कहावत प्रसिद्ध है कि ‘प्रभु भक्ति के बाद दूसरा स्थान सफाई का है।’ इसी कारण सभी धार्मिक स्थलों में बहुत सफाई रखी जाती है। प्रभु भक्त यहां आकर प्रत्येक वस्तु को अपने हाथों से साफ करके खुद को बहुत भाग्यशाली समझते हैं। सिख पंथ में तो जब किसी से मर्यादा का उल्लंघन हो जाए तो उसे क्षमादान देने से पहले बर्तन व अन्य प्रकर की सफाई करने की ‘सजा’ लगाई जाती है। सफाई का इतना ऊंचा स्थान होने के बावजूद हमारे देश में हर जगह गंदगी का बोलबाला है। अपना कूड़ा-कर्कट सार्वजनिक स्थानों पर फेंकना तो आम-सी बात बन गई है।
यह बहुत अच्छी बात है कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ध्यान इस ओर गया है और उन्होंने महात्मा गांधी के जन्मदिवस पर देश को गंदगी मुक्त करने का अभियान आरंभ किया है। इससे भी बड़ी खुशी यह है कि सरकारी और सार्वजनिक स्तर पर इस अभियान को बेशक पूरी तरह नहीं, फिर भी काफी अच्छा समर्थन मिला है। सभी को यह बात अच्छी लग रही है। यदि यह अभियान गांधी जी के ‘चरखे’ की तरह लगातार चलता रहा तो इस बीमारी को समाप्त करना असंभव नहीं।
देश में बड़े अधिकारियों की रिहायशों के आस-पास के क्षेत्र को छोड़कर अन्य सभी स्थानों पर गंदगी क्यों है? इसके अनेक कारण हैं। इसमें सरकारी प्रयासों की कमी के साथ-साथ हमारी मानसिकता भी दोषी है। जिसके कारण गंदगी को नफरत नहीं की जाती। हम इसकी अनदेखी करके आगे चल देते हैं।
घर को साफ-सुथरा रखना तो परिवार का निजी काम है, लेकिन सार्वजनिक स्थलों के लिए एक विशेष गरीब वर्ग से संबंधित कर्मचारी हीं भर्ती किए हुए हैं और उनकी संख्या भी जरूरत से कहीं कम है। उनकी सेवा शर्तें घटिया होने के साथ-साथ वेतन और भत्ते भी बहुत कम हैं। पंजाब में गत लगभग 20 वर्षों से ये कर्मचारी अस्थाई ही चले आ रहे हैं। गत दिनों इन्होंने पक्के किए जाने के लिए आंदोलन भी चलाया लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला। इन बेचारों के अपने घर और बस्तियां सबसे अधिक गंदी हैं। सफाई जैसा पवित्र काम करने वाले लोगों की ओर बहुत कम तवज्जों देने के कराण ही हमारा सामाजिक राजनीतिक तंत्र इतना दूषित हुआ है। आम स्थानों पर कूड़ेदान नहीं होते, जिसके कारण बीमारियां फैलती हैं। लोग इस बारे में जागरूक नहीं। स्वास्थ्य विभागो के पास भी कठोरता से नियम लागू करने के लिए पर्याप्त अधिकार नहीं है।
जो घर, मोहल्ला, शहर साफ-सुथरा होता है, वहां अपने आप ही हमारा मन प्रसन्न होता है। ऐसे स्थानों पर पैसा खर्च कर सैर-सपाटे के लिए जाते हैं ताकि कुछ समय आनंद के वातावरण में बिता सकें। लोग स्वच्छ होटलों, रैस्टोरैंटों में खान-पान तथा रिहायश के लिए भी अधिक पैसा खर्च कर देते हैं। साफ-सुथरे घर, कार्यालय में प्रवेश करते समय हम अपने जूते साफ करके ही अंदर जाने का साहस करते हैं। इसके विपरीत गंदगी भरे घरों में नाक पर कपड़ा रख कर जाते हैं या बाहर खड़े होकर ही कम से कम समय में अपना काम समाप्त करके वापस लौटने का प्रयास करते हैं। यदि कोई किसी को कुछ कहता है तो उसे फटकार सहनी पड़ती है।
