के नियंत्रण और उसके बचाव के लिए एक प्रशासनिक तंत्र की स्थापना की गई है, जिसे जल प्रदूषण बोर्ड कहते हैं। यह अधिनियम इस दृष्टि से बहुत विस्तृत है कि इसमें सरिताएं, जल प्रवाह-मार्ग, अंतर्देशीय जल, अंतर्भूमिक जल, समुद्र, ज्वारीय जल को राज्य के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत मान्यता देता है।
राज्य एवं केंद्रीय बोर्ड में व्यापक प्रतिनिधित्व होता है और उन्हें परामर्श देने के पूरे-पूरे अधिकार दिए गए हैं तथा जल-प्रदूषण के निवारण एवं नियंत्रण अथवा उसमें कमी के लिए तकनीकी सहायता को समन्वित करके प्रदान करने के लिए अधिकृत किया गया है। जल अधिनियम विषैले, हानिकारक अथवा प्रदूषित करने वाले पदार्थों को नदियों एवं कुओं में फेंके जाने को निषिद्ध करता है और प्रत्येक वह कार्य जो नदी के जल के उचित प्रवाह में बाधित होता है, रोकता है। यह अधिनियम यह प्रतिबंध भी लगाता है कि मल, जल या औद्योगिक प्रवाह को नदियों या कुओं में गिराने के लिए पूर्व अनुमति की आवश्यकता होगी। बोर्ड को प्रदूषणकर्ताओं को ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न करने पर दंडित करने का अधिकार प्राप्त है।
भारत के संविधान के अनुसार पर्यावरण प्रदूषण के संबंध में जनसाधारण के भी कुछ कर्तव्य और अधिकार निहित किए गए हैं। उसे अनुसार, यदि किसी अवस्था में उद्योग से प्रदूषण हो रहा है, ऐसी स्थिति में प्रभावित व्यक्ति या समुदाय को यह अधिकार दिया गया है कि वह इसकी सूचना संबंधित बोर्ड को दे। यदि दो माह के भीतर उचित कार्यवाही नहीं होती है तो प्रभावित व्यक्ति या समुदाय प्रदूषणकारी पर मुकदमा दायर कर सकता है। जनसाधारण को चाहिए पर्यावरण संबंधी विभिन्न नियमावली के बारे में जानकारी रखे।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 48 ‘क’ में स्पष्ट किया गाया है कि राज्य देश के पर्यावरण संरक्षण, संवर्धन के साथ वन एवं वन्य-जीवों की रक्षा करेगा। इसी प्रकार संविधान के अनुच्चेद 51 क (छ) में यह स्पष्ट किया गया है कि इस देश के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण, जिसमें नदी, झील, वन एवं वन्य-जीव भी सम्मिलित हैं, की रक्षा करेगा और इसके संवर्धन के साथ प्राणीमात्र के लिए दया-भाव रखेगा।
इसी सबको दृष्टिगत रखते हुए तथा जल के महत्व और इसकी उपयोगिता के कारण भारतीय संस्कृति में जल को देवता का स्वरूप माना गया है। तो आइए, सृष्टि की इस अनमोल धरोहर के संरक्षण के लिए न केवल हम एक सच्चे भारतीय होने का अपना कर्तव्य निभाएं, बल्कि प्रकृति के इस तोहफे की पवित्रता को बनाए रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देकर स्वयं को ही कृतार्थ करें।
प्रवक्ता, केशव मारवाड़, गर्ल्स डिग्री कॉलेज, पिलखुबा, हापुड़, गाजियाबाद (उ.प्र.)
Source
पर्यावरण विमर्श, 2012