पंजाब और राजस्थान हमेशा से इसे बनने नहीं देना चाहते थे और यदि पंजाब चुनाव में सत्तारूढ़ दल की हालत पस्त नहीं होती तो हरियाणा कभी भी केन्द्र के इशारे पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका नहीं लगाता। चुनाव योजनाकारों को पता है कि भ्रष्टाचार और नशे का बाजार संवेदनशील नहर में डूब जाएँगे। एक तरह से पंजाब सरकार दोहरी नीति पर चल रही है एक तरफ तो उसने मामले को ट्रिब्युनल को भेज दिया ताकि उस पर कोर्ट की अवमानना का आरोप ना लगे और दूसरी ओर किसानों को जमीन वापस करने का आदेश पारित कर दिया।
अन्देशे अपना रंग दिखाने लगे हैं, मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल खून देने को तैयार हैं लेकिन पानी नहीं, उनका उवाच शर्तिया राजनीतिक है लेकिन पंजाब में लाखों किसानों की मनोदशा स्वाभाविक रूप से यही है।सतलुज और यमुना अपने आप में राजनीति को प्रभावित नहीं करते लेकिन इन दोनों को मिलाकर बनने वाली मानव निर्मित नदी यानी नहर पक्के तौर पर वोट देती है। राष्ट्रपति को सलाह के रूप में आया सुप्रीम कोर्ट का आदेश पंजाब चुनाव को गरमाने के लिये काफी है, सभी एकजुट होकर हरियाणा को पानी नहीं देने के लिये कटिबद्ध हैं। बात निकली तो राजस्थान की इन्दिरा गाँधी नहर और उस पर बकाया 80 हजार करोड़ तक पहुँच गई।
यमुना लिंक में जो पानी दिया जाएगा वो राजस्थान को दिये जा रहे पानी में से ही होगा और उसे पहले ही समझौते से कम दिया जा रहा है। राजस्थान को 1981 के समझौते के अनुसार अभी 8 एमएएफ पानी इन्दिरा गाँधी फीडर और अन्य कैनाल से मिल रहा है, जिससे भी बाँध नहीं भरने के कारण एक-दो एमएएफ पानी राजस्थान को कम ही दिया जाता है। उसमें से भी सतलुज यमुना लिंक के नाम 1.9 एमएएफ पानी हरियाणा को देने का सीधा असर राजस्थान पर पड़ने वाला है।
हरियाणा को लिंक का पानी देते ही राजस्थान को मिलने वाले पानी की वास्तविक मात्रा 4 से 5 एमएएफ ही रह जाएगी। जब इन्दिरा गाँधी नहर बनाई जा रही थी तब नदी के बारें में नहीं सोचा गया अब दूसरी नहर पर बात हो रही है तो पहली नहर को उपेक्षित करने की तैयारी है। यदि नई लिंक नहर आकार लेती है तो बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर में पानी का भारी संकट खड़ा हो जाएगा क्योंकि इन इलाकों में पानी की स्थिति किसी से छिपी नहीं है।
अब कुल मिलाकर पिछले पखवाड़े सिंधु समझौते पर पाकिस्तान को छटी का दूध याद दिलाने वाला समाज आपस में ही तलवार भाँज रहा है। इस लड़ाई में यमुना और सतलुज कही नहीं है, देखा जाये तो आम किसान भी इस तस्वीर का हिस्सा नहीं है। यहाँ सिर्फ पंजाब का चुनाव है। पंजाब जो सलूक हरियाणा के साथ कर रहा है वही सलूक हरियाणा दिल्ली के साथ करता है।
नहर बनेगी या नहीं यह बहस का विषय है, हालांकि कोई भी पक्ष इसको लेकर गम्भीर नहीं है। पंजाब और राजस्थान हमेशा से इसे बनने नहीं देना चाहते थे और यदि पंजाब चुनाव में सत्तारूढ़ दल की हालत पस्त नहीं होती तो हरियाणा कभी भी केन्द्र के इशारे पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका नहीं लगाता। चुनाव योजनाकारों को पता है कि भ्रष्टाचार और नशे का बाजार संवेदनशील नहर में डूब जाएँगे।
एक तरह से पंजाब सरकार दोहरी नीति पर चल रही है एक तरफ तो उसने मामले को ट्रिब्युनल को भेज दिया ताकि उस पर कोर्ट की अवमानना का आरोप ना लगे और दूसरी ओर किसानों को जमीन वापस करने का आदेश पारित कर दिया। कुछ ही दिनों पहले कावेरी विवाद में भी कोर्ट के फैसले को मानने में कर्नाटक गवर्नमेंट ने ना-नुकुर जरूर किया, पर इस तरह उसे साफ नकारा नहीं।
पंजाब में सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों अपने को किसानों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करना चाहते हैं। लेकिन इस चक्कर में उन्होंने उन तमाम मूल्यों को धता बता दिया, जिसे देश ने लम्बी जद्दोजहद के बाद विकसित किया है। यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी संघीय व्यवस्था में सभी राज्यों को काफी हद तक स्वायत्तता हासिल है, लेकिन यह निरपेक्ष नहीं है।
देश हित के कई मसलों पर केन्द्र का एकाधिकार है। केन्द्र की भूमिका राज्यों के बीच तालमेल बनाकर चलने वाले अभिभावक की है, जिसका मकसद सभी को बराबर संसाधन और विकास के अवसर उपलब्ध कराना है। नदी और उसके पारिस्थितिकीय हितों को ताक पर रखकर सिर्फ उसके दोहन पर दावा घातक है यह केन्द्र और राज्य दोनों को समझना होगा।