स्कूलों-कॉलेजों के विद्यार्थियों एवं एन.एस.एस. के वालंटियोरों द्वारा किसी खास दिन/शिविर में स्वच्छता के लिए औपचारिक प्रयास किए जाते हैं। दूसरी ओर हम देखते हैं कि नदियों-नालों में गंदगी अंधाधुंध फेकी जा रही है। इनके आस-पास बसी जनता इनके किनारों को ‘शौचालय’ की तरह प्रयुक्त करती है। नदी-नालों के पानी से कपड़े धोना तथा स्वयं व पशुओं के पीने के लिए इसे प्रयुक्त करना तो आम बात है। नदी-नालों के किनारे लगे कारखाने अपना गंदा पानी लगातार इनमें फेंक कर स्वयं काफी धन की बचत कर लेते हैं। यह सरकारी नियमों का घोर उल्लंघन है। लेकिन कारखानेदार लोग दफ्तरी कर्मचारियों को अपनी मुट्ठी में रखने की क्षमता रखते हैं, इसी कारण इनका धंधा निर्बाध रूप में जारी रहता है। पानी को ‘अमृत’ कहा जाता है लेकिन इसे ‘जहर’ बनाने वाले लोगों को कोई दंड नहीं दिया जाता।
शहरों में गंदे पानी के निकास हेतु नालियां, सीवरेज इत्यादि बनाए जाते हैं। यह काम ठेकेदारों के माध्यम से करवाया जाता है। बेशक इनमें प्रयुक्त होने वाले सामान की गुणवत्ता, मात्रा एवं प्रक्रिया की व्याख्या टैंडर दस्तावेजों में विधिवत की जाती है, लेकिन व्याहारिक तौर पर इनकी अनदेखी की जाती है। ठेकेदार अपनी मर्जी से काम करवाते हैं और इसके संपूर्ण होने पर अफसरों को परेशान करके बिल पास करवा लेते हैं। नागरिकों द्वारा की गई किसी प्रकार की शिकायत का निपटारा नहीं किया जाता।
ग्रामीण क्षेत्रों में गुजरे समय में भैंसों और अन्य पालतू पशुओं को सार्वजनिक तालाबों व पोखरों में नहलाया जाता था और उनमें हर रोज नया व ताजा पानी डाला जाता था। परंतु अब यह परंपरा नहीं रही। यह काम लोग अब घर में ही कर लेते हैं और गंदा पानी नालियों के माध्यम से इन तालाबों में पहुंचता है। इससे तालाब बहुत गंदे हो गए हैं और इनका पानी किसी भी तरह के उपयोग में नहीं आ रहा। इनके पानी को सीवरेज के माध्यम से गांव से दूर ले जाकर खेतों की सिंचाई हेतु प्रयुक्त किया जा सकता है। जिन थोड़े-बहुत गांवों में यह काम सरकारी सहायता से अंजाम दिया गया है, वहां गंदे जल की समस्या काफी हद तक हल हो गई है। शेष गांवों में भी ऐसा किया जाना उचित होगा।
वैज्ञानिकों ने बहुत ही प्रशंसनीय शोध किया है कि गंदगी के कुछ भाग से बिजली और उर्वरक तैयार किया जा सकता है। यदि जगह-जगह ऐसे कारखाने लग जाएं तो काफी राहत मिल सकती है। इसके साथ आमदनी भी बढ़ेगी। सरकार और उद्योगपति इस क्षेत्र में निवेश कर सकते हैं। अब जब यह अभियान अखिल भारतीय स्तर पर आरंभ किया गया है, तो ऐसे शोध का लाभ उठाने की उम्मीद की जा सकती है।
हमें ‘स्वच्छ भारत’ निर्माण को पवित्र व पुण्य कार्य के रूप में अपनाना होगा। हम अपने शरीर की सफाई की ओर ध्यान देते हैं, अनेक प्रकार के साबुन, तेल प्रयुक्त करते हैं। जूते पालिश करके सुंदर वस्त्र पहन कर बन-ठन कर बाहर निकलते हैं, इसी प्रकार अपने चौगिर्दे को भी स्वच्छ रखने के लिए हर रोज ध्यान दिया जाए, केवल विशेष समागम के दिन पर ही नहीं।
ये विचार कोई शेख़चिल्ली की परिकल्पना नहीं। वास्तविक रूप में ऐसा हो सकता है। राजनीतिक दलों और समूची जनता को एक-दूसरे के आगे उत्तरदाई बनाया जा सकेगा। इस कठिन परंतु महत्वपूर्ण कार्य को सफल बनाने हेतु हम सबकी ‘वचनबद्धता’ सबसे पहली शर्त होनी चाहिए। यह दीर्घकालिक अभियान है। इसमें स्वच्छ प्रतिस्पर्धा की तर्ज पर एक-दूसरे से आगे निकलने की भावना पैदा होनी चाहिए एवं विजेताओं को सम्मानित किया जाना चाहिए। ऐसा करने से ही ‘मलिन भारत’ का कायाकल्प होकर ‘क्लीन इंडिया’ बन सकता है।
लेखक मूल-रूप से प्रिंसीपल हैं। ईमेल- opvermaprincipal@gmail.com
Source
नवोदय टाइम्स, 14 अक्टूबर 2014