सूखे में तिल की खेती

Submitted by Hindi on Mon, 04/08/2013 - 15:38
Source
गोरखपुर एनवायरन्मेंटल एक्शन ग्रुप, 2011

तिल हमीरपुर के किसानों की परंपरागत फसल है, जिसने न सिर्फ किसानों को सूखे से मुक्ति दिलाई, वरन् उनकी पौष्टिकता भी बढ़ाई है।

संदर्भ


बुंदेलखंड में अनेक वर्षों से सूखे की स्थिति उत्पन्न होती चली आ रही है। वर्षा कम होना, समय पर न होना आदि और इन्हीं के चलते अब स्थिति यह आ गई है कि किसान कहता है कि पहले केवल ऊपर का सूखा पड़ता था, अब नीचे का भी सूखा है। सूखा से सुखाड़ बनने के कारण खेती करना बेहद घाटे का सौदा साबित हो रहा है। फसल के लिए जो बीज बोते हैं, वह भी मारा जाता है। इसी गंभीर समस्या से निजात पाने के लिए हमीरपुर जनपद के विकासखंड मौदहा के गांव पिपरौंदा, असुई, तिंदुही, सायर गांव के किसानों ने अपनी उन परंपरागत फसलों, जिनमें पानी समय से व अधिक मात्रा में चाहिए, को छोड़कर कम पानी वाली फसलें बोने का निर्णय लिया, जो आसानी से उपज देने वाली हों। इसके साथ ही पशुधन के लिए भी चारा उपलब्ध हो सके। इसीलिए पूर्व के अनुभवों के आधार पर किसानों ने तिल की खेती करने का निश्चय किया। यह इसलिए भी सुविधाजनक था, क्योंकि तिल बुंदेलखंड की परंपरागत फसलों में शामिल रही है। एक ओर छोटे किसान तिल की खेती करके जहां सूखे की स्थिति का प्रभाव कम कर रहे हैं, वहीं बड़े किसान भी इससे लाभ कमा रहे हैं।

परिचय


तिल मुख्यतः दो प्रकार की होती है– काली तथा सफेद। तिल का प्रयोग मुख्य रूप से तेल निकालने, विभिन्न प्रकार के पकवान बनाने, व्रत के समय एवं अनेकों प्रकार के सुगंधित तथा औषधीय तेल बनाने में किया जाता है। तिल की खली पशुओं को भी खिलाई जाती है। यह स्वाद में मीठी तथा चिकनी होती है। शीतलता तथा पौष्टिकता के गुणों से भरपूर होने के कारण स्वास्थ्यवर्धक मानी जाती है। काले तिल का प्रयोग हवन, पूजन, यज्ञ, आदि में किया जाता है। जबकि सफेद व काले दोनों तिलों का प्रयोग तेल निकालने, व्रत के दौरान फलाहार आदि में किया जाता है। गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र इसके प्रमुख उत्पादक राज्य हैं।

प्रक्रिया


भूमि का प्रकार
तिल के लिए पडुआ तथा मार मिट्टी (स्थानीय नामानुसार) दोनों ही मुफीद हैं।

खेत की तैयारी


गर्मी में रबी की फसल कटने के बाद खेत की दो-तीन बार जुताई करने के बाद मिट्टी की जांच करवानी पड़ती है। उसके बाद संभव हो तो जिप्सम का प्रयोग करते हैं, जिससे खेत की मिट्टी भुरभुरी हो जाती है।

बीज की प्रजाति व मात्रा


तिल मुख्यतः पी-12, चौमुखी, छःमुखी व आठ मुखी चार प्रकार की होती है। किसान बीज की उपलब्धता के आधार पर किसी भी प्रकार का बीज बोते हैं। एक एकड़ में डेढ़ किग्रा. बीज की आवश्यकता होती है।

बीज का शोधन


बुवाई के पूर्व बीज का शोधन करना आवश्यक होता है। पानी में ट्राइकोडर्मा नामक दवा मिलाकर बीज के ढेर में छिड़काव कर उसे छांव में सूखने दिया जाता है। जैसे ही बीज सूखकर तैयार हो जाता है, उसकी बुवाई कर देते हैं।

बुवाई का समय व विधि


जून के अंत में या जुलाई के प्रारम्भ में जैसे ही थोड़ी सी भी बरसात होती है, उसके बाद एक जुताई करके तिल की बुवाई छिटकवां विधि से कर देते हैं।

खर-पतवार नियंत्रण


बुवाई के पश्चात् जैसे ही फसल ऊपर आती है, तो सावधानी बरतते हुए लासों नामक रसायन पाउडर का छिड़काव कर दिया जाता है। इससे खर-पतवार की सम्भावना समाप्त हो जाती है। निराई-गुड़ाई करने से खर-पतवार भी नियंत्रित होता है और अच्छी पैदावार भी मिलती है.

सिंचाई


तिल की खेती में सिंचाई आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

फसल की सुरक्षा


फसल के बढ़ने पर उसकी सुरक्षा आवश्यक होती है अन्यथा आवारा व जंगली पशु तिल की फसल को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाते हैं।

तैयार होने की अवधि


30-40 दिनों में फसल 15 इंच से 18 इंच तक लंबी हो जाती है तथा इसी के बाद इसके पकने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। 90 से 120 दिनों के बीच फसल तैयार हो जाती है, जिसकी कटाई की जाती है।

कटाई व झराई


तिल की कटाई हाथ से की जाती है। काटने के बाद चार से सात दिनों तक आवश्यकतानुसार कटी हुई फसल को सुखाया जाता है। उसके बाद कटी हुई फसल से तिल को झाड़ लिया जाता है। यह प्रक्रिया तीन बार की जाती है। पहली बार तिल झाड़ने के बाद उसे फिर सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है तथा दो-तीन दिन के अंतर में उसे पूरी तरह पौधों से निकाल लिया जाता है।

उपज


एक एकड़ में 5 कुन्तल तिल की उपज प्राप्त होती है।

अन्य प्राप्तियां


तिल के दाने निकालने के पश्चात् बचे हुए झाड़-झंखाड़ को जलाने के काम में लाया जाता है। जाड़े या बरसात की स्थिति में यह अधिक उपयोगी जलौनी है।